रवि पाराशर
शहीद ऊधम सिंह पर बनी फिल्म को लेकर देश में उनके अप्रतिम शौर्य के जज्बे की चर्चा हो रही है, ठीक उसी समय ‘धर्म की रक्षा’ के नाम पर कुछ निहंगों ने पंजाब निवासी अनुसूचित जाति के एक युवक की बेरहमी से हत्या कर कुछ और ही संदेश देने का प्रयास किया है। ऊधम सिंह ने 1919 में बैसाखी के दिन जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा किए गए नरसंहार का बदला पूरे 21 साल बाद लिया था। इतने वर्षों तक उनके दिल में अन्याय का बदला लेने की आग जलती रही। 13 मार्च, 1940 को लंदन के कॉक्स्टन हॉल में उन्होंने माइकल ओ डायर को गोलियों से भून दिया। जलियांवाला बाग नरसंहार के समय डायर पंजाब सूबे का गवर्नर था। दिल्ली में कथित किसान आंदोलनकारियों के एक अड्डे सिंघु बॉर्डर पर पंजाब के तरनतारन जिÞले के चीमा खुर्द गांव के निवासी लखबीर सिंह की हत्या जिस नृशंसता से कर दी गई, उसकी कल्पना मात्र से मानवता सिहर उठती है। उस पर आरोप लगाया गया कि उसने पवित्र ग्रंथ का अपमान किया। यातना के क्रम में उसके एक हाथ और एक पैर को काट डाला गया। और तब तक बुरी तरह मारा-पीटा गया, जब तक उसकी जान नहीं निकल गई। वह दया की भीख मांगता रहा, लेकिन हत्यारों पर कोई असर नहीं पड़ा। 14 अक्तूबर की रात हुई इस हत्या से किसान आंदोलन के नेताओं ने तत्काल पल्ला झाड़ लिया।
पुलिस तंत्र की विफलता
हालांकि जो तस्वीरें सामने आई हैं, उनसे साफ है कि अगर भीड़ चाहती, तो लखबीर की जान बचाई जा सकती थी। तस्वीरों में दिख रहा है कि इस हत्याकांड को पूरे इत्मीनान से अंजाम दिया गया। हत्यारों को कोई जल्दी नहीं थी। ऐसे में प्रश्न यह भी है कि इतने समय बाद भी पुलिस कहां थी? डर के कारण हथियारबंद हत्यारों का सीधा प्रतिरोध करना बहुत बार मुमकिन नहीं हो पाता, लेकिन क्या किसी को इतनी भी दया नहीं आई कि कम से कम पुलिस को ही सूचित कर देता? 15 अक्तूबर की सुबह जब लखबीर का शव पुलिस बैरीकेड से लटका पाया गया, तब पुलिस को वारदात की जानकारी हुई। बाद में यह भी पता चला कि पूरी वारदात को सोशल मीडिया पर दिखाया गया था। लेकिन कुल मिलाकर अनुसूचित जाति के एक निरीह युवक को बचाया नहीं जा सका।पुलिस तंत्र की विफलता इस बात से ही सिद्ध हो जाती है कि वारदात का पता चलने के बाद अज्ञात लोगों के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की गई। हालांकि बाद में कुछ आरोपितों ने आत्मसमर्पण कर दिया। चिंताजनक बात यह है कि आरोपितों ने माना कि उन्होंने अपने पवित्र ग्रंथ के अपमान के कारण लखबीर की जान ली और आगे भी यदि कोई ऐसा करेगा, तो वे उसके साथ भी ऐसा ही करेंगे। किसी भी पंथ का कोई भी पवित्र ग्रंथ मानवता की अमूल्य धरोहर है, लेकिन उसके अपमान का पैमाना क्या हो सकता है? क्या उसे छू भर लेना इतना बड़ा अपराध हो सकता है कि ऐसा करने वाले को तड़पा-तड़पा कर मार दिया जाए? किसी पंथ के पवित्र ग्रंथ को छूने मात्र से उस पंथ के अनुयायियों की भावनाओं को चोट पहुंचने की बात समझ में आती है, लेकिन क्या इस ‘अपराध’ लिए मौत की सजा दी जा सकती है?
