डॉ. नरेन्द्र सिह विर्क
विश्व की समस्त संस्कृतियों की बात करें तो भारत की संस्कृति सबसे पुरातन है। ऐसे में तय है कि भारत की आध्यात्मिक परंम्परा की उत्पत्ति सभी आध्यात्मिक परम्पराओं से पहले हुई है। जैन, ईसाई, इस्लाम, यहूदी, पारसी आदि मतों की आध्यात्मिक परंपराओं का उदय बाद में हुआ है। सबसे पुरातन सनातन धर्म के बाद आए बौद्ध, जैन पंथ आदि। सिख पंथ अपेक्षाकृत सबसे नूतन है। गुरु नानकदेव जी ने सिख पंथ की आधारशिला रखी और इनसे ही इस पंथ की आध्यात्मिक परंपरा शुरू हुई। यहां हम भारतीय आध्यात्मिक परंपरा से नानक देव जी द्वारा आरंभ की गई आध्यात्मिक परंपरा के संवाद पर चर्चा करेंगे।
गुरु नानकदेव जी का अवतरण 15वीं सदी में हुआ। उस समय भारत के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक हालात खुशगवार नहीं थे। मानवीय मूल्यों और नैतिकता का ह्रास दिखता था-
सरमु धरमु दुइ छपि खलोए कूड़ फिरै परधानु वे लालो।।
अर्थात् धर्म पंख लगाकर उड़ गया और मनुष्य नैतिक तौर पर गिर चुका था। इस समय भारतीय गुलामों से भी बदतर जिंदगी बसर कर रहे थे, कीरत करना तो भूल ही चुके थे। वे वेदों, शास्त्रों स्मृतियों, उपनिषदों, गीता और रामायण की आध्यात्मिक परंपराओं कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग से छिटककर केवल कर्म काण्ड युक्त जीवन व्यतीत कर रहे थे। भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में षड् दर्शन, जिसमें छह शास्त्रों का वर्णन है, में भारत की पुरातन शास्त्र के माध्यम से भारतीय संस्कृति की अगुआई हुई।
आज भी पश्चिम में सिंधु सभ्यता के समय में तक्षशिला और पूरब के नालंदा विश्वविद्यालयों के अवशेषों से स्पष्ट हो जाता है कि भारत ने पूरे विश्व में ज्ञान-विज्ञान प्रसारित करने में ख्याति प्राप्त की थी। इसलिए भारत को विश्व गुरु कहा गया है। पर आज इसकी स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? इसका पता केवल गुरु नानकदेव जी की आध्यात्मिक परंपरा पर दृष्टि डालने से होता है।
यही है जो गुरु नानकदेव की आध्यात्मिक परंपरा को भारतीय आध्यात्मिक परंपरा से संवाद करने को प्रेरित करता है। उस समय में काजी-मुल्ला-जोगी अर्थात् समाज को दिशा दिखाने वाले खुद ही अपने पथ से भटक चुके थे। इसका वर्णन गुरु नानक की वाणी में बार-बार आता है। गुरु नानक ने हिंदू और इस्लामी ग्रंथों की निंदा किये बिना अपने पंथ के मानवीय मूल्यों के अनुसार जीवन जीने के लिए प्रेरित किया था। डॉ. मुहम्मद इकबाल गुरु नानक के क्रांतिकारी कार्यों के बारे में लिखते हंै: फिर उठी आखिर सदा तौहीद की पंजाब से, हिंद को एक मरदे-कामल ने जगाया ख्वाब से।
गुरु नानक देव ने भारतीयों को गफलत की नींद से उठाकर जाग्रत किया। इसमें उस काल में सभी भक्त कवियों का विशेष योगदान रहा है। इन कवियों ने समकालीन राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक कुप्रबंध पर अपनी वाणी में तीक्ष्ण व्यंग्य किया है और कर्मकाण्डियों और अपने समय के शासकों का विरोध किया।
