विश्व हिंदू परिषद् (विहिप) और कुछ अन्य धार्मिक और सामाजिक संगठनों के प्रयासों से इन दिनों लगभग 10,000 गैर-ब्राह्मण पुजारी देश के विभिन्न मंदिरों में भगवान की सेवा कर रहे हैं।
यह सनातन धर्म की विशेषता है कि वह परिस्थिति के अनुरूप अपने में अपेक्षित सुधार करता है। इसी सुधार का परिणाम है कि इन दिनों देश के मंदिरों में गैर-ब्राह्मण पुजारियों या अर्चकों की अच्छी-खासी संख्या देखने को मिल रही है। विश्व हिंदू परिषद् (विहिप) और कुछ अन्य धार्मिक और सामाजिक संगठनों के प्रयासों से इन दिनों लगभग 10,000 गैर-ब्राह्मण पुजारी देश के विभिन्न मंदिरों में भगवान की सेवा कर रहे हैं। इससे उन लोगों में बड़ी खलबली है, जो जाति के नाम पर समाज को बांटते आए हैं।
गैर-ब्राह्मणों को पुजारी बनाने का कार्य दक्षिण भारत में बहुत ही प्रभावी ढंग से चल रहा है। बता दें कि सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने के लिए विश्व हिंदू परिषद् की आंध्र प्रदेश इकाई से जुड़ी ‘समरसता वेदिका’ ने 2006 में गैर-ब्राह्मण पुजारी तैयार करने का निर्णय लिया। इसके बाद तिरुमला तिरुपति देवस्थानम् में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के उन युवाओं को पुजारी का प्रशिक्षण दिलाना शुरू किया, जो मंदिरों में अर्चक के रूप में सेवा करना चाहते थे। अब तक वहां ऐसे 5,000 युवाओं को प्रशिक्षण दिया जा चुका है। इनमें से 3,000 अनुसूचित जाति, 800 अनुसूचित जनजाति और 1,200 पिछड़े वर्ग के युवा हैं। विशेष बात यह है कि इन युवाओं को प्रशिक्षण ब्राह्मण पुजारी देते हैं।
प्रशिक्षण के बाद इन युवाओं को तिरुपति मंदिर की ओर से पुजारी का प्रमाणपत्र दिया जाता है। इनके आधार पर तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने इन युवाओं को विभिन्न मंदिरों में पुजारी के रूप में नियुक्त किया है। उल्लेखनीय है कि इन राज्यों में मंदिर सरकारी नियंत्रण में हैं। इसलिए इन पुजारियों की नियुक्ति वहां की राज्य सरकारों ने की है।
यही नहीं, प्रशिक्षण के दौरान इन युवाओं की अन्य जरूरतें पूरी करने में ब्राह्मण ही बड़ी भूमिका निभाते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है, ताकि इनमें जाति के नाम पर कोई भेदभाव की भावना न रहे। प्रशिक्षण के बाद इन युवाओं को तिरुपति मंदिर की ओर से पुजारी का प्रमाणपत्र दिया जाता है। इनके आधार पर तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने इन युवाओं को विभिन्न मंदिरों में पुजारी के रूप में नियुक्त किया है। उल्लेखनीय है कि इन राज्यों में मंदिर सरकारी नियंत्रण में हैं। इसलिए इन पुजारियों की नियुक्ति वहां की राज्य सरकारों ने की है।
केरल में भी गैर-ब्राह्मणों को पुजारी बनाने के लिए अनेक संगठन लगे हैं। ऐसे लोगों को कर्म कांड का प्रशिक्षण देने के लिए ‘तंत्र विद्यापीठम्’ के नाम से एक संस्थान की स्थापना की गई है। इसके संस्थापक हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री माधवन जी। इन्हीं की प्रेरणा से एर्नाकुलम जिले के पालीयम में 27 अगस्त, 1987 को पूरे केरल के साधु-संतों की एक बैठक हुई थी। इसमें एक प्रस्ताव पारित कर कहा गया था, ‘‘किसी भी जाति, नस्ल अथवा रंग के व्यक्ति को मंदिरों के भीतर पूजा-अर्चना करने का अधिकार होगा, बशर्ते उसने आवश्यक प्रशिक्षण ले रखा हो।’’ इसके बाद केरल के मंदिरों में समाज के सभी वर्ग के लोगों को पुजारी बनने का अवसर दिया जा रहा है।
विश्व हिंदू परिषद् के केंद्रीय मंत्री और सामाजिक समरसता अभियान के अखिल भारतीय प्रमुख देवजी भाई रावत कहते हैं, ‘‘विश्व हिंदू परिषद् की स्थापना का मूल उद्देश्य है सामाजिक असमानता को दूर कर समरस समाज का निर्माण करना। उसी के लिए विहिप समाज के पिछड़े और शोषित वर्ग के उन युवाओं को पुजारी बनाने का काम कर रही है, जो धर्म और अध्यात्म में रुचि रखते हैं। इन युवाओं के पुजारी बनने से देश में सामाजिक समरसता बढ़ रही है।’’
क्या सबका साथ, सबका विकास के नारे को चरितार्थ करने के लिए अयोध्या में बनने वाले मंदिर में किसी गैर-ब्राह्मण को पुजारी नियुक्त किया जाएगा?’’
