हितेश शंकर
लखीमपुर खीरी की घटना से मन व्यथित है। एक जान भी जाती है तो दुख होता है, यहां तो कई जानें गई हैं। उसपर ज्यादा दुखदायी यह है कि हिंसा और उपद्रव का सहारा लेने वाले लोग संविधान और कानून-व्यवस्था की दुहाई देते दिख रहे हैं। वह तो भला हो कि सरकार सतर्क और संवेदनशील है। चटपट स्थिति संभालने के लिए प्रशासन तत्परता से जुट गया वरना चिनगारी पर पेट्रोल डालकर आग भड़काने को किसानों के वेश में उपद्रवी तैयार बैठे थे। इसे बढ़ावा देने के लिए वह शिकारी भी घात में थे जिनकी राजनीति को जनाधार छीजने के बाद वैमनस्य और हिंसा का खून मुंह लग चुका है।
सुलगते सवाल
परंतु लखीमपुर का दुखद प्रकरण अपने पीछे कुछ सवाल छोड़ गया है।
लखीमपुर हिंसा के संदर्भ में एक समाचार एजेंसी द्वारा जारी एक तस्वीर में नीली पगड़ी पहने एक व्यक्ति है जिसकी टीशर्ट पर खालिस्तानी अलगाववादी भिंडरावाले की तस्वीर छपी है। खबर यह भी है कि प्रदर्शनकारी खालिस्तान के पक्ष में नारे लगा रहे थे। सूत्रों के अनुसार उस दिन उपद्रव के लिए उत्तर प्रदेश के तराई इलाके से बसों में भरकर लोग बुलाए गए थे। यह वही तराई क्षेत्र है जो अस्सी के दशक में खालिस्तानी अलगाववादी आंदोलन के समय काफी अशांत था। प्रश्न यह है कि यह प्रदर्शन किसानों का था या खालिस्तान समर्थकों का?
हिंसा से दो-तीन पहले ‘ललकार किसान’ नाम से एक व्हाट्सऐप ग्रुप बना था जिसमें केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र और उनके पुत्र आशीष की तस्वीरें और वीडियो वायरल किए गए थे कि सभी प्रदर्शनकारी इन दोनों को पहचान लें। इन तस्वीरों को वायरल करने के पीछे मंशा क्या थी? इस समूह के एडमिन के बारे में पुलिस पता कर रही है।
जिस गाड़ी से लोग कुचले गए, वह गाड़ी जिसकी थी, वह गाड़ी में मौजूद था या नहीं। प्रश्न यह भी है कि हिंसा की घटना के समय मौके पर अनुपस्थित केंद्रीय राज्यमंत्री का नाम इसमें क्यों घसीटा जा रहा है?
जिस गाड़ी से लोग कुचले गए हैं, उस गाड़ी के शीशे टूटे हुए हैं। अगर उस गाड़ी पर हमला हुआ है तो हमले की नीयत क्या थी? सैकड़ों उग्र हमलावरों की चपेट में आई गाड़ी कितना संतुलन रख सकती है? हर एक जान बराबर कीमती है किंतु न्यायपूर्ण दृष्टि का यह सहज तकाजा है कि यह प्रश्न बार-बार पूछा जाए कि वीडियो में -पहले हमले का शिकार होती दिखी और बाद में लोगों को रौंदती, बेकाबू दिखती गाड़ी किस मंशा से भागी थी?
न्याय आरोपी को सन्देह का लाभ देता है किंतु जान की भीख मांगते ड्राइवर की हत्या में दिखती नृशंसता पर क्या किसी को रत्ती भर भी सन्देह है? यह खून किसके माथे लिखा जाएगा!
