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जन्म-साखी साहित्य : साथ सदा मरदाना

by WEB DESK
Nov 19, 2021, 08:00 am IST
in भारत, दिल्ली
एक यात्रा के दौरान गुरु नानकदेव जी और उनके पीछे भाई मरदाना।

एक यात्रा के दौरान गुरु नानकदेव जी और उनके पीछे भाई मरदाना।

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गुरु नानकदेव जी के शिष्यों में मरदाना ऐसे थे, जिन्होंने अपना घर-परिवार सब छोड़ दिया था। नानक जी के रास्ते पर चलना ही उनके जीवन का उद्देश्य था। मरदाना के दुनिया छोड़ने के बाद उनके बेटे शहजाद गुरु जी के शिष्य बने। गुरु जी ने शहजाद को भी वही मान दिया, जो मरदाना को दिया था

 

  डॉ. हरपाल सिंह पन्नू

जन्म साखी का अर्थ जन्म के समय की कथा नहीं है। इनमें पूर्व जन्मों की बातें, देहांत के बाद की घटनाएं भी हैं। साखी शब्द संस्कृत के तत्सम साक्षी का तद्भव रूप है, जिसका अर्थ है गवाही, प्रत्यक्ष घटी घटना। विश्व की सभी पंथ परंपराओं में साखियां मौजूद हैं, जो गहरे अबूझ रहस्यों को समझने में सहायक होती हैं।
गुरु जी की महत्वपूर्ण साखियां चार हैं-
1.    विलायत वाली जन्म साखी जिसको पुरातन जन्म साखी भी कहते हैं।
2.    भाई मेहरबान जी वाली जन्म साखी।
3.    भाई बाला जी वाली जन्म साखी।
4.    भाई मनी सिंह जी वाली जन्म साखी।

पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला ने डॉ. किरपाल सिंह को चारों जन्म साखियां संपादित करने के लिए कहा और उन्होंने 1969 में काम पूरा करके प्रकाशित करवा दीं। जन्म साखी परंपरा में केवल गुरु नानकदेव जी का जीवन वृत्तांत नहीं रचा गया, उस समय की पांथिक परंपराओं का वर्णन, गुरमति दर्शन की झलक, सूफियों तथा वेदांतियों के संवाद तथा पंजाबी वार्तक का प्राचीन नमूना इनमें साकार हुआ है। चमत्कारों का प्रवाह जन्म साखियों में आकर रुक गया हो, ऐसी कोई बात नहीं है। हर सदी के धर्मशास्त्री प्राचीन साखी का विस्तार भी करते हैं और नए चमत्कार भी गढ़ते हैं। साखी शब्द का अर्थ कहानी नहीं है। उस घटना को साखी कहते हैं जो किसी के सामने घटी हो। हम सामान्यत: कहते हैं कि ईश्वर साखी (साक्षी) है। गुरु जी के जीवन और घटनाओं को जिन्होंने साक्षात् देखा, सिख साहित्य उनके बयानों को साखी मानता है।

पूरब की यात्रा पूर्ण करने के बाद सुल्तानपुर लोदी लौटते गुरु नानकदेव जी, साथ में भाई मरदाना

अब राय बुलार की साखी का पाठ करें। राय बुलार ने उन्हें बचपन में देखा तो उनमें दैवीय गुणों को देख लिया। एक किसान ने जब नानक के पशुओं द्वारा खेत को नुकसान पहुंचाने की शिकायत की तो देखने पर पाया कि खेत बिल्कुल ठीक थे। एक बार शिकार से वापसी के समय देखा कि जब वृक्षों की छाया समय अनुसार इधर खिसक गई तो नानक के सिर पर अभी भी छाया विराजमान थी। पशु चराते समय लापरवाही, व्यापार के 20 रुपए से साधुओं को लंगर छकाना आदि बातों से पिता मेहता कालू राम जब नानक को डांटते तो राय बुलार उन्हें समझाता कि इसे न डांटा करें। तू उसी दिन निहाल हो गया जिस दिन यह तेरे घर पैदा हुआ। राय बुलार ने ही बेबे नानकी का सुल्तानपुर लोधी के नवाब दौलत खां लोधी के राजस्व अधिकारी जयराम से रिश्ता करवाया और कहा कि वह नानक को भी अपने साथ ले जाए क्योंकि उनके पिता का व्यवहार उनके प्रति कड़वा है। नानक ने दौलत खां लोधी के मोतीखाने में नौकरी कर ली।

जयराम ने बटाला के एक अच्छे खानदान में नानक की शादी करवा दी। इतने दिन दूर रहने के बाद भी नानक अपने प्रिय भक्त राय बुलार को भूले नहीं, बल्कि समय-समय पर उन्हें याद करते रहे। यहां तक कि वे उदासी के दौरान वापसी पर अपने माता-पिता की बजाय राय बुलार से मिलने के लिए अधिक बेताब दिखते हैं। तलवंडी में वे अपने घर नहीं गए, बल्कि राय बुलार को मिलने गए। राय बुलार ने जब नानक को देखा तो उनसे खड़ा नहीं हुआ गया तो नानक उनके पास आए और घुटनों पर हाथ रखे। राय बुलार ने इस पर आपत्ति की तो नानक ने कहा कि आप मुझसे बड़े और हमारे शासक हैं। राय बुलार नानक से उन्हें बख्शने व करतार से बख्शवाने की प्रार्थना करते हैं।