भारतीय आध्यात्मिक परंपरा वेदों से शुरू होती है। इस समय में जो धार्मिक साहित्य रचा गया उसमें अधिकतर बल मनुष्य को कर्मशील बनाने पर दिया गया। यह समय वेदों से लेकर उपनिषदों तक का था, जो ईसा से 550 ईस्वी पूर्व का समय था। वेदों, स्मृतियों और उपनिषदों में बेशक बहुत विस्तृत पूजा-अर्चना के प्रमाण मिलते हंै। परन्तु इस बहुईश्वरवाद को चलाने वाली एक ही शक्ति है, ब्रह्म। इस सबसे पहले एक सर्व शक्तिमान ब्रह्म का संकेत ऋग्वेद में मिलता है-‘तद्एकं’ अर्थात वह ब्रह्म एक है। गुरु नानकदेव जब ‘इक ओंकार’ का मंत्र देते हैं तब यह भी उस परम शक्ति की ओर संकेत है। भारतीय चिन्तनधारा में ब्रह्म को ही सत्य कहा गया है।
गुरु नानक ने ‘इक ओंकार’को ब्रह्म की व्याख्या करते हुए सतनाम कहा है। इसके प्रति प्रसिद्ध विद्वान डॉ. धर्मेंद्र कुमार गुप्ता ‘खोज’ पत्रिका के गुरु नानकदेव विशेषांक में लिखते हैं-‘जपुजी साहिब में ‘इक ओंकार’ के लिए सबसे पहले विशेषण सतनाम है। इसका भाव है ब्रह्म का नाम (और नाम के अनुसार गुण) सत्य है’। छांदोग्य उपनिषद् (2.3.4) में आता है: एतस्रिय ब्रह्मणो नाम सत्र-ऐसे इस बह्म का नाम सत्य है। ब्रह्म के गुणों और सत्य के बारे भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में, गुरमति आध्यात्मिक परंपरा में भी कई जगह ऐसा वर्णन मिलता है। गुरु नानकदेव की आध्यात्मिक धारा इस्लाम के निर्गुण स्वरूप अल्लाह से भी मेल खाती है, जैसे इस्लाम मूर्ति पूजा का खंडन करता है और एक अल्लाह का उपासक है। वही सिद्धांत निर्गुण अकाल पुरख का है, जिसका वर्णन मूल मंत्र मे मिलता है।
गुरु नानकदेव की आध्यात्मिक परंपरा सनातन और इस्लामी आध्यात्मिक परंपराओं से संवाद रचा कर पूरे विश्व को संदेश देती है। सिख पंथ में भी परमात्मा के गुणों का वर्णन है। उसी ब्रह्म की ज्योति तमाम पंथों, फिरकों के अनुयायियों में विद्यमान है। वाणी में है:
सभि महि जोति जोति है सोइ।
तिस दै चानणि सभ महि चानणु होइ।।
और
सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई।।
हम सब रंग, वर्ग, जाति-पाति फिरकों, स्थानों के अनुसार भिन्न होते हुए भी परमात्मा का अंश। आत्मा का परमात्मा से बिछड़ना और जुड़ना संसार की रचना है। वनस्पति, धरती, आकाश, अग्नि, जल, पहाड़ों आदि में वही विराजमान हैं:
बलिहारी कुदरति वसिआ।
तेरा अंतु न जाई लखिआ।।
और
जले हरी। थले हरी।।
गीता के तीसरे अध्याय में कर्म योग के संदर्भ में लिखा है-
न कर्मणामनारंभान्रैष्कर्म्य पुरुष:
न च सन्न्यसनादेव सिदिं समधिगच्छति।।
इसी तरह चौथे अध्याय में भी कर्म योग का जिक्र किया गया है और छठे अध्याय में ध्यान योग का, जिससे ज्ञान की प्राप्ति होती है। गीता के दसवें अध्याय में परमात्मा की अनंतता का वर्णन है जिसे देवी-देवता भी नहीं जान सकते। बारहवें अध्याय में एकाग्रता से भक्ति करने की प्रेरणा है।
हरिद्वार में गुरु नानक देव गंगा स्नान करते हुए
