डी.पी. श्रीवास्तव
पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के हिस्से पर दुनिया को लगातार अपने फरेब में उलझाए हुए है। चाहे जनमत संग्रह का प्रस्ताव हो, पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के हिस्से पर सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों की बात या उस हिस्से पर स्थानीय नागरिकों के अधिकारों की बात हो, पाकिस्तान सभी जगह फरेब का जाल बिछा दुनिया को धोखे में रख रहा है और जम्मू-कश्मीर के उस हिस्से के आर्थिक शोषण में लिप्त है
पाकिस्तान हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर का मुद्दा उठाता रहता है, लेकिन उसके उस हिस्से के संबंध में बड़ी सुविधाजनक चुप्पी ओढ़े रहता है जिस पर 1947 के बाद से उसने अवैध कब्जा कर रखा है। वह कहता है कि पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के अनुसार एक खास क्षेत्र है जो जनमत संग्रह का इंतजार कर रहा है। वह 'आजादी' का नारा लगाता है। दिलचस्प बात यह है कि वह अनुच्छेद 370 पर भारत की स्थिति को हमेशा नकारता रहा है और दावा करता है कि स्वायत्तता आजादी का विकल्प नहीं है। अगस्त 2019 में भारत सरकार ने जब अनुच्छेद 370 को खत्म किया तो पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान ने नेशनल असेंबली में भाषण देते हुए ऐसे संकेत दिए कि वे भारत के साथ परमाणु युद्ध भी छेड़ सकते हैं। पाकिस्तान जिस तरह की हरकतें पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर में कर रहा है, क्या वे जम्मू-कश्मीर पर उसके घोषित रुख से मेल खाती हैं? अगर पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के पास 'आजादी' नहीं, तो उसे कितनी स्वायत्तता हासिल है? पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान में कैसा शासन चल रहा है?
पीओके के जन्म की गोपनीय हकीकत
मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के वरिष्ठ कार्यकर्ता यूसुफ सर्राफ, जो बाद में पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर की सर्वोच्च न्यायिक परिषद के मुख्य न्यायाधीश बने, पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के जन्म की एक गोपनीय बात को उजागर करते हैं। वे बताते हैं कि सरदार इब्राहिम ने 24 अक्तूबर, 1947 को पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर की 'अस्थायी सरकार' के गठन की घोषणा की थी लेकिन इसके लिए उन्हें आधी रात को रावलपिंडी से दो फोन कॉल के जरिए निर्देश मिले थे। इसमें रावलपिंडी डिवीजन के कमिश्नर ख्वाजा रहीम और जम्मू-कश्मीर में 'कबाइली आक्रमण' का नेतृत्व करने वाले कर्नल अकबर खान की तत्कालीन पत्नी बेगम नसीम शामिल थीं। यह विद्र्रोह स्थानीय लोगों की ओर से नहीं छेड़ा गया था। दिलचस्प बात यह है कि आदेश रावलपिंडी से आए थे न कि कराची से जो उस समय पाकिस्तान की राजधानी थी। रावलपिंडी शुरू से ही पाकिस्तानी सेना का मुख्यालय रही है और वही पाकिस्तान की 'कश्मीर' नीति को तय करती रही है।
सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों का उल्लंघन
पाकिस्तान जिसे 'आजाद जम्मू और कश्मीर' कहता है, वह पाक अधिक्रांत क्षेत्र का केवल 15% है। उसने इस क्षेत्र के 85% क्षेत्र को अलग कर उस पर अपना प्रत्यक्ष कब्जा जमा रखा है। यही उत्तरी इलाका है गिलगित-बाल्टिस्तान। इस इलाके की स्थिति को कब बदला गया? क्या पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के लोगों से मशविरा किया गया? क्या ये बदलाव संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के अनुसार किए गए? ऐसा माना जाता है कि 1949 के कराची समझौते के आधार पर उत्तरी क्षेत्रों को पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिया गया था। इस समझौते पर पाकिस्तान के कश्मीर मामलों और उत्तरी क्षेत्रों के मंत्री गुरमानी ने पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राष्ट्रपति सरदार इब्राहिम और मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष चौधरी गुलाम अब्बास के साथ हस्ताक्षर किए थे। इस बात को गुप्त रखा गया था क्योंकि उत्तरी क्षेत्रों का अलग होना एक ऐसी घटना थी जिसके तहत जनमत संग्रह के बगैर ही उस क्षेत्र की यथास्थिति को बदल दिया गया था। यह बात तब सामने आई जब उस क्षेत्र के सभी राजनीतिक दल यह मामला लेकर पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय पहुंचे। 