आदर्श सिंह
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद दुनिया में गोलबंदियां बदल रही हैं। पाकिस्तान इसका बड़ा लाभार्थी दिख रहा है परंतु उसके तालिबानीकरण का खतरा तेजी से बढ़ा है। अमेरिका विरोधी ताकतें भले तालिबान का समर्थन कर रही हों परंतु उनकी अपनी आशंकाएं भी कम नहीं हैं जिन्हें नजरअंदाज करने का परिणाम भी सामने आएगा
आम तौर पर कुछ देशों में नया कुछ नहीं होता। बस! इतिहास खुद को दोहराता है। अफगानिस्तान के मामले में यह कुछ ज्यादा ही सच है। अमेरिका की योजना वर्ल्ड ट्रेड टॉवरों पर हमले की बीसवीं बरसी यानी 11 सितंबर, 2021 तक अफगानिस्तान से अपना आखिरी सैनिक हटाकर इस अंतहीन युद्ध से हाथ झाड़ लेने की थी। उम्मीद थी कि अमेरिकी फौज के हटने के बाद तीन लाख सैनिकों की संख्या वाली अफगानी फौज अत्याधुनिक अमेरिकी हथियारों के साथ तालिबान के महज 75,000 लड़ाकों का मुकाबला करने में सक्षम होगी। लेकिन यह दूर की कौड़ी साबित हुई। तालिबान ने अगस्त में ही महज 11 दिन के अंदर अफगानिस्तान के 34 में से 32 प्रांतों पर कब्जा कर लिया। 15 अगस्त को वे काबुल में राष्ट्रपति के महल में दाखिल हो गए जहां महल के मुख्य सुरक्षा अधिकारी ने तालिबान कमांडर का स्वागत किया। राष्ट्रपति अशरफ गनी इस बीच देश छोड़कर भाग चुके थे। उनका भागना अनिवार्य था क्योंकि तीन लाख की संख्या वाली अफगानी फौज लापता हो चुकी थी। और अफगानिस्तान के इतिहास से गनी भी बखूबी वाकिफ होंगे। यहां चुनाव से सरकार नहीं बनती और न ही पिछले शासक को जिंदा छोड़ा जाता है। 1978 में इसी महल में बागी सैनिकों ने पूरे दिन घेराबंदी के बाद अन्दर घुसकर राष्ट्रपति मोहम्मद दाऊद की हत्या कर दी थी। अगले साल नए राष्ट्रपति नूर मोहम्मद तराकी इसी महल में गोलीबारी में बुरी तरह घायल हो गए। सोवियत फौजों के अफगानिस्तान में दाखिल होने के बाद तराकी के उत्तराधिकारी हफीजुल्ला अमीन की इसी महल में 1979 में हत्या कर दी गई। नजीबुल्ला का देश छोड़कर भागने का प्रयास सफल नहीं हुआ और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के परिसर में शरण ली। बेरहमी से हत्या के बाद उनके शव को लैंप पोस्ट से लटका दिया गया। ऐसे में देश छोड़कर भागने के लिए गनी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। अफगानी सेना का ‘शौर्य’ देख लेने के बाद गनी ने अब्दुल रशीद दोस्तम व इस्माइल खान जैसे पुराने ताकतवर मुजाहिदीन सरदारों पर भरोसा किया। ये मुजाहिदीन सरदार तालिबान को मिटा देने के दावे कर रहे थे लेकिन वे भी चुके हुए कारतूस साबित हुए। उसके बाद जो हुआ, पूरी दुनिया ने देखा।
अफगानी फौज व नेतृत्व
अफगानिस्तान से जो तस्वीरें आ रही हैं, वे दर्दनाक और भयावह हैं। अमेरिका को दोष देने का कोई औचित्य नहीं है। पिछले बीस वर्ष में अमेरिका ने अफगानिस्तान में दो ट्रिलियन डॉलर खर्च किए। अफगानी फौज पर ही 83 बिलियन डॉलर फूंक दिए गए। लेकिन जब लड़ने की बारी आई तो किसी की समझ में नहीं आया कि वे गए कहां? अफगानी फौज जब अपने देश के लिए लड़ने को तैयार नहीं थी तो अमेरिका कितने साल तक उन्हें बचाए रख सकता था। अमेरिका के सैनिक हटाने की तारीख तय होते ही तालिबान