इससे सृष्टि और इसके रचयिता को जानने की जिज्ञासा पैदा होती है। कुदरत के भेदों और रहस्यों का वर्णन जपु वाणी में मिलता है। जैसे भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में श्रवण पर जोर दिया गया है। प्रभु के गुणगान तथा प्रभु से मिलन के लिए सनातन धर्म में परा, पष्यंति, मधमा, बैखरी की विधि प्रचलित है, वैसे ही गुरबानी में भी इसका वर्णन है। उसी तरह जपुजी साहिब में श्रवण और मनन से जुड़ी चार-चार पौड़ियां मिलती हैं। इसी में एक पंक्ति आती है:
गावीऐ सुणीऐ मनि रखीऐ भाउ।
दुखु परहरि सुखु घरि लै जाए।।
मनुष्य जब किसी सिद्धांत या उपदेश को पढ़कर या सुनकर उसे भावना के साथ स्वीकार करता है तब उसके जीवन में परिवर्तन आता है। गुरु साहिब का मनोरथ वाणी मंथन करना और व्यावहारिक जीवन को श्रेष्ठ बनाना है। उनका फरमान है:
गली असी चंगीआ आचारी बुरीआह।
मनहु कुसुधा कालीआ बाहरि चिटवीआह।।
गुरु नानकजी की आध्यात्मिक परंपरा में सिद्धांत और व्यवहार के सुमेल पर जोर दिया गया है। भारतीय आध्यात्मिक परंपरा के अंतर्गत भक्ति परंपरा (रामानुज से सिख गुरु साहिबान तक) में समस्त भारतीय रामानंद, जयदेव, कबीर, नामदेव, धन्ना, रविदास, तुलसी, मीरा, फरीद आदि भक्त कवि हैं, जो सगुण और निर्गुण दोनों हैं। गुरु नानकदेव की आध्यात्मिक परंपरा निर्गुण कवियों यथा जयदेव, कबीर, बाबा फरीद, रविदास, नामदेव आदि को अपने कलावे में गूंथकर श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के रूप ज्ञान का सागर जगत को देती है। इस पावन ग्रंथ में संपूर्ण भारत की आदिकाल से मध्य काल तक ध्रुव, प्रह्लाद से लेकर कबीर और रविदास तक निर्गुण आध्यात्मिक परंपरा का वर्णन मिलता है। गुरु ग्रंथ साहिब में कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का सुमेल है। यह सुमेल भगवद्गीता में भी प्रकट होता है।
विश्व में जब भी किसी दिव्य आत्मा का प्रकाश होता है तब वह प्रभु का संदेश लेकर संसार का मार्गदर्शन करती है। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है-जब-जब धर्म की हानि होती है तब-तब मैं धर्म की स्थापना के लिए आता हूं। इसी तरह संसार के कल्याण हेतु हजरत ईसा को जोर्डन नदी के तट पर ज्ञान हुआ था। हजरत मुहम्मद को मक्के के नजदीक एक पहाड़ की गुफा में ज्ञान प्राप्ति हुई और महात्मा बुद्ध को गया में एक वृक्ष नीचे ज्ञान मिला। गुरु नानकदेव ने तीन दिन काली बेई नदी में अलोप रहने के बाद संसार को ज्ञान का मार्ग दिखाया।
गुरु नानकदेव जी की परंपरा में भारतीय चिंतन की तरह पुनर्जन्म की चर्चा भी है:
घर दर फिरि थाकी बहुतेरे।
जाति असंख अंत नही मेरे।।
केते मात पिता सुत धीआ।
केते गुर चेले अंत नही मेरे।।
गुरु नानक जी की विचारधारा में इस्लाम और भारतीय आध्यात्मिक परंपरा बीज रूप में विद्यमान है। इसके बावजूद यह परंपरा कन्वर्जन पर जोर ना देकर मुसलमान को सच्चा मुसलमान, हिंदू को श्रेष्ठ हिंदू, जोगी को नेक जोगी, गृहस्थ को उत्तम गृहस्थ, राजा को न्यायशील राजा बनने का संदेश बहुत ही स्पष्ट शब्दों में देती है-
