खेतों को पानी पिलाती ‘खेत तलाई’ और जवाबदेही

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 डॉ. क्षिप्रा माथुर

राजस्थान में जहां पीने के पानी की कमी है, वहां किसानों के लिए खेत को पानी पिलाना तो पहाड़ तोड़ने के बराबर है। पर अब वहां खेत तलाई की योजना से किसानों को राहत मिली है। इस योजना में खेत में ही तलाई बनाने के लिए सरकार मदद करती है परंतु उसके लक्ष्य के मुकाबले जरूरतमंदों की संख्या ज्यादा है। इसलिए सरकार को अपने लक्ष्यों को विस्तृत करना होगा। अनुदान देने में रिश्वतखोरी पर भी लगाम की जरूरत

 

देश में जो राज्य सूखे की चपेट में आते हैं, वही बाढ़ की गिरफ्त में भी रहते हैं। यह विरोधाभास इसलिए है क्योंकि हमने जल प्रबन्धन के काम को सरकारी फाइलों में ही उलझा कर रखा है और सरकारी योजनाओं को घूसखोरों से बचाने में अब तक नाकामयाब रहे हैं। इस बार हुई बारिश में भी हर बार ही तरह देश के कई इलाके डूब में रहे तो कुछ पानी की बाट ही जोहते रहे। डूबने वाले इलाकों की त्रासदी है कि पानी की आवक तो खूब है लेकिन पानी के ठहराव का इन्तजाम नहीं होने से वह जनजीवन को खूब नुकसान पहुंचा लौटता है। और, यही इलाके फिर गर्मियों में पानी के लिए तरसते हैं। देश के सबसे गर्म और मौसम के थपेड़े सहने वाले राज्य राजस्थान के 727 बांधों में से करीब ढाई सौ बांध तो खाली ही हो गए हैं। राजधानी का रामगढ़ बांध कब का सूख चुका है और जयपुर सहित कई और जिलों की आबादी के लिए पानी की भारी किल्लत होने का अंदेशा है। ऐेसे में किसानों की फिक्र में उनके खेत और फसलें तो हैं ही, जिन्हें वक्त से पानी पिलाना उतना ही जरूरी है जितना हमारे सूखे गलों को तर करना। फसलों का झुलसना या डूबना, किसानों के जीवन-मरण का सवाल बना ही रहता है। इसीलिए सरकारें और संस्थाएं समेकित खेती पर काम करने पर जोर दे रही हैं जिसके अनेक मॉडल देश भर में मौजूद हैं। वैकल्पिक खेती सहित पशुपालन और स्थानीय तौर पर मुहैया अवसरों को उद्यमिता के साथ जोड़कर जो काम हो रहे हैं, उनमें पानी तो केन्द्र में रहेगा ही, उसका प्रबन्धन भी बेहद जरूरी मसला है जिसके बगैर न किसान खुशहाल होंगे और न ही जलवायु बदलाव के कारण उपजे संकटों से मुकाबला करने में हम कामयाब हों पाएंगे।

‘खेत तलाई’ से राजी किसान
    राजस्थान में पिछले सालों में धरातल पर जमा होने वाले पानी से जुडे़ काम में दो का जिक्र जुबान पर रहता है। पहला, पिछली भाजपा सरकार के दौरान मुख्यमंत्री जल स्वावलम्बन के जरिए सहेजे और फिर से जीवित किए गए पारम्परिक जल स्रोत। और दूसरा, वर्तमान कांग्रेस सरकार में बड़े पैमाने पर जारी फॉर्म पॉण्ड के काम जिसका फायदा सीधे किसानों को मिल रहा है। गांवों में गोचर, ओरण, तालाब, बारिश के पानी को सहेजने के लिए बनी अनूठी वैज्ञानिक पारम्परिक जल संरचनाओं, टांकों और जमीन से पानी निकालने के लिए खोदे गए बोरवैल का एक पूरा ताना-बाना दिखाई पड़ता है। वहीं खेतों में सिंचाई के लिए छोटे बांध, लिफ्ट सिंचाई, बूंद-बूंद सिंचाई जैसी कई व्यवस्थाएं हैं। सूखे इलाकों में पारम्परिक सिंचाई की थिम्बक और खड़ीन जैसी प्रणालियां अब कहीं-कहीं देखने को मिलती हैं जिन्हें आधुनिक तकनीकी समझ से जोड़कर कारगर बनाने की छितरी ही सही, लेकिन कोशिशें हो रही हैं। खेतों को बारहमासी पानी पिलाने की सहूलियत के लिए नहरी इलाकों के किसान अपने खेतों की बगल में ही जो छोटा ताल यानी 'डिग्गी' बनाते हैं, उसके लिए सरकारी सहयोग मिलता है।

