इष्ट देव सांकृत्यायन
दिग्विजय सिंह ने पाकिस्तानी पत्रकार से क्लब हाउस पर बातचीत के दौरान जो कहा है, वह कांग्रेस और तथाकथित सेकुलर पार्टियों के नेताओं के लिए कोई नई बात नहीं है। दिग्विजय सिंह ने कहा कि यदि कांग्रेस सत्ता में लौटती है तो वह अनुच्छेद 370 की वापसी पर विचार करेगी।
दिग्विजय सिंह ने पाकिस्तानी पत्रकार से क्लब हाउस पर बातचीत के दौरान जो कहा है, वह कांग्रेस और तथाकथित सेकुलर पार्टियों के नेताओं के लिए कोई नई बात नहीं है। दिग्विजय सिंह ने कहा कि यदि कांग्रेस सत्ता में लौटती है तो वह अनुच्छेद 370 की वापसी पर विचार करेगी। उन्होंने यह भी कहा कि जिस समय 370 हटाया गया, उस समय राज्य में लोकतंत्र नहीं था, इसीलिए नेताओं को सलाखों के पीछे करने में इंसानियत भी नहीं दिखाई गई।
अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाने को लेकर अपने को सेकुलर बताने वाली सभी पार्टियों का मत लगभग यही है। यद्यपि उस समय कांग्रेस से ही संबद्ध कई नेताओं ने अनुच्छेद 370 हटाए जाने का स्वागत किया था। कांग्रेस के ही नेता जनार्दन द्विवेदी ने तो 370 को लेकर सरकार के निर्णय का स्वागत करते हुए यहां तक कहा था, “एक भूल जो आजादी के समय हुई थी, उस भूल को देर से सही, सुधारा गया।” कमोबेश यही टिप्पणी ज्योतिरादित्य सिंधिया की भी थी। डॉ. कर्ण सिंह के विचार भी थोड़ी दबी ज़बान में यही थे। लेकिन ऐसे नेताओं की संख्या आप गिनने बैठें तो उंगलियां भी बहुत कम पड़ेंगी।
दिग्गी का बयान कांग्रेस की पुरानी लाइन
निश्चित रूप से ऐसा इसीलिए था कि यह कांग्रेस और उसी की गणेश परिक्रमा में दिन-रात लगे रहने वाले तथाकथित सेकुलर राजनीतिक दलों की पार्टीलाइन नहीं थी। जिन्होंने भी अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाए जाने के पक्ष में अपने विचार रखे, उन सबके मत वस्तुतः पार्टीलाइन के विपरीत ही थे। अभी दूर जाने की जरूरत नहीं है। उसी दिन के कांग्रेस के ही कुछ अन्य बड़े नेताओं के बयानों पर ध्यान दें तो वस्तुस्थिति पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है। भारत के केंद्रीय वित्त मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर रह चुके पी. चिदंबरम ने इसे भारत के संवैधानिक इतिहास का सबसे बुरा दिन बताया था। गुलाम नबी आजाद ने तो यहां तक कह दिया था, “पांच अगस्त को हिंदुस्तान की तारीख़ में काले अक्षरों में लिखा जाएगा।" उन्होंने यह भी कहा था कि सरकार ने टुकड़े-टुकड़े करके और आर्टिकल 370 को ख़त्म करके जम्मू-कश्मीर को ही ख़त्म कर दिया है। कांग्रेस की ही सुष्मिता देव ने तो बीबीसी से बातचीत में कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा पारित प्रस्ताव का हवाला भी दिया था। उसी हवाले से उन्होंने कहा था कि भाजपा सरकार का यह निर्णय ‘एकतरफा, अलोकतांत्रिक और बेशर्मी से भरा हुआ’ है। इस प्रस्ताव को कार्यसमिति ने सर्वसम्मति से पारित किया था। स्पष्ट है कि यही पार्टी की आधिकारिक राय थी। दिग्विजय सिंह केवल बताना चाहते हैं कि यही पार्टी की स्पष्ट राय है भी और यही पार्टी की स्पष्ट राय बनी भी रहेगी।
यह अलग बात है कि आने वाले चुनावों के दौर में जहाँ यह कहने से मतदाताओं के रुष्ट हो जाने का भय हो, वहाँ वे अपनी राय बदल लेंगे। बिलकुल वैसे ही जैसी राहुल गांधी कभी-कभी किसी मंदिर चले जाते हैं और जनेऊ भी पहन लेते हैं। यह कभी-कभी होने वाली बात कभी-कभी वाला ही मत है। इसे कभी भी चिरकालिक, स्थायी या सही नहीं माना जा सकता। कांग्रेस और उसके सहयोगियों की स्थाई राय तो वही है जो दिग्विजय जी ने कही कि यह फैसला जम्हूरियत, इंसानियत और कश्मीरियत के दायरे में नहीं हुआ। और यह भी कि अगर हम पावर में आएंगे तो 370 बहाल करने पर सोचेंगे।
प्रस्तावना में संशोधन पर अब तक कोई सवाल नहीं
इस विषय पर सोचने की आवश्यकता है कि अगर जनता के स्पष्ट बहुमत से बनी सरकार द्वारा संसद के दोनों सदनों से पारित किए गए निर्णय में भी जम्हूरियत यानी लोकतंत्र नहीं है, तो फिर आखिर लोकतंत्र है कहाँ? लोकतंत्र और किसे कहते हैं? लोकतंत्र के प्रति कांग्रेसियों की चिंता उस समय कहाँ चली गई थी जब संविधान की आत्मा से ही छेड़छाड़ की गई और आश्चर्य है कि अभी तक उस पर किसी भी तरफ से सुविचारित और सुनियोजित तरीके से कोई प्रश्न नहीं उठाया गया। यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि देश के संविधान की प्रस्तावना में ही दो नए शब्द ‘धर्मनिरपेक्षता’ (Secularism) और ‘समाजवाद’ (socialism) उस समय जबरिया घुसेड़े गए जबकि संसद का कार्यकाल बीत चुका था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हाईकोर्ट द्वारा अपना निर्वाचन अवैध घोषित किए जाने के बाद इमरजेंसी लगाकर सत्ता पर अपना कब्जा बनाए रहीं। इसमें कौन सा लोकतंत्र था? कौन सी इंसानियत और कौन सी शर्म बची थी? अपना कार्यकाल पूरा चुकी अर्थात विधिक रूप से देखें तो भंग हो चुकी संसद द्वारा संविधान की प्रस्तावना जैसी मूलभूत वस्तु में जब ये शब्द जोड़े गए, तब कौन सा लोकतंत्र था और कौन सी मनुष्यता या शर्म शेष रह गए थे?
