अंकित सुमन
आजकल फ़ेसबुक पर एक तस्वीर बहुत वायरल हो रही है। लोगों ने उस बात को व्हाट्सएप समूह में, स्टोरी में और अपनी आम चर्चा में लाना शुरू कर ही दिया होगा। फ़ोटो कुछ विशेष नहीं है, मगर कुछ लोगों के मन की बात ही है।
इन तस्वीरों को देखें। इनमें एक बात लिखी हुई है कि आज जो कोरोना के कारण स्थिति हुई है, इसके लिए ज़िम्मेदार हम लोग ही हैं। वैसे इन लोगों की बात में दम तो है कि आज जो कोरोना की स्थिति देश में हुई है, उसके लिए ज़िम्मेदार हम लोग ही हैं। लेकिन इनकी एक बात से मैं असहमत हूूं और वह यह कि हम अस्पताल के लिए लड़े ही कब थे, हम तो मंदिर मस्ज़िद के लिए लड़े थे।
ऐसा कहने वालों के अनुसार हम लोग कभी अस्पतालों के लिए लड़े ही नहीं, मगर मंदिर—मस्ज़िद के लिए लड़े। इसका अर्थ यह हुआ कि हम मंदिर—मस्ज़िद के लिए लड़े और परिणाम स्वरूप हमने अपने लिए मंदिर बनवाने को ही प्राथमिकता दी या शायद केवल मंदिर ही बनवाये अस्पताल नहीं। ये लोग कहते हैं कि तुमने डॉक्टर को वोट दिया ही कब था ? यानी ज़ाहिर तौर पर बात चुनाव और राजनीति से संबंधित है।
ऐसे में एक सवाल है कि हम मंदिर मस्ज़िद के लिए कब से लड़ रहे हैं ? साल 2014 से ? 2019 से ? 1992 से ? 1989 से ? 1947 से ? 1885 से ? 1757 से ? 1012 से ? या फिर सृष्टि की रचना हुई तब से ?
लेकिन ऐसा तो हो नहीं सकता कि जबसे सृष्टि की रचना हुई हो तब से लड़ रहे हों, क्योंकि मस्ज़िद तो 7वीं शताब्दी में आई है। तो हम यह मान लेते हैं कि मंदिर-मस्ज़िद के लिए 7वीं शताब्दी के बाद से लड़ रहे हैं। लेकिन यह लड़ाई संभवतः तब शुरू हुई होगी जब आक्रांता महमूद गजनी ने अपना साम्राज्य अपने गुलामों के हाथों सौंप दिया। यानी करीबन 12वीं शताब्दी से। तो उस समय से आपने डॉक्टरों को वोट क्यों नहीं दिया, यह प्रश्न नहीं पूछा जाना चाहिए। क्योंकि डॉक्टर उस समय तक भारत में आए नहीं थे और आए होते तो चुनाव नहीं होते थे भारत में। भारत में चुनाव शुरू हुए हैं 20वीं शताब्दी में। तो जब से वोटिंग यानी निर्वाचन शुरू हुआ, तब की जनता से यह सवाल पूछेंगे तो ठीक रहेगा। वरना केवल आज की जनता से सवाल पूछना तो अन्याय होगा।
चलिए मान लेते हैं कि 1996, 1998, 1999, 2014 और 2019 में जनता ने भूल की और ऐसी सरकार को चुन लिया जो उनके अनुसार जनसरोकार नहीं रखती लेकिन, 1952 से तो देश में निर्वाचन आयोग ने चुनाव करवाना शुरू कर दिया, तब जनता ने शायद डॉक्टर को वोट दिया होगा। तब के डॉक्टरों ने अस्पताल बनाए क्या ? डॉक्टर जवाहरलाल नेहरू, डॉक्टर इंदिरा गांधी, डॉक्टर राजीव गांधी, डॉक्टर विश्वनाथ प्रताप सिंह, डॉक्टर चंद्रशेखर, डॉक्टर नरसिम्हा राव, डॉक्टर देवेगौड़ा, डॉक्टर गुजराल या डॉक्टर मनमोहन सिंह। इन्होंने तो देश के हर राज्य में अस्पताल बनाए। हर राज्य को एम्स और सुपर स्पेशलिटी अस्पताल दिए होंगे। इन डॉक्टरों ने देश के हर ज़िले में अस्पताल बनवाए क्या ? मुझे लगता है शायद बनवाए होंगे, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अटल जी ने आदेश दे दिया होगा कि सभी अस्पताल तोड़कर उन पर मंदिर बनवा दो और इनके कार्यकालों में देशभर में खूब मंदिर बनाये गए।
ऊपर दिया गया यह लिंक खोलिये। इस वीडियो में ये भाई साहब कह रहे हैं कि वोटर के चुनावी घोषणा पत्र में कभी अस्पताल रहा ही नहीं। लेकिन मुझे लगता है कि शायद घोषणा पत्र चुनाव लड़ने वाले नेता या पार्टी को जारी करना होता है। साथियों यहां तक तो सब समझ में आता है लेकिन यूरोप और अमेरिका के देश तो विकसित हैं। हमसे कोसो आगे हैं। वहां तो खूब अस्पताल हैं, ऑक्सीजन की सुविधाएं हैं, खूब वैक्सीन बनाई जाती हैं, लेकिन वहां क्यों कोरोना से मौतें हो रही हैं ? मंदिर मस्ज़िद पर लड़ने वाले देश में 1 करोड़ मामले हैं, लेकिन अमेरिका तो मंदिर मस्ज़िद पर नहीं लड़ता, वहां तो मामले भारत से 3 गुणा अधिक हैं। फ्रांस और ब्राज़ील में भी शायद मंदिर मस्ज़िद पर लड़ाई नहीं होती, लेकिन वहां भी केस कोई कम नहीं हैं। लेकिन क्या इन लोगों ने डॉक्टरों को वोट नहीं दिया ? शायद दिया होगा, लेकिन अंधभक्ति में डूबे भक्तों को यह दिखाई कहां से देगा ?
मंदिर—मंजिस्द की बात कहकर भ्रामकता पैदा करने वालों को तो यह भी नहीं दिखाई देगा कि आपदा के इस दौर में भारत दुनियाभर में विश्व स्तर की पीपीई किट डिस्ट्रीब्यूट करके विश्व में दूसरा सबसे बड़ा डिस्ट्रीब्यूटर बन गया। इसके अलावा उनको यह भी दिखाई नहीं देगा कि कैसे भारत ने हाइड्रोक्लोक्वीन को दुनियाभर में भेजकर देश की डिप्लोमेसी का लोहा मनवाया था। उनको यह भी दिखाई नहीं देगा कि मंदिर—मस्ज़िद करने वाली इस सरकार ने 71 से ज़्यादा देशों को वैक्सीन दे दी।
आज स्वास्थ्य सेवाओं पर सवाल उठाने वालों को पता होना चाहिए कि स्वास्थ्य सेवाएं राज्य सूची का विषय है। इसका मतलब है कि राज्यों की जो सरकारें हैं, स्वास्थ्य संबंधी विषयों को वही संभालेंगी। मगर ये तो देशव्यापी संकट आ गया और मंदिर—मस्ज़िद वाली सरकार को इस संकट का मोचक बनना पड़ा। लेकिन अभी भी यह विषय राज्यों के हाथ में ही है; तो जिन राज्यों में कोरोना के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, वहां एक बार पता कर लीजिए कि वोट मंदिर—मस्ज़िद वालों को दिया था या डॉक्टरों को।
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