1993 में कोर्ट ने अपने फैसले में उत्तरी क्षेत्रों को अलग करने के कदम को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों का उल्लंघन बताया।
दरअसल, पाकिस्तान ने 1947 में ही उत्तरी क्षेत्रों पर कब्जा जमा लिया था; कराची समझौता तो बस उस फैसले को कानूनी कवच देने की कवायद भर था। जम्मू-कश्मीर के महाराजा के खिलाफ तख्तापलट का नेतृत्व करने वाले मेजर ब्राउन ने गिलगित एजेंसी का नियंत्रण उस समय तक अस्तित्व में आ चुकी पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर की अस्थायी सरकार की जगह पाकिस्तान सरकार के एक राजनीतिक एजेंट को सौंप दिया था। चुना गया यह 'राजनीतिक एजेंट' एनडब्ल्यूएफपी का एक तहसीलदार था। पर कराची समझौते की प्रामाणिकता उस समय सवालों से घिर गई, जब उस पर हस्ताक्षर करने वालों में से एक, पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के राष्ट्रपति सरदार इब्राहिम, बाद में यह कहते नजर आए कि उन्होंने कराची समझौते पर कभी हस्ताक्षर नहीं किए थे। पाकिस्तान ने न केवल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, बल्कि पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के लोगों को भी धोखा दिया है।
जनमत संग्रह पर पाकिस्तान की उलटबांसी
पाकिस्तान जनमत संग्रह की मांग तो उठाता है लेकिन जब भी इस मामले से सबंधित कोई प्रस्ताव पेश होता है तो वह उसे अस्वीकार कर देता है। जब 2 नवंबर, 1947 को माउंटबेटन ने संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में जनमत संग्रह कराने का प्रस्ताव किया तो जिन्ना ने उसे ठुकरा दिया था। फिर मई 1950 में संयुक्त राष्ट्र के मध्यस्थ ओवेन डिक्सन ने जम्मू-कश्मीर के लिए क्षेत्रीय जनमत संग्रह का सुझाव दिया था। उनका कहना था कि पूर्ण जनमत संग्रह कराने पर विभाजन रेखा के दोनों तरफ मौजूद अल्पसंख्यक समुदायों में घबराहट फैलेगी और लोग पलायन के लिए मजबूर हो जाएंगे। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को सौंपी अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि भारत प्रस्ताव पर विचार करने के लिए तैयार है, लेकिन पाकिस्तान को यह मंजूर नहीं है। पाकिस्तान ने इस प्रस्ताव को इस आधार पर नामंजूर किया था कि क्षेत्रीय जनमत संग्रह पूर्ण जनमत संग्रह के सिद्धांत से अलहदा है। ओवेन डिक्सन का कहना था कि पाकिस्तान राज्य के विभाजन को स्वीकार करने के लिए तैयार है बशर्ते उसे घाटी मिल जाए। यानी अगर पाकिस्तान को जनमत संग्रह के बगैर घाटी मिल जाती तो उसके लिए पूर्ण जनमत संग्रह कोई खास अहमियत नहीं रखता।
1953 में दिल्ली में नेहरू-मोहम्मद अली बोगरा के बीच हुई बातचीत में भारत और पाकिस्तान के बीच जनमत संग्रह पर सहमति बनी। यह अवसर महत्वपूर्ण था, क्योंकि ठीक इसके पहले शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया गया था। पर 1953 के दिसम्बर में बोगरा अपनी बात से पलट गए और नेहरू को एक पत्र लिखकर कहा कि वे क्षेत्रीय जनमत संग्रह को सही नहीं मानते क्योकि ऐसा करना पूर्ण जनमत संग्रह के सिद्धांत से अलग होना होगा। यह वही दलील थी जो 1950 में संयुक्त राष्ट्र के मध्यस्थ के सामने भी रखी गई थी। जैसा कि हमने देखा है, घाटी मिलने का भरोसा होने पर पाकिस्तान पूर्ण जनमत संग्रह के सिद्धांत को छोड़ने के लिए तैयार रहा है। तो आखिर किस वजह से पाकिस्तान जनमत संग्रह के लिए तैयार नहीं हुआ?