मानसरोवर यात्रा के दौरान अन्य संत-महात्माओं के साथ गुरु नानकदेव जी

साखीकार वर्णन करता है कि एक बार कलियुग भयावह रूप लेकर नानक से मिलने आया और पूछा कि वह उनकी क्या खिदमत करे। बाबा नानक ने उसे कहा कि वह किसी को परेशान न करे। इस पर कलियुग ने कहा कि इस युग में जो आपकी बात मानेगा उसको कोई सेक नहीं लगेगा अर्थात् कोई परेशानी नहीं होगी। नमस्कार उपरांत कलियुग शांतचित्त हो वापस चला गया।

राय बुलार से संबंधित एक साखी मुझे (लेखक को) पाकिस्तान में ननकाना साहिब तीर्थाटन के समय वहां के स्थानीय मुसलमान ने सुनाई। मैंने जब उससे गुरु नानकदेव जी गुरुद्वारा साहिब के नाम जमीन के बारे पूछा तो उस मुसलमान ने एक वृत्तांत सुनाया कि यह गांव भट्टियों का है और राय बुलार भी भट्टी थे। बाबा जी के आशीर्वाद से उनके घर संतान की प्राप्ति हुई। राय बुलार ने अपनी आधी जमीन 700 मुरब्बे का पट्टा बाबा नानक के नाम कर दिया जो अभी तक चला आ रहा है। गांव के लोग इस जमीन पर खेती तो करते हैं परंतु उनके नाम पट्टा नहीं हो पाया। इसके लिए उन्होंने पाकिस्तान की अदालतों के दरवाजे खटखटाए परंतु सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने उन्हें निजी तौर पर रोका कि वे नानक की जमीन का पट्टा अपने नाम न करवाएं। न्यायाधीश के कहने पर गांव वालों ने अपना केस वापस ले लिया।

इसी तरह लेखक बताते हैं कि ननकाना साहिब में जब वे मोची की दुकान पर जूते खरीदने गए तो उससे बातचीत के दौरान पता चला कि यहां पर दुनियाभर के सिख आते हैं। कई विदेशी सिख तो अपने जहाज से भी आते हैं और ननकाना साहिब में आने के बाद पैरों में जूते नहीं डालते, उनका विश्वास है कि जिस जमीन पर गुरु नानकदेव जी चले उसको अपने जूतों से किस प्रकार रौंदे। इन घटनाओं पर अगर कोई पुराना साखीकार बैठा होता तो वह लिखता कि राय बुलार की साखी संपूर्ण हुई।

भाई गुरदास जी लिखते हैं कि बाबे ने धरती को सुधारने के लिए जन्म लिया। उनकी इच्छा थी कि धरती को समतल व सुंदर बनाया जाए। इस काम के लिए उन्होंने हल व सुहागे (जमीन को समतल करने का यंत्र) की जगह बानी व रबाब का प्रयोग किया। नानक जब भक्ति में लीन हो जाते तो भाई मरदाना उनकी देखरेख करते, उनके पास किसी को आने न देते। भजन-कीर्तन के समय इतने करीब होते कि बैठते समय घुटने से घुटना भिड़ता। विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ के दौरान जब ज्ञान की गंगा बहती तो बाबा जी कहते मरदाना रबाब उठा, धुर की बाणी आई है। कीर्तन की बारिश होती तो अज्ञान का गर्द-गुबार धुल जाता। नानक के इस स्वरूप को देख हिंदू उन्हें संपूर्ण अवतार कहते, तो मुसलमान नानक शाह फकीर।

मरदाना नानक के इतने करीब थे कि बेबे नानकी को कोई बात समझानी होती तो वह मरदाना को ही उनके पास भेजतीं। नानक चाहे किसी की न मानते परंतु इतना संतोष हो जाता कि कम से कम मरदाना की बात सुन तो लेते। सुल्तानपुर रहते हुए जब मरदाना उनसे माता-पिता से मिलने का संदेश लेकर आए तो नानक ने उनसे कहा कि अपना परिवार बहुत बड़ा है। दूर-दूर रह रहे परिवार के सदस्यों को मिलने जाना है, आप मेरे साथ चलो। इस पर मरदाना पूछते हैं कि वहां खाएंगे क्या और खर्चेंगे क्या?