आगे बढ़ते गए और अफगानी फौज पीछे हटती गई। यह मान लिया गया कि अमेरिका जा रहा है तो तालिबान आएंगे ही। वैसे भी अफगानियों की परंपरा है कि वे बलिदान देने के लिए नहीं लड़ते। उन्हें जो मैदान में सबसे शक्तिशाली लगता है, उसके पीछे खड़े हो जाते हैं। इन बीस वर्ष में अमेरिका ने चाहे जितनी गलतियां की हों, पाकिस्तान की धोखाधड़ी और उसे तालिबान की मदद करने से रोकने में भी वह विफल रहा लेकिन तालिबान की वापसी के लिए गनी सरकार और वहां की फौज पूरी तरह जिम्मेदार है। अफगान नेतृत्व को उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के ग्रेट गेम के 21वीं सदी के संस्करण और अफगानिस्तान की भौगोलिक-रणनीतिक अहमियत पर इतना विश्वास था कि उन्हें अमेरिका कभी भी अफगानिस्तान से नहीं जाएगा और उन्हें अनंत काल तक डॉलर मिलते रहेंगे। यहां तक कि दोहा में तालिबान और अमेरिका में वार्ता पर भी उन्होंने ध्यान नहीं दिया सिर्फ इस आश्वस्ति में कि अमेरिकी जाएंगे कहां। सैनिकों की वापसी का समझौता हो जाने के बाद भी वे आश्वस्त थे कि बाइडेन इस पर अमल नहीं करेंगे। लेकिन बाइडेन के अमेरिकी सैनिकों की वापसी की तारीख तय करने के बाद से ही अफगानी फौज का मनोबल टूट गया और देखते ही देखते तालिबान ने अफगानिस्तान के 95 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा कर लिया।
यह उम्मीद बेमानी थी कि अफगानिस्तान बदल जाएगा। एक बेहद भ्रष्ट देश, जिसकी हेरोइन के व्यापार में 90 प्रतिशत हिस्सेदारी है, जहां ‘डेथ स्क्वाड’ छोटे बच्चों तक की हत्या करते हों, जहां कुछ रिश्वत लेकर किसी भी अपराध से आंख मूंद ली जाती हो, जहां सेना-पुलिस में बच्चों के यौन शोषण की रवायत हो, उससे यह उम्मीद पालना गलत था कि वे किसी उद्देश्य के लिए बलिदान देंगे। उनसे उम्मीद की जा रही थी कि वे उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए लड़ेंगे। आम अफगानी के लिए ये मंगल ग्रह से आई चीजें हैं। उन्हें तालिबान ही असल अफगानी लगते थे। बाइडेन ने एक बात सच कही। वह यह कि अफगानी जब तक अपने लिए लड़ना नहीं सीखेंगे, तब तक अमेरिका उनकी कितने साल मदद करेगा। अफगानिस्तान में कोई देश के लिए नहीं लड़ता। हर कोई अपने फायदे के लिए लड़ता है। और यहां की धरती ऐसी है कि यह तय कर पाना असंभव है कि कौन आपका मित्र है और कौन शत्रु। खुद अफगानों को भी नहीं पता होता कि जंग के मैदान में कौन-सा गुरिल्ला सरदार कब पलट जाए और उसी पर हमला बोल दे जिसके समर्थन में वह जंग में उतरा था। तभी अफगानी फौज के कमांडर वर्दी उतार कर रातोरात हथियारों के साथ तालिबान के साथ हो गए।
नए आतंकी समीकरण
बहरहाल, तालिबान सत्ता में लौट आए हैं और निश्चित रूप से इसका बड़ा असर होना है। अफगानिस्तान पर भी और पूरी दुनिया के लिए। खास तौर से आतंक का मुद्दा। ट्रंप के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एच. आर. मैकमास्टर ने कुछ दिन पूर्व ही आगाह करते हुए कहा कि हमने बीस साल पहले के अनुभव से सीख लिया है कि अफगानिस्तान के जिहादी अफगानिस्तान तक ही सीमित नहीं रहेंगे। हो सकता है कि फिलहाल कुछ दिन तक तालिबान इस उम्मीद में चुप रहें कि पहले दुनिया की