सेंट्रल विस्टा, कुंभ सुपरस्प्रेडर, किसान आंदोलन टूलकिट का हिस्सा
वास्तव में तो टूलकिट से लैस कुलविशेष के चाकर इस बात को कभी समझ ही नहीं सकते कि लोकतंत्र है क्या चीज और इंसानियत यानी कि मनुष्यता कहते किसे हैं। शर्म के बारे में तो खैर इनसे कोई अपेक्षा ही अवैध होगी। यह इसी के तहत होता है कि बड़ी संख्या में इधर-उधर किराये पर चल रहे सरकारी दफ्तरों का अरबों रुपये का किराया बचाने के लिए बनाई जा रही सेंट्रल विस्टा को मोदी का निजी घर बताने का दुष्प्रचार किया जाता है। भारत की सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़े कुंभ जैसे पवित्र महापर्व को सुपर स्प्रेडर बताने का षड्यंत्र किया जाता है। सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क को पूरी तरह धता-बताते हुए मनाई जाने वाली ईद को खुशनुमॉ सामाजिक सभा बताया जाता है। दिन-रात केवल देश का हित सोचने वाले मोदी की छवि खराब करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मीडिया का दुरुपयोग करने का षड्यंत्र केवल रचा ही नहीं जाता, उसके क्रियान्वयन का पूरा प्रयास होता है। आश्चर्य होता है कि उसी टूलकिट के आधारभूत पुरजे बन चुके कुछ अत्यंत कृतज्ञ पत्रकार कुछ मामलों में अपने कांग्रेसी नेताओं से भी आगे निकल जाते हैं।
एक ऐसे समय में कुछ अराजक तत्वों की भीड़ जुटाकर नगरिकों के लिए अकारण परेशानी पैदा की जाती है, जब भीड़ जुटाना ही सबसे खतरनाक हो। ऐसे अराजक तत्वों को, जिनके बेहिसाब उपद्रव ने राष्ट्रीय प्रतीकों तक को नहीं छोड़ा, किसान बताया जाता है और उनके दुराग्रहपूर्ण उपद्रव को ही किसान आंदोलन का नाम दिया जाता है। एक ऐसा कलंक भारत के उज्ज्वल चरित्र भोले किसानों पर मढ़ने का षड्यंत्र रचा जाता है जिससे किसानों का कोई लेना-देना ही नहीं है। यह सब उसी टूलकिट का हिस्सा है। इन सारी बातों को समग्रता में देखते हुए सोचें तो स्पष्ट हो जाता है कि कश्मीर की शांति और तेजी से हो रहा विकास कांग्रेस के नेताओं को रास नहीं आ रहा है। देश की खुशहाली तो इन्हें कभी रास आ ही नहीं सकती। अगर ऐसा होता तो क्या ये कोविड की वैक्सीन जैसी अत्यावश्यक चीज को लेकर तरह-तरह की अफवाहें फैलाते? लेकिन ये तो अफवाहें फैलाने तक ही नहीं रहे, इन्होंने तो सारी हदें पार कर दीं। कांग्रेस शासित राज्यों का हाल यह रहा कि कहीं तो इन्होंने वैक्सीन की शीशियाँ कूड़े में फेंक दीं, कहीं जमीन में गाड़ दीं और कहीं नहर में बहा दीं। इतना ही नहीं, यह तक हुआ कि सरकारी अस्पतालों में लगाने के लिए केंद्र से भेजी वैक्सीन कांग्रेस शासित राज्य में निजी अस्पतालों को बेच दी गई और फिर निजी अस्पतालों ने उसी मुफ्त वैक्सीन के पाँच से छह गुना तक मूल्य वसूले।
यह सब तब हो रहा है जब देश वैश्विक महामारी कोरोनाजन्य लॉकडाउन के चलते पहले से ही आर्थिक बदहाली झेल रहा है। इतनी बड़ी वैश्विक महामारी जिसने कई देशों की चूलें हिला दीं, उसमें भी भारत अडिग रहा और सरकार ने अधिकांशतः वे सारे उपाय कर लिए, जो आवश्यक थे। अभी भी वह किसी तरह नागरिकों की जान बचाने और आर्थिक संसाधनों को जुटाने में लगी हुई है। किसी भी शर्त पर वह किसी के सामने हाथ पसारे बिना सब कुछ ठीक कर लेना चाहती है। लेकिन टूलकिटवादियों को इससे क्या? उन्हें तो केवल सत्ता चाहिए। सत्ता हासिल करने के लिए संविधान और देश की आत्मा का हनन भी करना पड़े तो उन्हें कोई कष्ट नहीं है। वे वह सब करेंगे और सहर्ष करेंगे जो सत्ता हासिल करने के लिए आवश्यक है।
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