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काशी विश्वनाथ मंदिर : मिटेगा अन्याय जीतेगी आस्था

अरुण कुमार सिंह by अरुण कुमार सिंह
Apr 20, 2021, 12:32 pm IST
in भारत, उत्तर प्रदेश
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अरुण कुमार सिंह

गत 8 अप्रैल को भारत के इतिहास में एक और महत्वपूर्ण घटना घटी। यह घटना थी वाराणसी के एक न्यायालय द्वारा काशी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को सर्वेक्षण करने की अनुमति देना। न्यायालय ने कहा कि सर्वेक्षण का सारा खर्चा सरकार उठाएगी। इसके साथ ही न्यायालय ने एएसआई को यह सुनिश्चित करने को कहा है कि मस्जिद को कोई नुकसान न हो। उल्लेखनीय है कि न्यायालय में वाराणसी के प्रसिद्ध अधिवक्ता विजय शंकर रस्तोगी एवं अन्य ने काशी विश्वनाथ मंदिर का पक्ष रखते हुए निवेदन किया था कि मंदिर के पुरातात्विक साक्ष्य के लिए ज्ञानवापी परिसर का सर्वेक्षण करना न्यायोचित है।

बता दें कि इस संबंध में विजय शंकर रस्तोगी ने 10 दिसंबर, 2019 को वाराणसी के सिविल जज की अदालत में स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वर की ओर से एक आवेदन दिया था। आवेदन में कहा गया था कि मौजा शहर खास स्थित ज्ञानवापी परिसर के प्लाट नंबर 9130, 9131, 9132 रकबा एक बीघा नौ बिस्वा जमीन का पुरातात्विक सर्वेक्षण रडार तकनीक से करके यह बताया जाए कि जो जमीन है, वह मंदिर का हिस्सा है या नहीं। साथ ही विवादित ढांचे का फर्श तोड़कर देखा जाए कि 100 फीट ऊंचा ज्योतिर्लिंग स्वयंभू विश्वेश्वरनाथ वहां मौजूद हैं या नहीं। दीवारें प्राचीन मंदिर की हैं या नहीं।

आवेदन में यह भी दावा किया गया है कि काशी विश्वनाथ मंदिर के अवशेषों से ही ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण हुआ था। इन सब बातों पर गौर करने के बाद न्यायाधीश आशुतोष तिवारी ने आदेश दिया कि सर्वेक्षण के लिए एएसआई के महानिदेशक पुरातत्व विशेषज्ञों के एक पांच सदस्यीय दल का गठन करें। इसमें दो सदस्य मुस्लिम हों। हालांकि अदालत ने इस बारे में कोई समय-सीमा नहीं दी है।

न्यायालय के इस आदेश का स्वागत करते हुए अधिवक्ता विजय शंकर रस्तोगी ने कहा है, ‘‘पुरातात्विक सर्वेक्षण के बाद यह साफ हो जाएगा कि विवादित स्थल कोई मस्जिद नहीं, बल्कि आदि विश्वेश्वर महादेव का मंदिर है।’’ वहीं न्यायालय के इस आदेश के बाद सेकुलर जमात में जबर्दस्त खलबली है। माकपा ने कहा है, ‘‘वाराणसी की सिविल कोर्ट ने ज्ञानवापी मस्जिद में एएसआई को पुरातात्विक सर्वेक्षण करने की अनुमति देकर कानून का उल्लंघन किया है।’’ वहीं वकील प्रशांत भूषण लिखते हैं, ‘‘काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी मस्जिद विवाद पर वाराणसी कोर्ट ने एएसआई को सर्वेक्षण की मंजूरी दे दी है। यह धार्मिक स्थल (विशेष प्रावधान) 1991 के विरुद्ध और हानिकारक है। इस पर उच्च न्यायालय को तुरंत रोक लगानी चाहिए।’’

इन सेकुलरों की छटपटाहट ही यह बताने के लिए काफी है कि न्यायालय का उपरोक्त आदेश कितना बड़ा और महत्वपूर्ण है। इस मामले में वादी के तौर पर स्वयंभू भगवान विश्वेश्वर काशी विश्वनाथ और दूसरा पक्ष अंजुमन इंतजामिया मसाजिद और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड है।