ये और बहुत से ऐसे ही सवाल हैं जो अभी कोई सुनना नहीं चाहता। मगर न्यायिक प्रक्रिया का तकाजा है कि इन सब बिन्दुओं पर जांच हो और भारत के संविधान के अनुसार कार्रवाई हो। यह जरूरी है कि राजनीतिक रोटियां सेंकने की ताक में बैठे लोगों को इससे दूर रखा जाए। यह किसान प्रदर्शन और उसके दौरान हुई हिंसा का एकांगी मुद्दा नहीं है। यह देश के सबसे बड़े, शांत प्रदेश, जो आगामी समय में चुनाव में जाने वाला है, में अशांति और अस्थिरता फैलाने का प्रयास है।
किसान आंदोलन की असलियत
दूसरी बात, राकेश टिकैत के बयान को भी पूरी गंभीरता से लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि जिन्होंने ड्राइवर की जान ली, वे किसान नहीं, जल्लाद हैं। अब पूरी बात साफ होनी चाहिए। जल्लाद कौन-कौन हैं, उपद्र्रवी कौन-कौन हैं, हत्यारे कौन-कौन हैं और उनका साथ देने वाले कौन-कौन हैं, उन्हें ये सारी बातें बतानी पड़ेंगी। जब परतें खुलेंगी तो बात सिर्फ लखीमपुर तक सीमित नहीं रहेगी। इसके साथ लालकिले की भी बात होगी। क्योंकि जहां उपद्र्रव है, वहां उपद्रवी, किसान के लबादे में नजर आते हैं। राष्ट्रीय ध्वज का अपमान हो… लाल किले पर उपद्रव हो… आईटीओ पर पुलिस पर हमला हो… टीकरी बॉर्डर पर महिलाओं से दुष्कर्म हो.. सभी किसान के वेश में नजर आ रहे हैं और इस देश के किसानों को लांछित करने का काम कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह इक्का-दुक्का लोग कह रहे हैं। कुछ लोगों ने पहले ही इनकी मंशा भांप ली थी। शुरू में इनके पक्ष में खड़े मीडिया ने बाद में इनके तेवर देखे, मीडिया से बदसलूकी देखी, महिला पत्रकारों से दुर्व्यवहार देखा, हमले देखे, पत्रकारों को मारने की धमकियां भी देखीं। तब मीडिया के सामने भी इनकी असलियत खुल गई कि किसानों के वेश में यहां कौन-कौन आ बैठा है। इन्हें सबसे नजदीक से तो उन लोगों ने देखा जो उन क्षेत्रों में रहते थे जहां दिल्ली की घेरेबंदी के लिए इनका जमावड़ा तैयार हो रहा है। और जहां स्थानीय कॉलोनियों की महिला-बच्चियों को इन कथित किसानों की फब्तियों, अश्लीलता से परेशान होकर अपने रास्ते बदलने पड़े।
सर्वोच्च न्यायालय की कड़ी टिप्पणियां
अब तो सर्वोच्च न्यायालय ने भी इनको देख लिया। सर्वोच्च न्यायालय की प्रत्येक टिप्पणी गौर करने लायक है…
'हमने तीनों कृषि कानूनों के लागू होने पर रोक लगा रखी है। कुछ भी लागू नहीं है। तो किसान किस बारे में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं? अदालत के अलावा और कोई भी कानूनों की वैधता तय नहीं कर सकता। जब किसान अदालत में कानूनों को चुनौती दे रहे हैं तो सड़क पर प्रदर्शन क्यों?'
'जब आंदोलन के दौरान कोई हिंसा होती है, सार्वजनिक संपत्ति नष्ट होती है तो कोई जिम्मेदारी नहीं लेता। जान और माल की हानि होती है तो कोई जिम्मेदारी नहीं लेता।
'आपने राजधानी का दम घोंट दिया है और अब आप शहर के भीतर आना चाहते हैं। आस-पास रहने वाले क्या प्रदर्शन से खुश हैं? यह सब रुकना चाहिए। आप सुरक्षा और रक्षा कर्मियों को रोक रहे हैं। यह मीडिया में है। यह सबकुछ रुकना चाहिए। एक बार जब आप कानूनों को चुनौती देने के लिए कोर्ट आ चुके हैं तो प्रदर्शन की कोई तुक नहीं है।'
न्यायालय ने जिस तरीके से इनका संज्ञान लिया है, उससे यह साफ है कि इनकी कलई खुल चुकी है। इन लोगों ने पिछले छह महीने में जो किया है, उससे देश को तो पीड़ा हुई है, किसानों को भी इन्होंने अपमानित किया है।
महिलाओं पर आफत
इसके साथ ही अगर सोनीपत जैसे इलाके में जाएं तो वहां महिलाओं ने आने-जाने का अपना रास्ता बदल दिया क्योंकि खुद को किसान कहने वाले यहां बलात्कार जैसी घटनाओं को अंजाम दे चुके हैं, इनके इशारे पर न चलने पर एक किसान को जिंदा जलाकर मारने तक की कोशिश की गई। वहां की महिलाएं अपनी व्यथा बताती हैं कि कैसे बदतमीजियां हो रही हैं, आने-जाने पर फब्तियां कसी जाती हैं, इससे उनके लिए अपनी सोसाइटी में आना-जाना मुश्किल होता जा रहा है। अच्छे उपचार की आशा में दिल्ली आने वाली एंबुलेंस को इनकी वजह से बहुत ज्यादा घूमकर जाना पड़ता है और इनकी आफत की वजह से न जाने कितनी जानें गई होंगी, उसका कोई आंकड़ा नहीं है। काम के सिलसिले में रोज दिल्ली आने-जाने वाले लोगों को प्रतिदिन अगर 10-15 किलोमीटर घूमकर जाना पड़ रहा है तो उपद्र्रवियों के कारण लोगों का कितना समय करदाताओं की गाढ़ी कमाई का कितना पैसा अतिरिक्त खर्च हो चुका होगा, यह प्रदर्शनकारियों से हिसाब मांगने, आयोजकों पर जुमार्ना ठोकने लायक मुद्दा है।
