सुदेश गौड़
गत माह भारत के 37 वर्षीय पराग अग्रवाल को ट्विटर का सीईओ बनाए जाने के साथ ही हर किसी की जुबान पर एक ही सवाल आ रहा है कि अमेरिकी कंपनियों में भारतीय नेतृत्व को आखिर क्यों इतना ज्यादा पसंद किया जा रहा है। अमेरिका की कुल आबादी में लगभग एक प्रतिशत भारतीय मूल के नागरिक हैं जबकि सिलीकॉन वैली में 6 प्रतिशत भारतीय मूल के नागरिक कार्यरत हैं। अमेरिकी कंपनियों में कार्यरत भारतीय मूल के सीईओ की लिस्ट काफी लंबी है जैसे 2015 से गूगल में सुंदर पिचाई, 2014 से माइक्रोसॉफ्ट में सत्या नाडेला, 2020 से आईबीएम में अरविंद कृष्ण, 2007 से एडोब में शांतनु नारायण, मई 2021 से वीएमवेयर में रघु रघुराम, पालो आॅल्टो नेटवर्क्स में निकेष अरोड़ा का नाम तो यूं ही जुबान पर आ जाता है। इनके अलावा अमेरिकी कंपनी मास्टरकार्ड (अजयपाल सिंह बंगा), नेटऐप (राकेश कपूर), माइक्रॉन टेक्नोलॉजी (संजय मेहरोत्रा), वीमियो (अंजली सूद), फ्लेक्स (रेवती अद्वैती), अरिस्टा नेटवर्क (जयश्री उल्लाल) भी भारतीय मूल के सीईओ के कारण पहचानी जाती हैं। आखिर क्या कारण है कि ग्लोबल टेक में भारतीय मूल के इतने सीईओ हैं।
अमेरिका में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों की संख्या की तुलना अगर चीनी छात्रों की संख्या से की जाए तो चीन के मुकाबले लगभग आधे भारतीय छात्र ही अमेरिका पढ़ने जाते हैं। अमेरिका में शिक्षा प्राप्त करने वाले विदेशी युवाओं में 74 प्रतिशत तो सिर्फ एशियाई देशों से होते हैं। 2020-21 के आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में चीन के छात्रों की संख्या सर्वाधिक 3,17,299 है जबकि उच्च शिक्षा के इच्छुक भारतीय युवाओं की संख्या 1,67,582 है। वहीं 39,491 छात्रों के साथ दक्षिणी कोरिया तीसरे नंबर पर है। कोविड के कारण पिछले वर्षोें के मुकाबले यह संख्या 17 से 19 प्रतिशत कम है।
भारतीयों की खासियत
ट्विटर का सीईओ पद छोड़ते हुए जैक डोर्सी ने खुद बताया था कि पराग अग्रवाल को सीईओ इसलिए चुना गया क्योंकि वे कंपनी और उसकी जरूरतों को गहराई से समझते हैं। वे दिल और दिमाग में संतुलन बनाकर निर्णय करते हैं। मैं उनसे हर दिन कुछ नया सीखता रहा हूं। इसलिए सीईओ के तौर पर हम सबका उन पर पूरा भरोसा है। डोर्सी के तर्कों में काफी दम है और यही भारतीय बिजनेस लीडर्स की ताकत है।
अमेरिकी कारोबारियों का भी मानना है कि भारतीयों में स्वभावगत सीखने की प्रबल उत्कंठा होती है और वे आसानी से विभिन्न संस्कृति वाले लोगों के साथ घुल-मिलकर बेहतरीन परिणाम दे सकने की क्षमता रखते हैं। अगर ज्यादातर भारतीय मूल के सीईओ के करियर पाथ का अध्ययन करें तो सभी में एक पैटर्न दिखेगा कि वे कंपनी में बतौर इंजीनियर काम शुरू करते हैं, काम सीख कर प्रोडक्ट मैनेजर बन जाते हैं और अलग-अलग कंपनियों में या अलग- अलग प्रोडक्ट पर काम कर के अपनी कारोबारी क्षमता को निखारते हैं तथा शीर्ष मैनेजमेंट पोस्ट के लिए खुद को तैयार करते हैं। भारतीयों या भारतीय मूल के लोगों के शीर्ष पद पर पहुंचते ही कंपनी की कार्यप्रणाली में आमूलचूल सांस्कृतिक परिवर्तन होता है।