लोकतंत्र की मूल भावना की हत्या
दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में किसी भी स्तर की सजा बिना न्यायालय के हस्तक्षेप के मात्र सामाजिक आधार पर दी जा सकती है? शरिया लागू करने वाले या दूसरी संवैधानिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत बहुत से मजहब आधारित न्यायिक प्रणाली अपनाने वाले देशों में ईश निंदा के लिए मृत्युदंड का प्रावधान है। लेकिन वहां भी अदालती प्रक्रिया से ही दंड निर्धारित किया जाता है, सामाजिक स्तर पर नहीं। यह भी सही है कि अभी तक मानवाधिकारों की कठोरतम वकालत करने वाले सभ्य विश्व के किसी कोने से ऐसी सजाओं के विरुद्ध कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ी है। आगे भी सुनाई पड़ेगी, इसमें संदेह है। अंतिम सत्य यही है कि सभी पंथों-मजहबों का समान रूप से आदर करने वाले लोकतांत्रिक भारत में पावन पंथिक चिन्हों के अपमान पर मृत्युदंड का प्रावधान नहीं है। ऐसे में कोई पंथिक समूह यदि पंथ की रक्षा के नाम पर किसी की हत्या करता है, तो सनातन संस्कृति के भारतीय विचार को बड़ी ठेस लगती है। इसलिए दिल्ली के सिंघु बार्डर पर बर्बरता की जो मिसाल पेश की गई है, वह निंदनीय है। लखबीर की हत्या की तुलना जिहादी हिंसा से की जा सकती है, यह निष्कर्ष निकाला जाए, तो अनुचित नहीं होगा।
किसान मोर्चा भी उत्तरदायी
जिस तरह से किसान आंदोलन के नेतृत्व ने अपने जबरन कब्जाए आंगन में घटित इस जघन्यतम रक्तरंजित अपराध से किनारा किया है, उस पर भी सवाल उठते हैं। संयुक्त किसान मोर्चा ने मृतक और निहंगों, दोनों से पल्ला झाड़ लिया है। ऐसे में प्रश्न यह है कि हत्यारोपी निहंग सिंघु बार्डर पर इतने समय से कर क्या रहे हैं? क्यों किसान आंदोलन के तंबुओं के बीच उनके तंबू लगे हुए हैं? हालांकि यह मसला इस लेख की परिधि में विचारणीय प्रश्नों में मुख्य रूप से सम्मिलित नहीं है, लेकिन प्रसंगवश इस पर भी दृष्टि डाल लेना अनुचित नहीं होगा। कथित किसान आंदोलन के जमावड़े में हिंसा की यह पहली घटना नहीं है। इसलिए संयुक्त किसान मोर्चा इसके लिए बिल्कुल भी उत्तरदायी नहीं है, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता।
पंजाब में कन्वर्ज़न चरम पर
दिल्ली के सिंघु बार्डर पर चंद निहंगों ने धर्म की रक्षा के नाम पर जो अधर्म किया, वह ऐसे समय में किया गया जघन्यतम बर्ताव है, जब पंजाब में कन्वर्ज़न की स्थितियां चरम पर हैं। 18 अक्तूबर को विश्व हिंदू परिषद के केंद्रीय संयुक्त महामंत्री डॉ. सुरेंद्र जैन ने चंडीगढ़ में बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि चर्च द्वारा किया जा रहा कन्वर्ज़न संपूर्ण पंजाब की पावन धरती के लिए अभिशाप है। इसका मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि विहिप इस नापाक षड्यंत्र को पूर्ण रूप से समाप्त कर पंजाब को कन्वर्ज़न मुक्त प्रदेश बनाने का संकल्प लेती है। विहिप ने यह निर्णय भी लिया है कि वह चर्च द्वारा पंजाब में किए जा रहे अवैध कन्वर्ज़न के विरोध में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की अध्यक्ष बीबी जागीर कौर और अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह के अभियान में कंधे से कंधा मिलाकर साथ देगी। विहिप ने पंजाब सरकार से अपील की कि पंजाबी समाज की भावनाओं तथा गुरुओं की परंपराओं का सम्मान करते हुए कन्वर्ज़न विरोधी कानून बनाया जाए।
सर्बलोह ग्रंथ क्या है?
