महाराणा की रणनीति थी मारक

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महाराणा प्रताप को एक महान सेनानायक, कुशल सैन्य प्रबंधक एवं देश के स्वाभिमान व गौरव के रक्षक के रूप में न केवल राजस्थान, बल्कि संपूर्ण भारत में बहुत श्रद्धा एवं सम्मान के साथ जाना जाता है। उन्होंने एक ऐसी युद्धनीति एवं रणनीति की व्यवस्था की जिससे वर्षों तक मेवाड़ ने अदम्य वीरता दिखाते हुए मुगलों के विरुद्ध संघर्ष किया और उन्हें पराजित किया। महाराणा की गौरवपूर्ण गाथाएं आज भी मेवाड़ की अरावली पहाडि़यों में गुंजायमान हैं। 1572 में मेवाड़ की गद्दी पर बैठने के बाद प्रताप ने गोगुंदा को सैन्य प्रबंध की दृष्टि से अपना प्र्रमुख केंद्र बनाया। यह क्षेत्र दुर्गम पहाडि़यों से घिरा हुआ था। गोगुंदा के अतिरिक्त उदयपुर एवं कुंभलगढ़ दो अन्य प्रमुख केंद्र थे,जहां मेवाड़ की अन्य सैनिक टुकडि़यां रहती थीं।

महाराणा ने अपनी सेना को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा। प्रथम पैदल सेना एवं दूसरी घुड़सवार सेना। सेना को विभिन्न टुकडि़यों में बांटकर सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों पर तैनात किया। मेवाड़ में अरावली पर्वतमाला, सघन वन, ऊंची-नीची घाटियां, नदियां, दुर्गम संकरे मार्ग सुरक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण थे। प्रताप के लिए मुगलों के विरुद्ध मैदानी युद्ध के स्थान पर छापामार युद्ध पद्धति अधिक उपयोगी थी। इस कारण प्रताप ने मुगलों के विरुद्ध यही पद्घति अपनाई, जिसमें अरावली के दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र अधिक उपयोगी सिद्ध हुए। छापामार युद्ध नीति के अंतर्गत बाह्य आक्रमणकारियों पर अचानक हमला बोलकर किसी सुरक्षित स्थान में जाकर अपनी सुरक्षा की जाती है, फिर अचानक शत्रुदल पर दोबारा हमला कर दिया जाता है। उनकी रसद सामग्री आदि को हानि पहुंचाई जाती है। प्रताप द्वारा अपनाई गई इस युद्धनीति के कारण मुगल घुड़सवारों के लिए मेवाड़ की इन संकरी घाटियों से होकर आक्रमण करना कठिन हो गया। अपने सैन्य प्रबंध के अंतर्गत प्रताप ने ऊंचे पर्वतीय भाग के संकरे दरार्ें पर चौकियां स्थापित कीं।

इन संकरी घाटियों में द्वार लगाकर सुरक्षा की व्यवस्था की गई। इससे बाह्य आक्रमणकारियों की सेना के लिए संकरे दरार्ें से होकर निकलना कठिन हो गया। यदि आक्रमणकारियों की सेना किसी तरह इन संकरे दरार्ें को पार कर भी लेती तब भी उसे बहुत क्षति उठानी पड़ती। महाराणा प्रताप के समय देबारी, चीरवा, रेसूरी, धांगड़मऊ, ऊंदरी घाटी, हल्दी घाटी से शत्रु सेना का प्रवेश करना कठिन था। उनकी सैन्य व्यवस्था में अरावली पर्वतमाला इस प्रकार भी सहायक रही कि इस पर्वतमाला में स्थित गुफाओं में प्रताप ने अपना कोष, शस्त्र एवं अन्य साधन सामग्री जुटाई। ऐसी गुप्त कंदराओं में चावंड के पास की जावरमाला, गोगुंदा के पास मायरा और मचीन आदि की गुफाएं प्रमुख हैं।