अमेरिका में कई दशक काम कर चुके व अपने अनुभवों को लिपिबद्ध करने वाले विवेक वाधवा का मानना है कि पराग अग्रवाल ने भी सांस्कृतिक परिवर्तन की अवधारणा के तहत पद संभालते ही कंपनी में बड़ा फेरबदल कर डाला है ताकि वहां काम करने वाले अपने को खांचों में बंटा हुआ महसूस न करें और समग्र इकाई के तौर पर कंपनी के लिए काम करें। ट्विटर के विषाक्त कामकाजी माहौल को लेकर काफी कुछ लिखा जाता रहा है। शीर्ष नेतृत्व, चाहे जैक डोर्सी हों या उनके पूर्ववर्ती डिक कोस्टोलो, कभी भी अपनी कमियों के बारे में सुनना नहीं चाहते थे और आलोचकों को सार्वजनिक तौर पर लताड़ना सामान्य माना जाता था। भारतीय लोगों में स्वभावजन्य सहिष्णुता, दूसरों की बात को सुनना और उनकी समस्याओं से खुद को जोड़कर देखने के कारण समाधान खोजने का तरीका बिल्कुल ही अलग होता है।
भारतीय बाजार भी एक बड़ा कारण
चीनियों की अपेक्षा भारतीयों में खुलापन कुछ ज्यादा है और अमेरिकी व्यापार जगत इस अंतर को बखूबी समझता है। अनगिनत अमेरिकी उत्पादों के लिए आज भी चीन का बाजार बंद है या सीमित रूप में खुला है जबकि 130 करोड़ की आबादी वाला भारतीय बाजार सारी दुनिया के उत्पादों के लिए खुला व हमेशा बढ़ने वाला बाजार है।
रणनीतिक दृष्टि से देखें तो अमेरिकी कंपनियां खुद को खुली एवं विविध संस्कृति के रूप में प्रचारित एवं प्रदर्शित करना चाहती हैं। भारतीयों को सीईओ के तौर पर प्रतिस्थापित कर ये कंपनियां भारत से लगातार प्रतिभाशाली लोगों की आमद प्राप्त करती हैं। अमेरिका विशिष्ट सेवाओं, व्यापारिक और वाणिज्यिक क्षेत्र में अपनी बादशाहत बरकरार रखने के लिए चाहता है कि उसके पास हमेशा बुद्धिमान और मेहनती दिमागों का प्रचुर भंडार रहे और इसके लिए वह केवल अपने संसाधनों पर निर्भर नहीं रह सकता।
भारतीय-चीनी छात्रों में अंतर
चीनी युवा बड़ी संख्या में अमेरिका आकर शिक्षा हासिल कर वापस अपने देश जाकर ही काम करना पसंद करते हैं। चीन सरकार भी ऐसा ही चाहती है और उन्हें वापस लाने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन भी देती है। जबकि एक भारतीय छात्र अमेरिकी विश्वविद्यालयों में फीस के तौर पर भारी-भरकम राशि खर्च करने के बाद वहीं अपना करियर खोजना चाहता है। इसके लिए भारत में कुछ हद तक प्रतिभा का सही मूल्यांकन न होना, राजनीतिक हस्तक्षेप और कम वेतन भी प्रमुख कारण हैं। इस तरह की स्थितियां दोनों ही पक्षों के लिए श्रेयस्कर होती है, जब आप मेहनती व स्मार्ट हों और अमेरिका को ऐसे ही लोगों की तलाश हो। जब अपने मेहनती और स्मार्ट होने का लाभ अमेरिका को आप स्वत: दे रहे हों तो वह क्यों नहीं लेगा। जब लंबे समय तक अमेरिका में काम करके आप उस देश को और समृद्ध बनाने के लिए काम कर चुके हों तो ऐसे चुनिंदा परिणामोन्मुखी भारतीयों को अपनी कंपनियों में सीईओ बनाकर अमेरिका भारत की नई पौध को अपने यहां आने का प्रकारांतर परोक्ष निमंत्रण दे ही देता है। और इसी प्रकार वहां आयातित मेहनती और स्मार्ट मस्तिष्कों का भंडार निरंतर बरकरार रहता है जो श्रेष्ठ तकनीक का प्रयोग करके तैयार उत्पाद को वापस भारत के बृहद बाजार में खपा देता है
शिक्षा व्यवस्था से भारतीयों को ताकत
भारतीय बिजनेस लीडर को यह ताकत यहां की शिक्षा व्यवस्था से मिलती है जो उनमें सीखने की उत्कंठा को निरंतर प्रज्ज्वलित रखती है तथा उनकी प्रतिभा को पहचान कर निखारती है। अमेरिकी कंपनियों में शीर्ष पदों पर कार्यरत ज्यादातर लीडर्स ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा भारत में ही पूरी की और उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका गए और वहीं के हो गए। नई शिक्षा नीति में प्रतिभा पलायन के बिन्दु पर काफी गंभीरता से मंथन किया गया है पर परिणामों के लिए अभी कुछ और साल तक प्रतीक्षा करनी होगी।
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