जैसा कि आशा पूरा विश्व काफी समय से कर रहा था, उसी के अनुरूप अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बाइडेन ने अपने राष्ट्र को संबोधित करते हुए घोषणा की है कि सितंबर 2021 में अफगानिस्तान से वह अपनी सेना वापस बुला लेंगे और 11 सितंबर तक उनका आखिरी सैनिक अफगानिस्तान को छोड़ देगा . पिछले 20 साल में अमेरिका ने अफगानिस्तान में करीब 2 ट्रिलियन डॉलर धन और उसके करीब 5000 सैनिक इस युद्ध की भेंट चढ़ चुके हैं. इसके साथ-साथ अफगानिस्तान में चल रहे गृह युद्ध में 157000 अफगान नागरिक भी मारे जा चुके हैं. अफगानिस्तान को छोड़ने की घोषणा के साथ राष्ट्रपति बाइडेन ने अफगानिस्तान के आसपास के देशों जैसे पाकिस्तान, भारत, चीन, तुर्की, ईरान तथा रूस से आशा कि है कि वे अफगानिस्तान को गृह युद्ध से बचाएंगे और तालिबान तथा अन्य आतंकी संगठनों को किसी प्रकार का सहयोग नहीं देंगे ! यहां पर वह इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं कि उनका सबसे पसंदीदा देश पाकिस्तान इन आतंकी संगठनों का जन्मदाता होने के साथ-साथ इनके द्वारा पूरे दक्षिण एशिया में अशांति फैलाता है और यह पाकिस्तान की सेना की राष्ट्रीय नीति बन चुका है. राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा है कि यदि गृह युद्ध जैसी स्थिति दोबारा बनेगी तो 70 के दशक की तरह अफगानिस्तान के शरणार्थी आसपास के देशों में शरण लेंगे और इसके अलावा आतंकी संगठन अल कायदा और तालिबान धन एकत्रित करने के लिए नशीले पदार्थों की तस्करी का नेटवर्क पूरे दक्षिण एशिया में स्थापित करेंगे क्योंकि अफगानिस्तान अफीम उगाने वाला विश्व का एक बड़ा देश है और देखने में आया है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के आतंकी संगठन नशीले पदार्थों की तस्करी हिंसा की धमकी द्वारा करते रहते हैं.
यहां पर यह विचारणीय है कि दक्षिण एशिया के इस पूरे क्षेत्र में संगठित आतंकवाद की शुरुआत कैसे हुई. 70 के दशक में जब विश्व में शीत युद्ध चरम पर था तथा पूरा विश्व अमेरिका तथा सोवियत संघ के अलग-अलग खेमों में बटा हुआ था. उस समय अफगानिस्तान में 1973 में वहां के शासक जहीर शाह को सत्ता से हटाकर सोवियत संघ की मदद से कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ अफगानिस्तान ने काबुल में सत्ता पर कब्जा कर लिया था. अमेरिका ने इसे सीधे-सीधे अपने लिए रूस द्वारा दी गई चुनौती माना. इसलिए अमेरिका ने नाटो देशों की मदद से पाकिस्तान को प्रथम पंक्ति का देश बना कर अफगानिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के विरुद्ध गृह युद्ध प्रारंभ कर दिया. उस समय कम्युनिस्ट पार्टी का शासन केवल शहरों और विकसित क्षेत्रों तक ही सीमित था,परंतु दूरदराज के इलाकों में वहां के आत्मघाती अफगानी पठानों का कब्जा था. अमेरिका और पाकिस्तान की मदद से इन लड़ाकों ने कम्युनिस्ट पार्टी को सत्ता से बेदखल करने की स्थिति पैदा कर दी. इसको देखते हुए सोवियत संघ ने दिसंबर 1979 मे अपनी 40 आर्मी को अफगानिस्तान में भेजा जिसने काबुल पर कब्जा करके पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान को सत्ता सौंप दी थी. रूसी सेना के अफगानिस्तान में