सुधान विद्रोह के विरुद्ध पाकिस्तानी बर्बरता
अप्रैल 1950 से पाकिस्तानी सेना सुधन विद्रोह को कुचलने के लिए सैन्य अभियान चला रही थी। यह विद्रोह तब शुरू हुआ था जब सुधन कबीले के सरदार इब्राहिम जो पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राष्ट्रपति थे, को बर्खास्त कर दिया गया था। इसमें पाकिस्तान की ओर से आम लोगों पर भारी हथियारों के साथ-साथ मोर्टार भी इस्तेमाल किए गए। तब मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ने पाकिस्तान की संविधान सभा को सौंपे गए एक ज्ञापन में शिकायत की थी कि सुरक्षा बल भारी संख्या में लोगों को गिरफ्तार कर रहे हैं, महिलाओं से छेड़छाड़ और लड़कों के साथ अप्राकृतिक कृत्य कर रहे हैं। युद्धविराम रेखा के उस पार ऐसी अराजक स्थितियों में वह जनमत संग्रह कैसे करा सकता था? पर पाकिस्तान सारा दोष भारत पर मढ़ने में सफल हो गया।
पीओके को बनाया कठपुतली
1974 में मंजूर पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर संविधान में सभी शक्तियां निर्वाचित विधानसभा के बजाय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली परिषद को सौंपी गई थीं, लेकिन 2018 में पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर संविधान के 13वें संशोधन के बाद परिषद का दर्जा सिर्फ सलाहकार का रह गया है। पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर से जुड़े 22 विषयों पर भी परिषद की शक्तियों को निर्वाचित विधानसभा और सरकार को हस्तांतरित करने के बजाय पाकिस्तान ने खुद अपने अधिकार में ले लिया है। शेष विषयों पर भी पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान की मंजूरी लेनी होगी। गिलगित-बाल्टिस्तान आदेश 2018 के तहत सभी विधायी शक्तियां पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के पास हैं। 61 विषयों की पूरी सूची निरस्त कर दी गई है जिन पर निर्वाचित विधानसभा को पहले कानून बनाने का अधिकार था। गिलगित-बाल्टिस्तान के लोगों ने इसका विरोध किया और कोर्ट में आदेश को चुनौती दी। पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने इस्लामाबाद का पक्ष लिया और उस आदेश को बहाल कर दिया जिसे पहले गिलगित-बाल्टिस्तान की शीर्ष अदालत ने खारिज कर दिया था। पाकिस्तान ने ये सारे बदलाव भारत के अनुच्छेद 370 को खत्म करने के एक साल पहले 2018 में किए।
पाकिस्तान ने अपने नागरिकता कानून 1951 को 1972 में पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर में लागू कर दिया था। अब अगर पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के लोग पाकिस्तानी नागरिक बन जाते हैं तो जनमत संग्रह की मांग अपने-आप अप्रासंगिक हो जाएगी। पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर के मामले में राज्य-सूची से संबंधित नियमों का कमजोर कर दिया गया है। भुट्टो ने 1974 में गिलगित-बाल्टिस्तान के संबंध में इसे समाप्त करते हुए वहां बाहरी लोगों को संपत्ति खरीदने की अनुमति दे दी थी। पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने 1999 में अपने क्षेत्राधिकार को गिलगित-बाल्टिस्तान तक बढ़ा दिया है। इस तरह, पाक जम्मू-अधिक्रांत कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान के लोगों के पास न तो आजादी रही, न स्वायत्तता।
आर्थिक शोषण के पैंतरे
पाकिस्तान राजनीतिक नियंत्रण को आर्थिक शोषण से जोड़ देता है। जहां पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर को मंगला बांध की जलराशि की कीमत प्रति यूनिट सिर्फ 15 पैसे मिलती है, वहीं पाकिस्तान के प्रांतों को उसी जलराशि से पैदा होने वाली बिजली के लिए सात गुना अधिक पैसे यानी 1.10 रुपये प्रति यूनिट मिल रहे हैं। इस भेदभावपूर्ण नीति को उचित ठहराने के पैंतरे भी उसके पास तैयार हैं। पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद 161 में कहा गया कि हाइड्रो-पावर रॉयल्टी का भुगतान पाकिस्तान के प्रांतों को किया जाएगा और पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान इस श्रेणी में नहीं आते। यह अजीब दलील है। पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर का विशिष्ट दर्जा मंगला बांध से पानी और बिजली लेने में तो आड़े नहीं आता, लेकिन पैसे देने के समय वह रोड़ा बन जाता है। उचित आर्थिक मुनाफे का मुद्दा गिलगित-बाल्टिस्तान के मामले में और भी अधिक प्रासंगिक है, जहां चीन अपने पैर जमा रहा है। चीनी कंपनियां गिलगित-बाल्टिस्तान में में कई बिजली संयंत्र बनाने जा रही हैं। 12 अरब डॉलर से अधिक की लागत के दैमर-भाषा बांध के निर्माण के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किए जा चुके हैं। हाइड्रो पावर प्लांट के निर्माण से एक बड़ा इलाका पानी में डूब जाता है और लोगों को विस्थापित होना पड़ता है। पाकिस्तान ने संवैधानिक नियमों के नाम पर जो नियम बनाए हैं उन्हें देखते हुए लगता नहीं कि स्थानीय लोगों को उचित मुआवजा या आर्थिक लाभ मिलेगा। फिर, गिलगित-बाल्टिस्तान तो पाकिस्तान के नेशनल ग्रिड से जुड़े भी नहीं हैं। इसका मतलब यह है कि गिलगिट-बाल्टिस्तान को उसके ही संसाधन से होने वाले बिजली उत्पादन का कोई मुनाफा नहीं मिलनेवाला, जबकि पाकिस्तान भरपूर फायदा उठाता रहेगा।
(लेखक पूर्व राजदूत हैं, और ‘फॉरगॉटन कश्मीर: द अदर साइड आॅफ द लाइन आॅफ कंट्रोल’ के लेखक हैं)
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