सरकारों से उन्हें मान्यता मिल जाए लेकिन जिहाद की आंतरिक राजनीति में इसका असर आज से ही देखा जा सकता है। पहली बात यह कि तालिबान पूरी तरह अल कायदा के साथ है। वे आज भी उनके मजहबी जुनून और लड़ाई में तालिबान की मदद के लिए उनके एहसानमंद हैं। तालिबान, इस्लामिक स्टेट यानी आईएस का घोषित दुश्मन और अल कायदा का दोस्त है। दोनों एक-दूसरे को इस्लाम का भटका हुआ सिपाही कहते हैं। इसलिए 15 अगस्त को काबुल में दाखिल होने के बाद उन्होंने पहला काम यह किया कि 16 अगस्त को काबुल की पुल ए चर्खी जेल में बंद आईएस के दक्षिण एशिया और सुदूर पूर्व के पूर्व कमांडर जिया उल हक उर्फ उमर खुरासानी का सिर काट दिया। तालिबान के एक नेता मुल्ला खैरखुल्ला ने 18 अगस्त को एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि आईएस इस्लाम के रास्ते से पथभ्रष्ट हो चुका है। निश्चित रूप से अल कायदा में नई जान आ गई है। लेकिन फिलहाल तालिबाल यह नहीं चाहेगा कि अल कायदा कुछ ऐसा कर दे जिससे अमेरिका फिर अफगानिस्तान में दाखिल हो जाए। लेकिन फिर भी इत्मीनान रखें। अल कायदा को अफगानिस्तान के रूप में शरणस्थली तो मिल गई है जहां वह नए सिरे से खुद को संगठित कर सकता है।
अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर असर
तालिबान की वापसी से अमेरिका की प्रतिष्ठा को निश्चित रूप से धक्का लगा है और पाकिस्तान इस घटनाक्रम का सबसे बड़ा लाभार्थी है। तालिबान और पाकिस्तान दो नहीं, बल्कि एक हैं। आम अफगानी यही मानता है कि तालिबान इस्लाम के लिए नहीं बल्कि इस्लामाबाद के लिए लड़ रहे हैं। तो इस्लामाबाद का मानना है कि अमेरिका और भारत के काबुल से निकल जाने के बाद उसे वह रणनीतिक गहराई हासिल हो गई है जिसके लिए उसने पेशावर के स्कूल में अपने डेढ़ सौ स्कूली बच्चों के मारे जाने के बाद भी तालिबान के खिलाफ मुंह नहीं खोला। तालिबान या इस्लाम के इन सिपाहियों का वह मर्जी से कहीं भी इस्तेमाल कर सकता है। लेकिन पाकिस्तान का पूरी तरह तालिबानीकरण अब दूर नहीं है। जिहादी तंजीमें तालिबान की शान में कसीदे काढ़ रही हैं। और सुरक्षा विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि जिस तरह रूस के अफगानिस्तान छोड़ने को जिहाद ने अपनी विजय माना था, इस बार वे इसे 1989 से भी बड़ी विजय मान रहे हैं। जिहाद को पुनर्जीवन मिलेगा तो पाकिस्तान को आज न कल अपनी बोई हुई फसल काटनी ही पड़ेगी। और पाकिस्तानी तालिबान ने अपना योगदान देना शुरू भी कर दिया है। अकेले जुलाई में ही पाकिस्तान में 26 आतंकी हमले करके उन्होंने ऐलान कर दिया है कि जिहाद अफगानिस्तान तक ही नहीं रुकेगा। डूरंड लाइन पार कर वह पाकिस्तान में भी दाखिल होगा।
अफगानिस्तान की कुंजी अब चीन के हाथ में है। रूस, ईरान और पाकिस्तान प्यादे हैं। इन सभी को अफगानिस्तान से अमेरिका के जाने की खुशी तो है लेकिन पाकिस्तान को छोड़कर बाकी तीनों तालिबान की जीत से आशंकित भी हैं। ईरान को शिया व हजारा समुदाय के भविष्य की चिंता है तो चीन को डर है कि जिहाद अब सरहद पार कर शिनकियांग भी पहुंच सकता है। रूस को डर है कि तालिबान अब ताजिकिस्तान व उज्बेकिस्तान सहित पूरे मध्य एशिया को अस्थिर कर सकते हैं। इसकी आंच आज नहीं तो कल काकेसस भी पहुंचेगी। लेकिन फिलहाल ये तीनों देश अमेरिका को पहुंची चोट की खुशी मना रहे हैं और उन्हें लगता है कि अफगानिस्तान की सत्ता में अब वे भी हिस्सेदार हैं।