मामला ऐसे पहुंचा न्यायालय
1991 में सिविल जज (सीनियर डिवीजन), वाराणसी की अदालत में एक वाद (610/1991) स्वयंभू विश्वेश्वर, पं. सोमनाथ व्यास, डॉ. रामरंग शर्मा और पं. हरिहर पांडेय की ओर से दाखिल किया गया। अधिवक्ता विजय शंकर रस्तोगी के माध्यम से दायर इस वाद में ‘अंजुमन इंतजामिया मसाजिद’ और ‘उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड, लखनऊ’ को प्रतिवादी बनाया गया था। वाद में कहा गया था कि विवादित क्षेत्र स्वयंभू विश्वेश्वर मंदिर का ही भाग है, इसलिए वह समूचा क्षेत्र हिंदुओं को सौंप दिया जाए, ताकि हिंदू निर्बाध रूप से वहां विराजमान भगवान शिव के दर्शन और पूजा-पाठ कर सकें तथा मंदिर की मरम्मत आदि भी करा सकें। लेकिन मुस्लिम पक्ष ने इस वाद का यह कहते हुए विरोध किया कि यह धार्मिक स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम-1991 के विरुद्ध है। उल्लेखनीय है कि इस अधिनियम के अनुसार किसी भी धार्मिक स्थल की धार्मिक स्थिति वही बनी रहेगी, जो 15 अगस्त, 1947 को थी। लेकिन हिंदू पक्ष ने अदालत में तर्क दिया कि सतयुग से अब तक काशी विश्वनाथ मंदिर की धार्मिक स्थिति नहीं बदली है। उसने यह भी कहा कि जबरन मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना देने से सदियों पुराने किसी भी मंदिर की धार्मिक मान्यता नहीं बदली जा सकती।

हिंदू पक्ष ने यह भी कहा कि धार्मिक स्थल (विशेष प्रावधान) 1991 जरूर यह कहता है कि 15 अगस्त, 1947 को जिस धर्मस्थल की जो स्थिति थी, वह बनी रहेगी, लेकिन वह अधिनियम यह साफ नहीं करता कि किसी धार्मिक स्थल की स्थिति 15 अगस्त, 1947 से पहले क्या थी? हिंदू पक्ष का यह भी कहना था कि किसी धार्मिक स्थिति का आंकलन किसी मजहबी ढांचे को देखकर नहीं किया जा सकता। इसका आंकलन उस धार्मिक स्थल के साक्ष्यों के आधार पर किया जाना चाहिए। इस तर्क को वाराणसी के सिविल जज (सीनियर डिवीजन) ने भी माना था। इसके बाद उन्होंने 1997 में हिंदुओं के पक्ष में निर्णय दिया था। इस निर्णय को मुस्लिम पक्ष ने वाराणसी के प्रथम अपर जिला न्यायाधीश के न्यायालय में चुनौती दी। इस पर सुनवाई हुई और 1998 में मुस्लिम पक्ष की याचिका खारिज हो गई। यानी एक बार फिर से हिंदुओं के पक्ष में निर्णय आया। इसके बाद मुस्लिम पक्ष इलाहाबाद उच्च न्यायालय पहुंचा। 1998 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वाराणसी की निचली अदालत के निर्णय पर रोक लगा दी। यह रोक कुछ दिन पहले तक रही। इसी बीच 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में स्पष्ट किया कि किसी मामले में किसी भी उच्च न्यायालय का स्थगनादेश केवल छह महीने तक वैध है। इसके बाद हिंदू पक्ष 10 दिसंबर, 2019 को पुन: एक बार वाराणसी की अदालत में पहुंचा और एक आवेदन दिया। इसमें न्यायालय से निवेदन किया गया कि सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्टीकरण के बाद उच्च न्यायालय का स्थगनादेश प्रभावी नहीं रहा। अत: इस संबंध में आगे की कार्रवाई शुरू की जाए। चूंकि इस मामले के दो पक्षकार (पं. सोमनाथ व्यास और डॉ. रामरंग शर्मा) अब इस दुनिया में नहीं रहे। इसलिए 2019 में न्यायालय ने इस पक्ष के वकील विजय शंकर रस्तोगी को स्वयंभू विश्वेश्वर का वाद मित्र माना और आगे की कार्रवाई शुरू की। यह कार्रवाई लगभग सवा साल चली और अंत में 8 अप्रैल, 2021 को न्यायालय ने ज्ञानवापी मस्जिद परिसर का सर्वेक्षण कराने का आदेश दिया।

