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चैत्र नवरात्र पर विशेष : भगवती ही संपूर्ण प्रकृति

WEB DESK by WEB DESK
Apr 14, 2021, 12:12 pm IST
in संस्कृति
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इंदिरा मोहन

हिमालय की चोटियां हों या गंगा के पठार, विंध्याचल की घाटियां हों या कावेरी के तट, हमारे देश के सभी प्रांतों में किसी न किसी रूप में शक्ति की आराधना की जाती है। यह शक्ति, कहीं भगवान शंकर की अर्धांगिनी के रूप में जानी जाती है, तो कहीं महाकाली, तो कहीं दुर्गा के रूप में। कहीं विष्णु की पत्नी लक्ष्मी के रूप में, तो कहीं विद्या की देवी सरस्वती के रूप में जन-जन में पूजित है।

इस आद्यशक्ति को भारतीय संस्कृति की जननी कहा गया है। मातृ रूप से परमात्मा की पूजा में जो रस है, दया है, करुणा है वह अन्यत्र नहीं है। भगवती मां हैं, अपनी संतान का कल्याण करने के लिए ही वे नवरात्र का अवसर देती हैं। नौ दिन तक उपासना के माध्यम से भगवती का सान्निध्य हमारे मन की शक्तियों को सात्विकता की ओर मोड़ देता है। भगवती के दर्शन, भगवती की कथा हमारे स्वार्थ और अहंकार को शांत कर संयम और मर्यादा का विशेष आनंद प्रदान करती है। वह सबको तुष्टि देती है, सबकी तुष्टि से स्वयं भी तुष्ट होती है। इस सत्य को जानने और जीवन में उतारने के लिए ही वर्ष में दो बार नवरात्र पर्व धूमधाम से मनाया जाता है।

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सिंह पर सवार भगवती मां दुर्गा का सौंदर्य दिव्य एवं अनुपम है। वे परम शक्तिपुंज, संकटनाशिनी और शत्रुमर्दनी हैं। इतना ही नहीं, वे अनेक ऋद्धियों-सिद्धियों का द्वार खोलने वाली भी हैं। ये शक्तियां जब निर्माण में लगती हैं तो मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग उतार देती हैं, किंतु हिंसा और विनाश की दिशा में आगे बढ़कर हाहाकार मचा देती हैं। मां भगवती को मात्र मूर्ति तक सीमित करना हमारा अज्ञान ही है। उनकी सत्ता तो कण-कण में समाई है। पहाड़, नदियां, सागर, वृक्ष सब में उनकी शक्ति विद्यमान है। यह विराट जगत् उन्हीं का स्वरूप है, इस सत्य को जानकर मां की पूजा-अर्चना करना उचित है। उन्हें अहंकार रहित समता की पीठ पर स्थापित करना है। जीवन में निर्माण और विनाश, सुख और दु:ख, धूप-छाया की तरह साथ-साथ रहते हैं। मोमबत्ती स्वयं होकर सबको रोशनी देती है। बीज भी गलकर अंकुरित होता है और आगे चलकर छायादार वृक्ष बनता है। अत: संबंधों, हालातों के प्रति दुर्भाव रखे बिना यह अनुभव करना है कि हम सभी परमशक्तिमान देवी के हाथों की कठपुतली हैं। वे तो आपके धैर्य और सहनशीलता की समय-समय पर परीक्षा लेती रहती हैं। देवी अपनी पूजा के लिए केवल फल, फूल, मिठाई, धूप, अगरबत्ती की ही चाह नहीं करतीं, बल्कि हमारे हृदय में धैर्य, सहनशीलता, क्षमा, उदारता और सभी स्थितियों में समान बने रहने वाले पुष्पों की चाह करती हैं। देवी को प्रसाद, दूध-दही आदि चढ़ाने का उद्देश्य इतना ही है कि हम अपनी कमाई का, समय और श्रम का कुछ भाग नियमित रूप से जरूरतमंदों और परमार्थ के लिए लगाते रहें।