किसानी के विरुद्ध ये बहुरुपिये
लखीमपुर में कैमरे की पकड़ में आने वाले को तो जल्लाद कहा। मगर सवाल यही है कि क्या इन 'प्रदर्शनकारियों' को किसान कहना ठीक है? यदि ये किसान हैं तो देश में खेतों में कौन है? ध्यान दीजिए एक ओर पांच सितारा प्रदर्शनकारी बिचौलियों के हक में अड़े हैं, दूसरी ओर खेती-किसानी में लगे वास्तविक किसान की स्थितियां सुधरी हैं। मार्केटिंग ईयर 2020-21 (अक्टूबर-सितंबर) में रिकॉर्ड 879.01 लाख टन धान की 1,65,956.90 करोड़ रुपये के एमएसपी मूल्य पर खरीद की गई, जबकि मार्केटिंग ईयर 2020-21 (अप्रैल-मार्च) में रिकॉर्ड 389.93 लाख टन गेहूं की 75 हजार करोड़ रुपये के एमएसपी मूल्य पर खरीद की गई है। पिछले 5 वर्ष में किसानों के हित में हो रहे कामों से उन्हें मिल रहे फायदे से उलट बिचौलियों के लोग आकर आंदोलन कर रहे हैं, यह बात अब लोग खुलकर कहने लगे हैं। सरकार ने एमएसपी पर गेहूं की रिकॉर्ड खरीद की है। इससे किसानों को 85,500 करोड़ रुपये मिले। इसी तरह कपास और गन्ने की स्थिति है।
एक तरफ यह सारे काम हो रहे हैं और दूसरी तरफ, किसान नेता कह रहे हैं कि एमएसपी की गारंटी चाहिए और किसानों को समझा रहे हैं कि कंपनियां आएंगी तो किसान की जमीन पर कब्जा कर लेंगी। ध्यान दीजिए इन्हीं राकेश टिकैत के बड़े भाई, एक स्टिंग आॅपरेशन में न केवल किसी विदेशी कंपनी के लिए जमीन की व्यवस्था कराने को राजी दिखे बल्कि उन्होंने कम्पनी के एजेंट बने व्यक्ति को यह भी भरोसा दिलाया कि एमएसपी से नीचे गन्ना मिलने की व्यवस्था हो जाएगी।
प्रश्न है कि ये लोग कौन हैं? वास्तव में इनका मुद्दा क्या है? मंशा क्या है? देश का किसान और देश की सरकार एक पारदर्शी व्यवस्था के साथ किसानी-खेती को सही दिशा में ले जाना चाहती है। मगर खेती-किसानी को बेपटरी करके, देश की राजधानी की घेराबंदी करके, जिन राज्यों में चुनाव है, वहां उपद्र्रव उत्पन्न करके ये लोग निश्चित ही ऐसी शक्तियों के हाथ मजबूत करना चाहते हैं जिन्हें मजबूत होता भारत नहीं सुहाता… जिन्हें पारदर्शिता नहीं सुहाती… जिन्हें देश का किसान समृद्ध होता हुआ नहीं सुहाता।
पेट में दर्द इस वजह से भी है कि किसानों से सस्ता खरीदने और आगे महंगा बेचने का खेल खत्म होने लगा है।
अब फसल खरीद के समय भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) किसानों के साथ उनका डिजिटल भूमि रिकॉर्ड भी ले रहा है, साझा कर रहा है।
बहरहाल, फर्जी किसान और फर्जी कॉमरेड की कहानी पूरे देश में चल रही है। फर्जी किसान ये हैं जो लखीमपुर में ड्राइवर की हत्या करते हुए दिखाई देते हैं। फर्जी कॉमरेड वह हैं जो कम्युनिस्ट नाव से कूद कर कांग्रेस पर बैठ गए। जिसे कल तक वे परिवारवाद और पूंजीवाद का अड्डा बताते थे, उसी से गलबहियां करने लगे। दोनों की हालत यह है कि एक को खेती-किसानी से कुछ मतलब नहीं दूसरे को विचार से ज्यादा पूंजी और प्रचार भाता है। दोनों बे-पैंदी के लोटे की तरह लुढ़कते हैं इसीलिए इन्हें कोई नहीं पूछता। उत्तर प्रदेश में जो पंचायत चुनाव हुए, उसमें कथित किसानों के घर में इनकी क्या स्थिति है, पता चल गया। कॉमरेड की भी कहानी यही है। वह राष्ट्रीय स्तर के नेता बने हैं मगर अपने गांव के बूथ पर उन्हें कोई वोट नहीं देता। ध्यान दीजिए, ऐसे बहुरूपियों की कहानी देश में चल रही है जिनका आधार कुछ नहीं है मगर वे उपद्रव की क्षमता बहुत है। इन बहुरूपियों से सावधान रहने की जरूरत है।
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