    दूसरी ओर फॉर्म पॉण्ड यानी 'खेत तलाई' बारिश के पानी को भी खेतों में ही सहेजने का इंतजाम है जिसे सरकारी अनुदान मिलने से इस काम में काफी इजाफा हुआ है और किसान भी इस काम से बहुत राजी हैं। ये खेत तलाई जल संरक्षण के साथ ही खेत की नमी को कायम रखने का जरिया भी बनते हैं। रणथम्भौर सफारी के लिए मशहूर सवाई माधोपुर इलाके के किसान कैलाश चन्द्र मीणा इस बात से बेहद खुश नजर आते हैं कि ऐसी योजनाओं का पैसा अब किसानों के खाते में सीधे आने से बिचौलियों की भूमिका खत्म हो गई है। किसान आॅनलाइन ही आवेदन कर ‘फॉर्म पॉण्ड’ के लिए आवेदन करते हैं और खेत तलाई की खुदाई का खर्च सरकार से मिल जाता है। जमीन खोदकर बोरवैल से निकाले जाने वाले हार्ड पानी के मुकाबले बारिश के पानी में सारे पोषक तत्व होने से खेतों को भी यह पानी रास आता है। किसान इसके फायदे अच्छी पैदावार, साग सब्जी, फल-फूल के लिए तो ले ही रहे हैं, साथ ही खेतों को पिलाने के बाद ज्यादा बचे पानी को मछली और पशुपालन के काम में भी लेने लगे हैं।

बीस साल में बदली तस्वीर
    राजस्थान में 60 प्रतिशत सिंचाई, जमीन के पानी से होती है और करीब 40 प्रतिशत तालाब, तलई, टैंकों के भरोसे यानी सतह के पानी से होती है। जमीन का पानी निकालने के लिए खेतों में खोदे गए बोरवैल के कारण प्रदेश के करीब तीन सौ ब्लॉक में से पांच दर्जन डार्क जोन में आ चुके हैं। यह खतरे की घण्टी है जिसे खेत तलाई और परम्परागत जल स्रोत पूरी ताकत से दूर करने में जुटे हैं। खेत तलाई को जल आन्दोलन की अहम कड़ी मानें तो राजस्थान के कृषि और उद्यानिकी विभाग की ओर से पिछले 20 साल में 54,801 किसानों के खेत आबाद हुए हैं। दूसरी तरफ आपसी सहयोग से सामुदायिक स्तर पर भी फार्म पॉण्ड बनाने के काम की गिनती 3,535 तक पहुंच पाई है। इस साल 7,230 किसानों के और 80 साझेदारी के खेतों पर खेत तलाई बनाने के लिए राज्य और केन्द्र की सिंचाई योजना ने लक्ष्य तय किया है। हालांकि अनुदान हासिल करने में अड़चनें भी कम नहीं हैं और नियम-कायदे में उलझे किसान वक्त पर मदद नहीं मिलने पर अपने खर्चे से ही ‘पॉण्ड’ बनवा रहे हैं। इन्हें बनाने की तकनीक की खासियत यह है कि 20 गुणा 20 मीटर की ये तलाई 3 मीटर गहरी होती है और सतह से थोड़ी ऊंची बनाई जाती है। सामुदायिक तलाई लंबाई-चौड़ाई में 50 गुणा 50 मीटर या 100 गुणा 100 के आकार की होती है। कच्ची तलाई पर 63,000 रुपये और पक्का यानी प्लास्टिक की लाइनिंग वाली तलाई पर 90,000 रुपये का सरकारी सहयोग किसानों को मिलता है। सामुदायिक और साझेदारी वाले बड़े खेतों की जरूरत बड़ी होती है, इसलिए उनके लिए 100 गुणा 100 मीटर के ‘पॉण्ड’ पर ज्यादा से ज्यादा 20 लाख रु. दिए जाने का प्रावधान है।