चीन की भूमिका अब देखने लायक होगी। उसे सुनिश्चित करना होगा कि जिहाद की आंच उस तक न पहुंचे और साथ में अफगानिस्तान की खनिज संपदा उसके कब्जे में आ जाए। वह अपनी बेल्ट और रोड की महत्वाकांक्षी परियोजना को अफगानिस्तान तक पहुंचाना चाहता है। वह पहले ही इस परियोजना के तहत अफगानिस्तान में कापर की खदानें हासिल कर चुका है। तालिबान इस उम्मीद में हैं कि चीन से पैसा मिलेगा, वह खदानों और बुनियादी ढांचे में निवेश करेगा। लगे हाथ उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि चीनियों को अफगानिस्तान में इस्लामी रीति-रिवाजों के अनुसार खुद को ढालना होगा। निश्चित रूप से अमेरिका के बाद सबसे बड़ा धक्का भारत को लगा है। लेकिन आज जिसे हम धक्का समझ रहे हैं,वह दीर्घकाल में लाभकारी होने वाला है। पाकिस्तान अगर यह सोचता है कि वह तालिबान के सहारे कश्मीर में जिहाद भड़का सकता है तो उसे समझना होगा कि यह पहले वाला भारत नहीं है। उड़ी और बालाकोट से साबित हो चुका है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में यह भारत अब जिहादी आतंक से मुकाबले के लिए प्रतिबद्ध है। दूसरे अफगानिस्तान से जाने के बाद अमेरिका के लिए पाकिस्तान की उपयोगिता किस कदर खत्म हो चुकी है, यह इसी से साबित हो चुका है कि इमरान खान नियाजी आज आठ महीने बाद भी अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के फोन के इंतजार में हैं। अब आतंक के खिलाफ लड़ाई के बहाने आतंक को पोषित करने के लिए उसे अरबों डॉलर तो क्या, चवन्नी भी नहीं मिलनी। साथ ही भारत की आक्रामक कूटनीति से एफएटीएफ की तलवार उस पर लटकी रहेगी। पूरी तरह कंगाल हो चुका पाकिस्तान अब पूरी तरह चीन की गोद में है। इधर पहले से ही मजबूत भारत-अमेरिका के संबंध अब और प्रगाढ़ होंगे।
रूस लगातार तालिबान से संपर्क बढ़ा रहा है जबकि भारत लगातार दूरी। रूस की चीन के साथ लगातार बढ़ती दोस्ती भी भारत के लिए चिंता का बायस बनती जा रही है। लेकिन चीन के इशारे पर रूस का तालिबान और पाकिस्तान के साथ प्यार की पींगें बढ़ाना खतरे की घंटी है। रूस बेहद स्पष्ट शब्दों में क्वाड की निंदा कर चुका है जो भारत-अमेरिका, जापान व आॅस्ट्रेलिया के बीच गठबंधन है। अमेरिका अब गैरजरूरी युद्धों के बजाय चीन और एशिया पैसिफिक पर ध्यान केंद्रित करेगा। भारत का ध्यान अब पाकिस्तान के बजाय चीन पर है। लद्दाख में घुसपैठ और गलवान के बाद अब चीन से संबंध लंबे समय तक शत्रुतापूर्ण रहने वाले हैं। इस बदलती दुनिया और नई गोलबंदियों को गौर से देखें। एक तरफ रूस, चीन, पाकिस्तान, ईरान, तुर्की हैं तो दूसरी तरफ लोकतांत्रिक दुनिया। लगता है कि सैमुअल हंटिंग्टन की भविष्यवाणियां अक्षरश: घटित हो रही हैं। अफगानिस्तान ज्यों का त्यों रहता है लेकिन दुनिया बदल जाती है।
(लेखक साइंस डिवाइन फाऊंडेशन से जुड़े हैं और रक्षा व वैदेशिक मामलों पर लिखते हैं)
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