मंदिर का इतिहास
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में विश्वनाथ मंदिर का स्थान सर्वोेपरि माना जाता है। मान्यता है कि काशी ही भगवान शिव और माता पार्वती का आदिस्थान है। काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण 2050 साल पहले महाराज विक्रमादित्य ने करवाया था। पहली बार 12वीं शताब्दी में इस मंदिर का विध्वंस किया गया। 1194 में मुहम्मद गोरी ने काशी में लूटपाट के बाद इस मंदिर को ध्वस्त करा दिया। गोरी के जाने के बाद इस मंदिर की मरम्मत कराई गई, लेकिन 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा फिर यह मंदिर तोड़ दिया गया। 1585 में अकबर के नौ रत्नों में शामिल राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा फिर से भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया। औरंगजेब ने इसी मंदिर को तोड़ने का आदेश 18 अप्रैल, 1669 को दिया था। न्यायालय में मंदिर के पक्षकारों की ओर से 351 वर्ष पुराना एक महत्वपूर्ण अभिलेख साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह ऐतिहासिक अभिलेख 18 अप्रैल, 1669 को औरंगजेब के एक दरबारी की ओर से जारी किया गया था, जो मूल रूप में फारसी में है लेकिन इसे हिंदी में अनूदित करके न्यायालय में प्रस्तुत किया गया है। अभिलेख के अनुसार, ‘‘औरंगजेब को खबर मिली कि मुल्तान के कई सूबों और वाराणसी में कुछ लोग अपनी किताबों को पाठशालाओं में पढ़ाते हैं। इसके बाद औरंगजेब ने काफिरों के मंदिर और पाठशालाओं को गिराने का आदेश दिया। इसके बाद 2 सितंबर, 1669 को काशी विश्वनाथ मंदिर को गिरा दिया गया।’’ औरंगजेब का यह फरमान कोलकाता की ‘एशियाटिक लाइब्रेरी’ में आज भी सुरक्षित है। साफ है कि मंदिर के अवशेषों से ही ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण किया गया। मस्जिद की पिछली दीवार आज भी गवाही दे रही है कि इसका निर्माण मंदिर को तोड़ कर किया गया था।

विध्वंस के बाद भी इस मंदिर को पुन: निर्मित करने के कई असफल प्रयास किए गए। 1752 से 1780 के बीच सबसे पहले मराठा सरदार दत्ता जी सिंधिया व मल्हारराव होल्कर ने मंदिर की मुक्ति और निर्माण का असफल प्रयास किया। 7 अगस्त, 1770 को महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाहआलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी कराया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया और मंदिर का जीर्णोद्धार नहीं हो सका। 1777 से 1780 के बीच इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने मस्जिद के समीप ही एक मंदिर का निर्माण करवाया। यही आज विश्वनाथ मंदिर है। इस मंदिर के लिए पंजाब के राजा रणजीत सिंह ने 1853 में 1,000 किग्रा सोने का छत्र बनवाया, तो ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया। मंदिर की ख्याति नेपाल तक पहुंची तो महाराजा नेपाल ने मंदिर में विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करा कर इसका अंतरराष्ट्रीय महत्व स्थापित किया।

ज्ञानवापी मस्जिद को हटाने का प्रयास हिंदू समाज द्वारा अनवरत किया जाता रहा है। इसी कड़ी में 1809 में काशी के हिंदुओं ने मस्जिद हटवाने के लिए जबरदस्त अभियान छेड़ा। 30 दिसंबर, 1910 को काशी के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी वाट्सन ने ‘वाइस प्रेसिडेंट इन काउंसिल’ को पत्र भेजकर ज्ञानवापी परिसर को स्थाई रूप से हिंदुओं को सौंपने को कहा था, लेकिन इस पत्र को कोई महत्व नहीं मिला।

अदालत पहुंचा मुस्लिम पक्ष
8 अप्रैल के आदेश के विरुद्ध मुस्लिम पक्ष इलाहाबाद उच्च न्यायालय पहुंच चुका है। मुस्लिम पक्ष ने एक बार फिर से कहा है, ‘‘यह आदेश धार्मिक स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम-1991 का उल्लंघन है। इसलिए इस पर रोक लगाई जाए।’’ स्वाभाविक रूप से अब सबकी निगाह इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय की ओर है। उच्च न्यायालय को यह तय करना है कि धार्मिक स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम-1991 के अंतर्गत यह मामला आता है या नहीं। ल्ल

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