    खेती-किसानी में कंधे से कंधा मिलाकर काम करती महिलाओं से बात करने पर अन्दाज लगता है कि खेतों में रुकने वाले पानी के इस प्रबन्धन से उन्हें कितनी राहत मिली है। नहरी इलाकों में बनने वाली डिग्गियों और बारिश के पानी की साज-संभाल करने वाली खेत तलाई के फायदों पर युवा किसान रामनरेशी बताती हैं कि हमारे आस-पास बहुत लोगों ने तलाई बनवाई हैं। खेत में पूरा दिन खपने के बाद बमुश्किल पढ़ाई के लिए समय निकालने वाली रामनरेशी को मालूम है कि इसने किसानों के वक़्त और ऊर्जा की बचत का बड़ा काम किया है। महिलाओं की मेहनत को गिनती में नहीं रखने वाला समाज अगर उनसे पूछेगा तो वे यही कहेंगी कि पानी के आस-पास होने से खेतों के साथ खुद की सुध लेने का वक्त मिलना भी मुमकिन होगा। हालांकि खुले खेतों में उघड़ी तलाइयों में डूबने से होने वाले हादसों की खबरें भी आती हैं जिनसे डर फैलता है। सुविधा और सुरक्षा के बीच तालमेल के गंभीर मसलों पर ग्राम पंचायतों में चर्चा से समाधान उपजने चाहिए।

जवाबदेही और तकनीक
    खेतों में खोदी जाने वाली ये खेत तलाइयां अपनी धमक तो बना चुकी हैं और इससे जमीन के नीचे के पानी की स्थिति में भी बेहतरी होने की गुंजाइश भरपूर है। मगर, इन्हें खुदवाने के लिए सरकार से सहयोग हासिल करने के लिए जद्दोजहद कम नहीं होती। जोधपुर के कुछ किसानों का कहना है कि सामान्य श्रेणी के किसानों के लिए सरकारी योजनाओं का लाभ लेना आसान नहीं है। और तलाई की खुदाई का काम वक्त रहते नहीं हो तो किसाना नुकसान में रहता है। ऐसे में ज्यादातर किसान अपना पैसा निवेश करके ही ‘पॉण्ड’ बनवा लेते हैं। तलाई की अहमियत समझने वाले किसान अनुदान के लिए इतनी अधिक संख्या में आवेदन कर रहे हैं कि सरकार के इंतजाम नाकाफी साबित हो रहे हैं। सरकार ने निजी खेतों में करीब 7,000 अनुदान का लक्ष्य रखा था जबकि विभाग के पास अब तक 20 हजार से ज्यादा आवेदन आये हैं। ऐसे में फैसला इसका भी होना है कि सरकार सिर्फ संख्याओं में सिमटी रहे या असल जरूरत को समझते हुए अपने लक्ष्य को बड़ा करे।

    तलाई सिर्फ किसान का अकेले का हासिल नहीं है, बल्कि पानी के संकट पर हमारी राष्ट्रीय चिंता का बड़ा मसला है। यदि राजस्थान इस मामले में मिसाल कायम करता है तो इससे देश भर में पानी के प्रबंधन के लिए और नवाचारों को भी ताकत मिलेगी। तकनीक के इस्तेमाल से असल जरूरत का आकलन करने के साथ ही योजनाओं को जरूरतमंदों तक पहुंचाने में पारदर्शिता भी आनी चाहिए। पानी के प्रबंधन में घूसखोरी बड़ा अपराध है जिसका इलाज शासन और प्रशासन को ही करना है। पानी को सहेजने के साथ ही उसके बूंद-बूंद इस्तेमाल को लेकर हमारी संजीदगी लगातार जाहिर होनी चाहिए। साथ ही किसान और कुदरत, दोनों से हमारे रिश्ते मजबूत करने के लिए व्यवस्था की जवाबदेही भी तय होनी चाहिए।

 

 

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