नानक ने कहा कि जो आपके पास है वह किसी के पास नहीं, आपसे तो अनेक लोगों को रिजक मिलेगा। एक बार नानक मरदाना से रबाब खरीद कर लाने को कहते हैं। न चाहते हुए भी इसके लिए बेबे नानकी से धन लेते हैं और आशकपुर गांव में भाई फिरंदा (भाई फेरू) नामक अपने मुरीद के पास रबाब खरीदने को भेजते हैं। भाई फेरू मरदाना को उसकी पसंद की रबाब को हाथ नहीं लगाने देते और जब मरदाना नानक का नाम लेते हैं तो भाई फेरू तुरंत तैयार हो जाते हैं। इसके बाद दोनों गुरुजी के पास पहुंचते हैं और रबाब की छत्रछाया में खूब अध्यात्म की गंगा
बहती है।

 नानक मरदाना के साथ उदासी (यात्रा) पर निकल पड़ते हैं। मार्ग में कई बार भूख-प्यास, थकान से मरदाना का बुरा हाल हुआ। एक बार गुरु नानक जी मरदाना को गांव से खाना लाकर खिलाते हैं जिसको खाकर मरदाना को आत्मिक तृप्ति का एहसास होता है। हर सिख के मन में नानक की अकेले की तस्वीर नहीं आती, उनके साथ रबाब उठाए मरदाना व भाई बाला जी अवश्य दिखाई देते हैं। चलते-चलते वे सौराष्ट्र पहुंचते हैं, जहां मरदाना कहते हैं कि यहां न तो लोगों को उनकी भाषा और न उनको यहां की भाषा समझ आती है। इस पर नानक कहते हैं कि वह सौरठ राग छेड़, जो इस प्रदेश का राग है। इनकी इसी बोली में ही इनके साथ बात करें। यात्रा करते हुए नानक व मरदाना अफगानिस्तान के कुर्रम दरिया के किनारे आ गए।

मरदाना अत्यंत वृद्ध हो गए और इस लोक को छोड़कर जाने लगे तो गुरु जी ने उनका सिर अपनी गोदी में रख कर पूछा कि उन्हें दफनाया जाए या जलाया जाए? यादगार के लिए मस्जिद बनाई जाए या धर्मशाला। इस पर मरदाना कहते हैं, ‘‘बाबा आप मुझे हाड़-मांस की कैद से मुक्त करवा कर र्इंट-गारे की कैद में क्यों डालना चाहते हैं? मैं जानता हूं कि आप ऐसा नहीं करेंगे।’’ नानक कहते हैं कि वह उन्हें खाली हाथ नहीं जाने देंगे, क्योंकि उन्होंने उनके साथ अंत तक निभाई।

मरदाना कहते हैं, ‘‘तैं खुदा देखा, मैंने तुझे देखा। तैं खुदा पाया। तेरा कहा खुदाई मानती है। मैंने तुझे देखा, तुझे पाया और मेरा कहा तू मानता है। आगे प्रार्थना है मुझे अपने से अलग नहीं करना, न तो इस लोक में और न ही परलोक में।’’ गुरु जी ने अपने कंधे से चादर उतार कर मरदाना पर डाली। यह मरदाना की वसीयत है और साखीकार इस वसीयत का गवाह है। यात्रा बीच में छोड़ नानक अपने गांव तलवंडी आ गए। गांव वालों को पता चला तो वे उनसे मिलने आए। मरदाना का बड़ा बेटा शहजाद नानक के पास आया और चरण स्पर्श कर अपने पिता के बारे में पूछा। उसने शिकायत की कि उनके पिता ने उनके लिए कुछ नहीं किया। वह पिता के प्यार को तरसते रहे, अपनी जरूरतों के लिए लोगों का मुंह तकते रहे और अब्बू दुनिया की सैर करते रहे। उन्होंने हमें क्यों पैदा किया, दुनिया में भटकने के लिए?

गुरु जी जवाब देते हैं कि मरदाना इस दुनिया से विदा हो गए। शहजाद कहता है कि हम निरक्षर हैं, नहीं जानते कि बड़ों से क्या और कैसे मांगा जाता है? गुरु जी बोले आपके पिता को खाली हाथ नहीं भेजा और न ही आपको खाली हाथ मोड़ूंगा। मांगो जो मांगना है। शहजाद बोला जो आपने पिता को दिया, वही मुझे भी दे दीजिए। इस पर गुरुजी उठे और खूंटी पर लटकती रबाब उतारी और शहजाद को गले लगाकर आशीर्वादों की झड़ी लगा दी। दोनों बैठ गए कीर्तन करने, उनकी भजन गंगा में तलवंडी के निवासियों ने खूब स्नान किया। जब तक गुरुजी जीवित रहे, शहजाद ने कभी उनका साथ न छोड़ा। साखीकार सम्मान से शहजाद को कर्म का बली शहजाद, हमारा प्यारा शहजाद, भाई शहजाद खान लिखता है। भाई मरदाना की प्रार्थना भी स्वीकार हुई, बिछड़े नहीं। कीर्तन बन कर गुरु ग्रंथ और गुरु पंथ में स्थापित हो गए।

(लेखक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा में श्री गुरु गोबिंद सिंह पीठ के अध्यक्ष हैं)

 

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