इस समरसता की कल्पना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने की थी। उनकी इस कल्पना को साकार करने के लिए ही 1964 में विहिप की स्थापना की गई थी। इसके बाद श्रीगुरुजी की प्रेरणा से विहिप ने 13 और 14 दिसंबर, 1969 को कर्नाटक के उडुपी स्थित पेजावर मठ में साधु-संतों का एक सम्मेलन आयोजित किया। उसी सम्मेलन में संतों ने नारा दिया, ‘‘ हिन्दव: सोदरा: सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेत्।’’ अर्थात् सभी हिंदू भाई-भाई हैं, सहोदर हैं और कोई भी पतित नहीं है। बाद में विहिप के कार्यकर्ताओं ने इस भावना को घर-घर पहुंचाने का प्रण लिया और आज भी हजारों कार्यकर्ता इस काम में दिन-रात लगे हैं।
‘‘क्या सबका साथ, सबका विकास के नारे को चरितार्थ करने के लिए अयोध्या में बनने वाले मंदिर में किसी गैर-ब्राह्मण को पुजारी नियुक्त किया जाएगा?’’
पटना स्थित महावीर मंदिर भी इस समरसता को सरसराने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। उल्लेखनीय है कि इस मंदिर ने वंचित समाज के लोगों को पुजारी बनाने का कार्य उन दिनों शुरू किया था, जब इसकी कल्पना भी आम लोगों को नहीं थी। 13 जून, 1993 को महावीर मंदिर, पटना में पहली बार वंचित समाज के एक विद्वान फलाहारी सूर्यवंशी दास को मुख्य पुजारी के तौर रखा गया। महावीर मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष और पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी किशोर कुणाल कहते हैं, ‘‘जब फलाहारी बाबा को पुजारी नियुक्त किया गया तब कुछ लोगों ने विरोध जरूर किया, पर अब सब लोग उन्हें स्वीकार कर चुके हैं। सामाजिक समानता के लिए यह बहुत ही अच्छी बात है।’’ उन्होंने यह भी कहा कि हर मंदिर समिति में एक संस्कृत विद्वान और एक वंचित समाज के व्यक्ति को शामिल करना चाहिए। इससे जो सद्भाव और पे्रम पनपेगा वह समाज को मजबूत करेगा और भारत के भविष्य को उज्जवल बनाएगा।
मंदिरों में गैर-ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति से वे लोग सबसे ज्यादा परेशान हैं, जो समाज को जाति के नाम पर बांटने के लिए कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते हैं। याद करिए उस दिन को जब सर्वोच्च न्यायालय ने 8 नवंबर, 2019 को अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। इसके बाद जाति के नाम पर समाज को तोड़ने वाले लोग सोशल मीडिया से लेकर अखबारों तक में लेख लिखकर यह प्रश्न उठाने लगे थे, ‘‘क्या सबका साथ, सबका विकास के नारे को चरितार्थ करने के लिए अयोध्या में बनने वाले मंदिर में किसी गैर-ब्राह्मण को पुजारी नियुक्त किया जाएगा?’’
इन लोगों को पता होना चाहिए कि समाज बदल रहा है और इसलिए उनका सवाल भी अब कोई मायने नहीं रखता है। ऐसे लोग इस बदलाव को स्वीकार कर जाति के नाम पर लोगों को भड़काना बंद करें। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो आने वाले समय में वे खुद ही समाज से बाहर हो जाएंगे।
6 सितम्बर, 2020
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