मुगलों से संघर्ष से पूर्व प्रताप ने मेवाड़ के पहाड़ी क्षेत्र के स्थानीय निवासियों को संगठित किया, जो उनकी युद्ध नीति एवं सैन्य प्रबंध के लिए उपयोगी सिद्ध हुए। वन एवं पहाड़ी क्षेत्र में निवास कर रही भील जनजाति से प्रताप के बड़े आत्मीय संबंध थे। उन्होंने अपने सैन्य प्रबंध में इन लोगों को महत्वपूर्ण स्थान दिया। पहाड़ों पर बसे इस समुदाय के लोगों ने तीर, पत्थर आदि द्वारा मुगल आक्रमणकारियों को बहुत हानि पहुंचाई। भील जनजाति के लोग यहां की दुर्गम पहाडि़यों एवं मागार्ें से भलीभांति परिचित थे। उन्होंने प्रताप का साथ देकर मुगल आक्रमणकारियों को भीतर की ओर जाने से रोका एवं संघर्ष कर वापस लौट जाने पर मजबूर किया। प्रताप की छापामार युद्ध पद्धति में भील बहुत सहायक सिद्ध हुए। राणा के सैन्य प्रबंध के अंतर्गत रसद सामग्री उपलब्ध करवाने, संदेशवाहक का कार्य करने एवं गुप्तचर विभाग के कार्य संचालन में भीलों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आवाज के संकेत देकर मारकर अथवा ढोल बजाकर संकेत के द्वारा वे एक से दूसरी पहाड़ी पर शीघ्रता से संदेश पहुंचा देते थे। पूंजा भील जैसे प्रताप के सहयोगियों ने मेवाड़ के सुरक्षा प्रबंध में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने अपने सामंतों को उचित सम्मान प्रदान कर मुगलों के विरुद्ध संघर्ष में अपने साथ लिया। प्रताप का कुशल सैन्य प्रबंध, स्थानीय निवासियों एवं सामंतों आदि को साथ लेने की नीति, त्याग एवं देशप्रेम के कारण मुगलों के विरुद्ध प्रताप का युद्ध संपूर्ण मेवाड़ की जनता का युद्ध बन गया। प्रताप ने अपनी युद्ध नीति एवं सैन्य प्रबंध के अंतर्गत पूर्वी मैदानी भाग को उजाड़ दिया।

मेवाड़ के मैदानी भाग में रहने वाले लोगों को पहाड़ी घाटियों के कुछ भागों में बसाया गया। उन्होंने आदेश जारी करवाया कि मैदानी भाग के खेतों में अन्न उत्पादन नहीं किया जाए, जिससे शत्रु सेना को रसद सामग्री प्राप्त नहीं हो सके। पहाड़ी क्षेत्र में बसने से लोग न केवल सुरक्षित महसूस करने लगे बल्कि ऊबड़-खाबड वाले पहाड़ी क्षेत्र में खेती होने लगी और ये क्षेत्र आबाद होने लगे। अरावली पर्वत का मध्य पठारी भाग उपजाऊ था। लगातार मुगल आक्रमणों के बाद भी प्रताप ने कृषि उत्पादन की ऐसी व्यवस्था की जिससे मेवाड़ के सैनिकों को खाद्य सामग्री के संकट का सामना न करना पड़े। जब मुगलों का आक्रमण होता तब घाटियों में बसने वाले स्थानीय लोग ऊंचे पर्वतों के घने वन वाले इलाके में चले जाते और रसद सामग्री आदि अपने साथ ले जाते। रसद सामग्री के अभाव में शत्रु की सेना कठिनाइयों से घिरने लगी।

हल्दीघाटी के युद्ध के समय पहले मोर्चे में राजपूत सैनिकों ने पहाड़ी नाकों से नीचे उतरकर मुगल सैनिकों पर आक्रमण कर दिया। इतिहासकार अब्दुल कादिर बदायूंनी, जो स्वयं इस युद्ध में मुगल सेना की ओर से लड़ रहा था, भाग खड़ा हुआ।