नानक चुलीआ सुचीआ
जे भरि जाणै कोए।।
गुरु नानकदेव जी की आध्यात्मिक परंपरा ना तो इस्लाम का अनुवाद करती है, ना ही भारतीय आध्यात्मिक परंपरा का। बल्कि यह मनुष्य को समस्त ब्रह्मांड के साथ जुड़ने की प्रेरणा देती है, जिसके बारे में रविन्द्र नाथ ठाकुर द्वारा ‘गगन में थालि रवि चंद’ कौमी गीत गाया गया था।
भारतीय चिंतन में भारत भू को माता कहा गया है। गुरु नानकदेव जी पूरी धरती को माता मानते हैं। वे संसार के देशों की सीमाएं, जातिवाद, अमीरी- गरीबी, राजा-प्रजा आदि के भेद तोड़कर भारतीय विरासत को उच्च स्तर तक पहुंचाते हैं, जो बाद में गुरु ग्रंथ साहिब की संपादना, हरिमंदिर साहिब के निर्माण, खालसा पंथ की सर्जना के समय पांच प्यारों के द्वारा प्रगट होती है। गुरु नानकदेव जी की आध्यात्मिक परंपरा में इस्लामी मत के बाबा फरीद और सनातनी धर्म के बंगाल के जयदेव विद्यमान हंै। उनकी आध्यात्मिक परंपरा में कुदरत की विविधता में एकता देखने, शरीर के अंगों की विविधता के बावजूद सम रहकर चलने, शरीर के पांच तत्व विरोधी प्रकृति के होते हुए भी शरीर में समाये रहने का सार है। भिन्न होते हुए भी ये तत्व भिन्न नहीं, अपितु एक दूसरे के सहायक हैं। उनका पावन वाक्य है:
तेरे नाम अनेका रूप अनंता
कहणु न जाही तेरे गुण केते।।
उस एक ब्रह्म रूप के अनेक दर्शन हैं। सांसारिक खेल-खेल कर फिर सब उसमें विलीन हो जाते हैं। राम, दामोदर, अल्लाह, सोह्म, सत्नाम, रहीम, गोपाल, वाहेगुरु आदि अनेक नाम हैं जो गुरमति की ओर से गुरु ग्रंथ साहिब में प्रगट हैं। मनुष्य जपु की शारीरिक क्रिया और फिर मानसिक क्रिया द्वारा श्रोता बनकर प्रभु के साथ अभेद यानी एक हो सकता है। पूजा पद्धतियां अलग-अलग हैं पर प्रभु एक हैं। जैसे सागर के वाष्पीकरण से हिम पर्वत बनता है, हिम पर्वत से नदियां पैदा होती हैं और फिर वे सागर में मिल जाती हैं, इसी तरह संसार में मनुष्य परमात्मा से पैदा होकर उसी में विलीन हो जाता है। यही संसार का चक्र है।
एक मुरति अनेक दरसन कीन रूप अनेक। खेल खेल अखेल खेलन अंत को फिरि एक।।
सिख पंथ के विद्वान डॉ. तारन सिंह ‘गुरु ग्रंथ साहिब का साहित्यिक इतिहास’ में लिखते हैं कि अगर किसी आदमी को भारतीय धर्म ग्रंथों, जो कि हमारा ही परंपरागत इतिहास है, का ज्ञान नहीं है तो वह श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी को भी नहीं समझ सकता। यह महान गुरु ग्रंथ साहिब पुरातन परंपरा को और आगे बढ़ाता है। यह अद्यतन तथा सर्वोत्तम ज्ञान है। भारतीय ब्रह्म विद्या की जानकारी ही किसी मनुष्य में श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की वाणी का बोध प्राप्त करने में सहायक हो सकती है।
(लेखक हरियाणा पंजाबी साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष हैं)
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