इस प्रकार आने के बाद अमेरिका ने रूस के विरुद्ध खुलकर युद्ध की घोषणा कर दी. रूसी सेनाओं को अफगानिस्तान से भगाने के लिए पाकिस्तान में तथा अफगानिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों में आतंकी प्रशिक्षण केंद्र शुरू कर दिए. इस पूरे ऑपरेशन को अमेरिका की सीआईए नियंत्रित कर रही थी, जो इन लड़ाकों को प्रशिक्षण हथियार तथा धन उपलब्ध कराती थी. सीआईए के इशारों पर पाकिस्तानी सेना ने पूरे पाकिस्तान में आतंकी प्रशिक्षित करने के लिए वहां के मदरसों को प्रशिक्षण केंद्रों के रूप में परिवर्तित कर दिया. इस प्रकार पाकिस्तान के बेरोजगार नौजवान जिन्हें देश के आर्थिक विकास में सहयोग करना चाहिए था वह आतंकवाद रूपी विनाश के मार्ग पर चलने लगे. दुर्भाग्य से 1978 में पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक ने मिलिट्री शासक के रूप में पाकिस्तान की सत्ता हथिया ली थी. जियाउल हक इस्लाम की बात करके वहां के मजहबी मुल्लाओं को और जनता को अपने साथ रखना चाह रहे थे. इसके लिए उन्होंने देश में कट्टर इस्लामिक विचारधारा को फैलाना शुरू कर दिया था. ऐसी स्थिति में पूरे पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरपंथी आतंकी संगठनों को वह बढ़-चढ़कर प्रोत्साहित कर रहे थे. इस प्रकार आतंकी संगठनों को आतंकी पर्याप्त संख्या में मिल रहे थे. ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के तालिबान और ओसामा बिन लादेन के अल कायदा आतंकियों ने अफगानिस्तान के भीतरी हिस्सों में रूसी सेना पर हमले शुरू कर दिए. जिससे तंग आकर दिसंबर 1989 मे रूसी सेनाओं ने अफगानिस्तान से वापस जाने का निश्चय कर लिया. इसे अमेरिका और पाकिस्तान अपनी विजय मान रहे थे. रूसी सेनाओं के जाने के बाद विश्व में पहली बार औपचारिक रूप से आतंकी संगठनों तालिबान और अल कायदा को अमेरिका और पाकिस्तान की मदद से सत्ता सौंप दी गई. अल कायदा द्वारा अफगानिस्तान में वहां की जनता पर इस्लाम के नाम पर तरह-तरह के अत्याचार करने के कारण अमेरिका और अलकायदा में तनाव बढ़ने लगा और स्थिति इतनी बिगड़ गई की 9/11 वाला आतंकी हमला अमेरिका के विश्व व्यापार केंद्र पर अलकायदा ने किया. पूरे विश्व का यह सबसे बड़ा आतंकी हमला था. इस हमले में अमेरिका को बहुत अधिक धन की हानि हुई और उसके 3000 नागरिक इसमें मारे गए. इसको देखते हुए फौरन अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अमेरिकी वायुसेना को अफगानिस्तान में अलकायदा के ठिकानों को बर्बाद करने के निर्देश दिए. इसके साथ साथ ही नाटो देशों की सेनाओं के साथ अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में पहुंच गई. जिसने तालिबानियों को सत्ता से हटाकर निर्वाचित सरकार को सत्ता सौंपी. परंतु 2001 से लेकर अब तक अमेरिकी सेना पूरे समय अफगानिस्तान के देहातों और दूरदराज के क्षेत्रों में छिपे हुए तालिबान और अल कायदा आतंकियों से युद्ध करती रही. जिसमें उसके सैनिक लगातार मारे जाते रहे. अमेरिका में सरकार की नीतियों की विवेचना आम जनता करती है और वहां की आम जनता ने अमेरिकी सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया कि अमेरिकी सेनाओं को अफगानिस्तान