पहले मोर्चे में सफल होने से राजपूत सैनिक 3 बनास नदी के कांठे वाले मैदान में आ गए, जिसे रक्त तलैया कहा जाता है। मुगल सेना मैदानी युद्ध की अभ्यस्त थी। हल्दीघाटी के युद्ध में राणा ने घायल होने के बाद भी धैर्य रखते हुए अपनी लंबी सैन्य रणनीति के तहत मैदानी इलाके से पहाड़ों की ओर जाने का निश्चय किया। यहां रसद सामग्री, जल, औषधियां आदि उपलब्ध थी। कोल्यारी गांव पहुंचकर उन्होंने अपने घायल सैनिकों का इलाज करवाया और कोल्यारी गांव के निकट कमलनाथ पर्वत पर स्थित आवरगढ़ में सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से अपनी अस्थायी राजधानी स्थापित की। गोगुंदा के निकट मजेरा गांव के पास रणेराव के तालाब पर प्रताप ने अपनी सैनिक छावनी बनाई, जहां से मैदानी भाग में अपने सैनिकों को भेजकर मुगल सैन्य चौकियों को नष्ट किया और वहां से मुगलों को मार भगाया।
इसके बाद कंुभलगढ़ को अपना निवास स्थान बनाकर इसकी किलेबंदी करवाई।

1576-85: युद्ध नीति एवं सैन्य प्रबंध
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद जब मुगल सेना अपने डेरे में लौटी तब भीलों ने उन्हें रातभर लूटा। घात-प्रत्याघात की विधि से उन्हें चैन न लेने दिया। प्रताप के अधिकारियों ने गोगुंदा को खाली करवा दिया था। युद्ध के अगले दिन मुगल सेनापति मानसिंह अपने सैनिकों के साथ गोगुंदा आया। वह अचानक आक्रमण की संभावना से भयभीत रहा। इसलिए वह खाइयां खुदवाकर एवं दीवार बनवाकर किसी तरह रहने लगा।

प्रताप ने गिरवा के पहाड़ी क्षेत्रों के नाकों पर सिपाहियों को लगाया, जिन्होंने गोगुंदा में ठहरी हुई मुगल सेना की रसद बंद कर दी। मुगल सेना को रसद पहुंचाने वाले बंजारों को रोकने के लिए गोगुंदा पहुंचने के सभी मार्ग अवरुद्ध कर दिए गए। मुगल सैनिक एक प्रकार से यहां कैदियों की तरह जीवन व्यतीत करने लगे। अपने घोड़ों एवं ऊंटों को मारकर खाने लगे़।

मुगल सैनिकों को रोटी न मिलने पर उन्हें जानवरों का मांस एवं आम के फलों पर जीवित रहना पड़ा। परिणामत: बहुत से सैनिक रोगग्रस्त हो गए। सैनिकों की स्थिति दयनीय थी। मानसिंह गोगुंदा में तीन माह व्यतीत करने के बाद भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाया। भगवान दास, मानसिंह, मिज़र खानखाना, कासिम खां आदि गोगुंदा पर कब्जा करने के लिए भेजे गए।

स्वयं अकबर हल्दीघाटी के युद्ध के बाद 3 अक्तूबर, 1576 को गोगुंदा पहंचा। वह इधर-उधर राणा की तलाश करता रहा परंतु अपने प्रयत्नों में विफल होकर गुजरात की ओर निकल गया।

मुगल सैनिकों के गोगुंदा से निकलने के बाद प्रताप ने कुंभलगढ़ से लेकर सराड़ा तक तथा गोडवाल से लेकर आसींद और भैंसरोडगढ़ के पहाड़ी नाकों पर भीलों की विश्वस्त टोलियों को बसा दिया। भील शत्रु को भीतर आने से रोकते थे। प्रताप ने इन भील रक्षकों के साथ अपने अन्य सैनिक भी इन नाकों पर लगाए। जैसे-जैसे मुगल आक्रमणों में शिथिलता आई, महाराणा प्रताप मेवाड़ की खोई हुई भूमि पर पुन: अधिकार स्थापित करने चले गए। 1576 एवं 1585 के बीच अकबर द्वारा अपने चार विश्वसनीय सेनानायकों के नेतृत्व में सात बार मुगल सेना मेवाड़ के विरुद्ध भेजी गई।

