हितेश शंकर
अफगानिस्तान ऊपरी तौर पर शांत दिख रहा था परंतु वहां ताजा थरथराहट अनिष्ट और अशांति में न बदले, इसके लिए हम सबको प्रयत्न करने चाहिए, यह विश्व बिरादरी की जिम्मेदारी होगी। ये अभी जो आहटें हैं, वे तूफान के पहले की शांति जैसी न हों और अभी तालिबान से जुड़ी जो खबरें आ रही हैं, वे नकारात्मक दिशा में न बढ़ें, इस दिशा में प्रयत्न होने चाहिए।
अफगानिस्तान ऊपरी तौर पर शांत दिख रहा था परंतु वहां ताजा थरथराहट अनिष्ट और अशांति में न बदले, इसके लिए हम सबको प्रयत्न करने चाहिए, यह विश्व बिरादरी की जिम्मेदारी होगी। ये अभी जो आहटें हैं, वे तूफान के पहले की शांति जैसी न हों और अभी तालिबान से जुड़ी जो खबरें आ रही हैं, वे नकारात्मक दिशा में न बढ़ें, इस दिशा में प्रयत्न होने चाहिए।
इससे चिंता के तीन कारक हो गए हैं। कोविड संकट काल में या शांति काल में, दुनिया को अशांत करने वाले तीन कारक अफगानिस्तान में एकत्र होते दिखाई दे रहे हैं। पहला तुर्की है, जिसने जी-7 की बैठक के दौरान अमेरिका से कहा कि आप अफगानिस्तान छोड़ रहे हैं तो हम नाटो सहयोगी होने के नाते उस रिक्ति को भर सकते हैं। अमेरिका ने इस पर थोड़ा सा आगे बढ़ते हुए काबुल एयरपोर्ट का जिम्मा तुर्की को दे भी दिया। तुर्की के अलावा दूसरा खिलाड़ी पाकिस्तान है। वह स्टेकहोल्डर बन कर तेजी से आगे कदम बढ़ा रहा है। पाकिस्तान दावा कर रहा है कि वह अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में सकारात्मक भूमिका निभा सकता है।
तीसरे, ड्रैगन इस मामले में दबे पांव आगे बढ़ रहा है। इस संदर्भ में पाकिस्तान और चीन के विदेश मंत्रियों की जो बैठक हुई है, उसमें यह देखा जाना चाहिए कि वे एक साझा हित की दिशा में बढ़ रहे हैं और उसमें अफगानिस्तान के हितों का गौण रह जाना स्वाभाविक है। दरअसल चीन जिस तरह आगे बढ़ रहा है, उससे स्वयं पाकिस्तान के लोग सशंकित हैं कि पाकिस्तान सुरक्षित रह पाएगा या नहीं। ऐसे में अफगानिस्तान की गारंटी कौन लेगा। हाल ही में नवतालिबानी नेताओं की चीन के नेताओं से जो मुलाकात हुई है, वह बताती है कि चीन किसी तरह से तालिबान को साध लेना चाहता है। बहुत संभव है कि चीन अफगानिस्ता को मध्य एशिया में एक बड़े व्यापारिक केंद्र के रूप में देख रहा हो, उसकी खनिज संपदा पर नजर हो। इसके अलावा चीन की सीपैक परियोजना के लिए भी अफगानिस्तान का बड़ा महत्व है। सामरिक दृष्टि से भी अफगानिस्तान महत्वपूर्ण है। इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि ड्रैगन की नजर उधर है।
पाकिस्तान की बात करें तो वहां की संसद में और वहां के मीडिया में यह मुद्दा बड़े जोर-शोर से उठा है कि पाकिस्तान का तहरीके-तालिबान अफगानिस्तान के तालिबान के साथ मिलकर काम कर रहा है। पाकिस्तान दुनिया की आंखों में धूल झोंकने के लिए चाहे कुछ भी कहे, परंतु यह बात तय है कि उन्मादी इस्लामी तत्वों के प्रति पाकिस्तान का सहज झुकाव रहता है, पहले भी देखा गया है और यह बात अफगानिस्तान के लोगों का जीवन दूभर कर सकती है। तालिबानी वर्चस्व वाले इलाकों में लड़कियों को अगवा कर लड़ाकों से उनके जबरन निकाह वगैरह की जो खबरें आई हैं, उन्हें दुनिया चाहे जिस नजर से देखे, पाकिस्तान इसे तालिबान की नजर से सही मानता है।
चौथा आयाम है अमेरिका की अपनी जवाबदेही। अफगानिस्तान दुनिया की सबसे अशांत जगह न बन जाए, इस बात की चिंता अमेरिका को करने की आवश्यकता है। अगर अफगानिस्तान को बीच में छोड़ते हैं तो उसके भाग्य का निबटारा करने के लिए ऐसे लोग आगे आ जाएंगे जिनकी खुद की निष्ठा संदिग्ध है और जिनके निहित स्वार्थ हैं, वे अफगानिस्तान की चिंता छोड़ बंदरबांट कर सकते हैं।
ऐसे समय में निश्चित ही भारत की भूमिका बहुत अहम हो जाती है। महज इसलिए नहीं कि भारत अफगानिस्तान का निकटस्थ पड़ोसी है बल्कि इसलिए भी कि दुनिया में मुखर जीवंत लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रतीक भारत है, और इसलिए भी कि विविधता को सहेजना उसे आता है। दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका को यह बात समझनी पड़ेगी कि मध्य एशिया में शांति भारत को साथ लिये बिना पूरी नहीं हो सकती। ब्लिंकन का दौरा इसलिए महत्वपूर्ण है कि अमेरिका इस दिशा में सोचता हुआ लगता है। दूसरी यह अच्छी बात यह है कि चीन की कमजोर नस को भारत ने बहुत अच्छे से पहचाना है। अमेरिका ने भी अब उसे पहचाना है।
यह इसलिए भी जरूरी है कि यह कोई महज अमेरिका की साख से जुड़ा हुआ मामला नहीं है। असल में यह दुनिया में जनोन्मुखी व्यवस्थाओं की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण है कि यदि आप अफगानिस्तान से हट जाते हैं और वहां की जनता की अपेक्षाओं का, आकांक्षाओं का निराकरण नहीं होता, वे बंधक रह जाती हैं तो फिर इस ट्रांजिशन अवधि का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इस दृष्टि से सबसे अच्छा सहयोगी, जो वहां मार्गदर्शक हो सकता है, भविष्य की राह बता सकता है, वह भारत जैसा जीवंत लोकतंत्र ही हो सकता है। इसने विविधता को सहेजा भी है, मुखरता को स्थान भी दिया है। दूसरी बात कि ड्रैगन जैसी उन्मादी, बेचैन व्यवस्था, जो एक खास पार्टी, विचारधारा से परे नहीं सोचती, को भी यदि संतुलित रखना है तो वह यात्रा भी भारत के बिना पूरी नहीं हो सकती।
टिप्पणियाँ