शाब्दिक रूप से सर्बलोह ग्रंथ का अर्थ है- सर्वव्यापी धर्मग्रंथ। लेकिन श्री गुरु ग्रंथ साहिब के विपरीत, सर्बलोह ग्रंथ, कुछ हिस्सों को छोड़कर, मुख्यधारा के सिख समुदाय द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है। हालांकि निहंग इसे उच्च सम्मान देते हैं। माना जाता है कि सर्बलोह पाठ 18वीं शताब्दी की शुरुआत में लिखा गया था, जिसकी शुरुआत देवी भवानी और देवी लक्ष्मी के संबोधन में लिखी गई पंक्तियों के साथ होती है।
निहंगों का मानना है कि इसे गुरु गोबिंद सिंह ने लिखा है। लेकिन सिख विद्वान और इतिहासकार इस बात से असहमत हैं। इसके लेखन पर विवाद जारी है।
सिंघु बॉर्डर पर लखबीर की हत्या पंजाब के धर्म के इतिहास पर भी दाग लगाती है। जबरन कन्वर्ज़न वाले मुगलिया दौर में पंजाब में धर्म की रक्षा के लिए सिख गुरुओं ने जान की बाजी लगा दी थी। पूज्य गुरुओं ने धर्म की रक्षा के लिए सर्वोच्च बलिदान की परंपरा स्थापित की। गुरु पुत्रों ने इस्लाम को नहीं अपनाया, हंसते-हंसते जान दे दी। बालक हकीकत राय का बलिदान देश भूला नहीं है। ऐसे में धर्म की रक्षा के नाम पर बर्बरतापूर्वक किसी निरीह व्यक्ति की जान ले लेना किसी भी स्तर पर सही नहीं ठहराया जा सकता। सिखों और हिंदुओं के धर्म ग्रंथों में संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए अनमोल संदेश हैं, जिन्हें पूरी दुनिया स्वीकारती है। लखबीर ने यदि पवित्र ग्रंथ को छू भी लिया था, तो वह उस स्तर का अपमान नहीं था, जिस स्तर का अपमान कन्वर्ज़न माफिया कर रहा है। यह माफिया बाइबिल को हमारे पवित्र ग्रंथों से ‘महान’ बता कर सिखों और हिंदुओं के धर्म ग्रंथों के अपमान का महापाप कर रहा है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि सिख और हिंदू समाज अवैध कन्वर्ज़न के प्रयासों का विरोध करें। लखबीर जैसे व्यक्तियों का खून बहाने से धर्म की रक्षा नहीं होगी। धर्म की रक्षा तो कन्वर्ज़न का कुचक्र तोड़ने से ही होगी।
अनुसूचित जाति पर हिंसा को लेकर दोहरा रवैया
अंत में प्रसंगवश एक और मुद्दे पर चर्चा करते चलें। बढ़ती राजनैतिक कटुता के बीच स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद जहां देश के संघीय ढांचे पर प्रहार बढ़ने लगे हैं, वहीं कमजोर वर्गों की सुरक्षा को लेकर भी विपक्षी पार्टियां दोहरा रवैया अपनाने लगी हैं। भारतीय जनता पार्टी शासित प्रदेशों में यदि अनुसूचित जाति पर अत्याचार का कोई मामला होता है, तो विपक्ष सत्ता पक्ष पर पूरी तरह हमलावर हो जाता है। लेकिन जब विपक्ष शासित राज्यों में ऐसा कोई मामला सामने आता है, तब वह बिल्कुल भी हल्ला नहीं करता। उत्तर प्रदेश के हाथरस में विपक्ष के नेता उमड़ पड़ते हैं, लेकिन राजस्थान के अलवर को लेकर उनके मुंह से एक बोल भी नहीं फूटता। ऐसा ही रवैया महिलाओं पर अत्याचार और मानवाधिकारों के उल्लंघन के किसी भी मामले में देखने में आता है। क्या इसे न्यायपूर्ण कहा जा सकता है? उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी की घटना पर राजनीति गर्म है, लेकिन दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर हुई लखबीर की हत्या पर कोई राजनैतिक शोर-शराबा नहीं है। आम आदमी पार्टी मौन है। कांग्रेस भी मौन है। क्या यह उचित राजनैतिक बर्ताव है? क्या किसी भी तरह चुनाव जीतना ही अंतिम लक्ष्य है? इन प्रश्नों के उत्तर तलाशना कठिन नहीं है। लेकिन ऐसा कब होगा?
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