अकबर के इन सेनानायकों को सफलता नहीं मिली। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद प्रताप ने कुंभलगढ़ से लेकर ऋषभदेव के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में मुगलों से संघर्ष किया। प्रताप की रक्षात्मक युद्ध नीति में मुगल आधिपत्य वाले प्रदेशों में अचानक आक्रमण करने की नीति सम्मिलित थी। जब मुगल सैनिक कुंभलगढ़, गोगुंदा आदि स्थानों में संघर्ष करते उस समय प्रताप की सैनिक टुकडि़यां मालवा, गुजरात आदि के प्रदेशों पर आक्रमण कर देती थी। वे कई दिनों तक अपने परिवार के साथ एक लुहार के यहां ठहरे। वे लगातार अपना स्थान बदलते रहे। कभी किसी पहाड़ी पर रहते, तो कभी दूसरी पहाड़ी पर चले जाते थे। उन्होंने छापामार युद्ध प्रणाली के अंतर्गत ही ऐसी रणनीति बनाई। मुगल मैदानी युद्ध करने में निपुण थे। इस कारण वे इन पहाड़ी इलाकों में सफल नहीं हो सके।

1585 से 1597 तक प्रताप ने दक्षिण पर्वतीय दुर्गम क्षेत्र में चावण्ड को अपनी राजधानी बनाया जहां मुगल सेना का पहुंचना बहुत कठिन था। उन्होंने मेवाड़ के पश्चिम-दक्षिण भाग के छप्पन के इलाके पर आधिपत्य स्थापित किया। चावण्ड के इलाके में महलों का निर्माण करवाया। प्रताप द्वारा चावण्ड को अपनी राजधानी बनाने से अकबर की मेवाड़ को घेर कर एकाकी करने की नीति सफल नहीं हो पाई।

चावण्ड में रहने से प्रताप का सिरोही, ईडर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, गुजरात आदि के प्रदेशों से निकट संबंध बना रहा और उनका मेवाड़ से बाहर निकलकर गुजरात एवं मालवा के क्षेत्रों पर अचानक आक्रमण करना सरल हो गया। पहाड़ों पर निवास करते हुए उन्होंने उन स्थानों पर पुन: लोगों को बसाया एवं खेती प्रारंभ करवाई, जिन स्थानों को या तो शत्रुओं को रसद सामग्री आदि प्राप्त न हो इसलिए नष्ट कर दिया गया था या शत्रुओं ने उन स्थानों पर आग लगा दी थी। हमें ऐसे अनेक गांवों के उदाहरण मिलते हैं जिन्हें प्रताप ने पुन: बसाकर आबाद करवाया। पीपली, ढोलान, टीकड़ आदि गांवों को बसाकर यहां के लोगों को पट्टे प्रदान किए गए। महाराणा प्रताप ने सैन्य सुरक्षा की दृष्टि से अपने पड़ोसी राजपूत राज्यों से मधुर संबंध बनाकर मुगल गतिविधियों के विरुद्ध उनका सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया। मित्रता की कड़ी में उन्होंने सिरोही के राव सुल्तान से वैवाहिक संबंध स्थापित किए।अपने सैन्य प्रबंध के अंतर्गत पूंजा भील जैसे कई भील योद्धाओं एवं हाकिम खां सूर जैसे मुस्लिम सेनापतियों को उच्च स्थान देकर सामिाजक समरसता एवं मजहबी सहिष्णुता का परिचय दिया।

प्रताप के बारे में ‘तारीख-ए-अकबरी’ के लेखक हाजी मोहम्मद आरिफ कंधारी ने लिखा है, ”प्रताप अपने समस्त साथियों तथा समकालियों से गर्व करता था कि मैं किसी के अधीन नहीं हूं। आज तक कोई बादशाह अपनी लगाम की डोरी से उसके कान नहीं छेद सका तथा इस्लाम राज्य का उस देश में पदार्पण नहीं हुआ था। न जाने कितने बादशाह तथा सुल्तान उस प्रदेश को जीतने के लिए परेशानी तथा हसरत के साथ मर गए।

इस प्रकार महाराणा प्रताप ने हल्दी घाटी के युद्ध (1576) से मृत्यु-पर्यंत (1597) अपना जीवन पर्वतीय क्षेत्र में व्यतीत कर लंबे संघर्ष के लिए बनाई गई नूतन युद्ध नीति एवं सैनिक प्रबंध का कुशलता से संचालन किया। इसका अवलंबन आगे चलकर वीर शिवाजी ने किया।
डॉ. शिवकुमार मिश्रा
(लेखक राजकीय कला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कोटा में इतिहास विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं)

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