से वापस बुला लिया जाना चाहिए. इसको देखते हुए ही चुनाव के समय किए हुए अपने वादे के अनुसार राष्ट्रपति बाइडेन ने सेनाओं को अफगानिस्तान से वापस का आदेश जारी कर दिया है. जबकि पूरा विश्व आशा कर रहा था कि अमेरिका आतंकवाद की जड़ों को अफगानिस्तान से उखाड़ देगा और पाकिस्तान को भी आतंकवाद को समाप्त करने के लिए दबाव डालेगा, परंतु पाकिस्तान में चल रहे आतंकी कैंपों और उसकी गतिविधियों के कारण यह साफ हो जाता है कि अमेरिका ने पाकिस्तान पर पर्याप्त दबाव आतंकवाद को रोकने के लिए नहीं डाला है. आतंकवाद को रोकने के लिए गठित अंतरराष्ट्रीय आर्थिक कंट्रोल ग्रुप अभी तक पाकिस्तान के विरुद्ध कोई सख्त कदम नहीं उठा पाया है क्योंकि इसके पीछे चीन का हाथ है. जो इस दल को पाकिस्तान के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करने से रोक रहा है. इसलिए इस क्षेत्र में अभी तक आतंकवाद पर लगाम नहीं लगी है. उपरोक्त विवरण से साफ हो जाता है कि विश्व में संगठित आतंकवाद को जन्म और बढ़ावा देने में अमेरिका और पाकिस्तान ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है और अब यदि विश्व में आतंकवाद को रोकना है तो इन दोनों देशों को इसमें पहल करनी चाहिए
ऐसी स्थिति में अमेरिका द्वारा इस प्रकार अफगानिस्तान से बाहर निकलने के परिणामों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अफगानी सरकार इन खूब ख्वार और आत्मघाती तालिबानी और अलकायदा आतंकियों के सामने ज्यादा दिन नहीं टिक पाएगी. अमेरिका की इस घोषणा को देखते हुए पाकिस्तानी सेना ने इन आतंकवादियों के साथ अपने संबंध बनाने भी शुरू कर दिए हैं. जिससे वह इस पूरे क्षेत्र में तनाव की स्थिति बनाकर अपना महत्व विश्व को दिखा सके. भारत ने 2001 के बाद से अफगानिस्तान में काफी विकास कार्य किए हैं. अफगानिस्तान की पार्लियामेंट बिल्डिंग का निर्माण भी भारत ने ही किया है, इस कारण अफगानिस्तान की जनता भारत को अपना हितैषी मानते हुए लगाव महसूस करती है. यदि अफगानिस्तान में आतंकवाद दोबारा से 70 और 80 के दशक की तरह सिर उठाएगा तो इससे पूरे क्षेत्र में तनाव बढ़ेगा और पड़ोसी देशों में आतंकी हिंसा बढ़ेगी और छोटे देशों में सरकारों पर भी कब्जा करने की कोशिश आतंकी संगठन करेंगे . ऐसी स्थिति में अमेरिका के द्वारा पड़ोसी देशों को जो आमंत्रण मिला है उसमें अमेरिका कल्पना कर रहा है कि पड़ोसी देश अफगानिस्तान में अपनी सेनाएं भेजेंगे. परंतु अमेरिका के इस बुलावे को भारत को स्वीकार नहीं करना चाहिए क्योंकि अमेरिका जैसा साधन संपन्न और शक्तिशाली देश जब इन आतंकियों पर लगाम नहीं लगा सका तब भारत वहां पर ज्यादा कुछ नहीं कर पाएगा. इसका मुख्य कारण है कि पाकिस्तानी सेना भारतीय सेना को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानती है. इसलिए जब भी भारतीय सेना कुछ करेगी पाकिस्तानी सेना उसका विरोध करेगी. इस प्रकार भारत के लिए एक नया रण क्षेत्र तैयार हो जाएगा. इसी को देखते हुए भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत ने कहा है कि अफगानिस्तान केवल अफ़गानों के लिए होना चाहिए.
कर्नल शिवदान सिंह
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