मां दुर्गा का चरित्र यह बताता है कि अपने को कहीं और ढूंढने की, तलाशने की जरूरत नहीं, हमारे भीतर अनंत शक्तियों का खजाना छिपा हुआ है, जो हमारे पास है हमारा अपना है। उसको ही एक महान उद्देश्य के लिए संगठित करना है, समर्पित करना है। एकांगी प्रगति तो एक पहिए की गाड़ी की तरह लड़खड़ाएगी। असंतुलन न हमारे लिए अच्छा है और न समाज के लिए। अग्नि में आग है, गर्मी है, लेकिन वह सोच नहीं सकती कि भोजन बनाए अथवा आग लगाए, यह कार्य चेतनाशक्ति करती है। भगवती इस शक्ति का ही स्वरूप हैं। हम सबमें यह शक्ति इच्छा, ज्ञान और क्रियाशक्ति के रूप में स्थित है।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो-नम:।।
आद्य शक्ति के नौ रूप
पुराणों में वर्णित है कि दुष्टों का दमन करने के लिए मां भगवती विभिन्न रूप धारण करती हैं। देवी के ये नौ रूप इस प्रकार हैं— प्रथम शैलपुत्री, द्वितीय ब्रह्मचारिणी, तृतीया चंद्रघंटा, चतुर्थ कुष्मांडा, पंचम स्कन्दमाता, षष्ठम कात्यायनी, सप्तम महाकाली, अष्टम महागौरी और नवम सिद्धिदात्री। इस तरह विभिन्न रूपों के माध्यम से मां दुर्गा सृजन, पालन और संहार करती हुई भक्त की मनोकामना पूरी करती हैं। वे शक्ति का आधार हैं। शक्ति के बिना त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश अपने-अपने कार्यों में कैसे समर्थ हो सकते हैं? यानी, मां भगवती के पूजन से त्रिलोक के कण-कण में उपस्थित चेतनाशक्ति की आराधना कर हम आत्मोत्थान कर सकते हैं।
भगवती ही संपूर्ण प्रकृति हैं। वे ही चंडी काली, महाकाली बन असुरों का, अहंकारी एवं स्वार्थी वृत्तियों का संहार करती हैं। ऐसी मातृशक्ति, जो शांति काल में ममतामय हैं, त्यागमय हैं, अन्नपूर्णा हैं, तो आपातकाल में रक्षक, संहारक महिषासुर मर्दिनी भी हैं।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक के नौ दिन ‘नवरात्र’ कहे जाते हैं। नवरात्र भारतीय गृहस्थों के लिए शक्ति-पूजन, शक्ति-संवर्द्धन और शक्ति-संचय के दिन हैं। नवरात्र में शक्ति की आराधना तथा शास्त्र-विहित व्रतादि के आचरण द्वारा हमें इन पवित्र दिनों का सदुपयोग अपने सत्व गुण को बढ़ाने और नकारात्मकता को हटाने में करना चाहिए, ताकि हम स्वार्थ की संकुचित परिधि से निकल कर समष्टि से एक हो सकें।
मां की शक्ति व्यापक है, नित्य है, निर्विकार है। प्रतिमा तो केवल उसका प्रतीक मात्र है। उसके स्वरूप दर्शन के लिए मन के द्वार खोलने होंगे, बाह्य नेत्रों से उनके सर्वकालिक, सर्वदेशीय रूप को नहीं देखा जा सकता। हम मां के रूप-लावण्य को ही निहारते रहें तब भगवती की दिव्यता समझ में नहीं आएगी। उनके नौ रूप अपूर्व निधियों से भरे हुए हैं, किंतु हम तो उनके बाह्य रूप, बाह्य पूजन में ही मग्न हो जाते हैं, भीतरी तेज, ऊर्जा, शांति, सौंदर्य को देख ही नहीं पाते। एक ओर ज्योतांवाली, शेरांवाली की दुहाई, तो दूसरी ओर नारी देह के प्रति भोग दृष्टि। एक ओर भगवती का स्वरूप मानकर कन्या पूजन करते हैं, तो दूसरी ओर कन्या भ्रूण की जन्म से पूर्व हत्या करने में संकोच नहीं करते। कैसा विरोधाभास समा गया है हमारे सामाजिक चरित्र में!
एक सच्चा उपासक सबमें परमात्मा की शक्ति का अनुभव करता है। मां के सच्चे भक्त को नारी जाति में उस शक्ति का प्रकाश देखना चाहिए। केवल मुझे ही सुख मिले, भोग मिले, यह स्वार्थी सोच न तो जगदम्बा की पूजा है, न आराधना।
जागरण की घंटियों, आरतियों के बीच भगवती मानो यही कह रही हैं- व्रत, उपवास, नियम, उपनियम और कठिन तप के साथ-साथ अब मेरी दुर्बल, दीन, साधन-हीन संतानों के संस्कारों एवं अपने आचार-विचार की शुद्धता-पवित्रता की चिंता करो। हलुए-चने का प्रसाद मैं बहुत पा चुकी, लाल चुनरी और शृंगार भी बहुत कर चुकी, अब मेरी सृजन-शक्ति, सौंदर्य-शक्ति और ज्ञान-शक्ति को जानो-पहचानो।
वे हमारी मां हैं, तब भला मां के गुणों के विपरीत संतान कैसे हो सकती है? वास्तव में उसकी दिव्यता, पवित्रता, उदारता, सहकारिता हमारे भीतर भी है जिसकी याद दिलाने वे वर्ष में दो बार चैत्र और आश्विन माह में पूरे ऐश्वर्य और वैभव के साथ आती हैं और परहित-परमार्थ भाव के तप से प्रसन्न होती हैं। सृष्टि के आरंभ से ही आचरण हेतु संस्कार प्रदान करने वाली मां हैं, भगवती तो जगन्माता हैं, जगजननी जगदम्बा हैं। भगवती के गुणों को धारण करने पर ही भगवती की पूजा फलवती होती है, भगवती से मिलते ही पूरी सत्ता सचेतन हो उठती है। प्रकाश का आनंद प्रेम बनकर सद्भावना बांटने को उत्सुक हो जाता है। समस्त वस्तुओं में, सब जीवों में इस ज्योति की आभा दिखने लगती है। यदि हम इस प्रकार सोचना और देखना सीख लेते हैं तो वास्तव में हम सच्चे मन से देवी की आराधना कर रहे हैं। हम सबका यह सात्विक प्रयास, निश्चय ही निर्माण, सृजन की मंगलकारी शक्तियों को धरती पर उतार सकता है। तब प्रत्येक देवता का तेज पुन: संगठित होकर असद, अहंकार, अन्याय और आतंक का संहार कर विश्व को शांति के सूत्र में बांध सकता है।
(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

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