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अशांति का तूफान

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Mar 19, 2018, 12:00 am IST
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दिंनाक: 19 Mar 2018 11:11:11

अशांति का तूफान

श्रीलंका में सांप्रदायिक हिंसा के ताजा दौर की पृष्ठभूमि में आकार लेती सामाजिक-सियासी गोलबंदी चुनौतीपूर्ण भविष्य का संकेत कर रही है। पड़ोसी देश में किसी भी अशांति का हम पर सीधा असर पड़ना लाजिमी है, लेकिन अनुभव हमें मैदान के बाहर रहकर खेल पर बारीक नजर रखने की नसीहत दे रहा है

  अरविंद शरण

विभिन्न रोगों में कई लक्षण एक जैसे होते हैं। अगर वर्तमान का कोई लक्षण ठीक हो चुके किसी बड़े रोग से मेल खाता हो, तो सबसे पहले अतीत का भयावह मंजर आंखों के सामने घूम जाता है। श्रीलंका के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है। आजादी के बाद से ही ज्यादा समय जातीय हिंसा के साये में बिताने वाले श्रीलंका में शांति आए अभी एक दशक भी नहीं हुआ है। ऐसे में वहां बौद्धों और मुसलमानों के बीच संघर्ष छिड़ जाना उस खौफनाक सपने के साकार होने जैसा है, जो वहां के सामाजिक मानस को बेचैन करता रहा है। बेशक हिंसा के ताजा दौर की चिंगारी के शोलों में तब्दील होने की आशंकाएं कम हों, पर नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान की कठिन राह पर अनुभव की उंगली पकड़कर चलें तो सुरक्षित भविष्य तक पहुंचने की संभावना अधिक होती है।
श्रीलंका में बौद्ध और मुसलमानों के बीच हिंसा के ताजा दौर की शुरुआत कैंडी में हुई, जहां ‘रोड रेज’ की एक घटना के बाद मुसलमानों ने एक सिंहली ट्रक ड्राइवर की जमकर पिटाई कर दी। हालांकि दोनों समुदायों के स्थानीय नेताओं ने बीच-बचाव मामले को तात्कालिक रूप से शांत भी करा दिया था। लेकिन अस्पताल में ट्रक ड्राइवर की मौत हो जाने के बाद मामला भड़क गया। बहुसंख्यक बौद्ध समुदाय का एक धड़ा इतना आक्रोशित हुआ कि देखते-देखते कई इलाकों में हिंसा भड़क गई। इसमें जान तो कुछ ही लोगों की गई, पर मुसलमानों के व्यापारिक-व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में तोड़फोड़-आगजनी की घटनाएं अधिक हुईं। जातीय हिंसा के भयानक दौर को देख चुके श्रीलंका में सरकार ने एहतियातन पूरे देश में दस दिन के लिए आपातकाल लगा दिया, पर इसके हटाते ही कुछ जगहों पर फिर हिंसक झड़पें हुर्इं। जातीय संघर्ष के लंबे दौर के कारण 40 साल तक आपातकाल झेलने वाले श्रीलंका में इस तरह हिंसा का भड़कना समाज में समानांतर रूप से सांस लेती कई तरह की प्रवृत्तियों की ओर इशारा करता है।
अविश्वास की पृष्ठभूमि
श्रीलंका की सामाजिक चेतना पर सामुदायिक अलगाव का भाव आज भी हावी है। बहुसंख्यक बौद्ध आशंकाओं से भरी अल्पसंख्यक-सुलभ मानसिकता के शिकार हो गए हैं और मुसलमानों में उन्हें तमिल टकराहट के कटु अनुभवों की परछांई दिखने लगी है। शुरू में तमिलों की आबादी भी करीब दस प्रतिशत थी, जब उन्होंने समान अधिकार, समान सम्मान व समान अवसर के लिए आंदोलन के अपेक्षित परिणाम न देने से क्षुब्ध होकर आक्रामक छापामार युद्ध की राह पकड़ ली थी। तमिलों के सशस्त्र आंदोलन को कुचलने में सरकारी तंत्र को एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद तीन दशक लग गए। जनगणना के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, श्रीलंका की आबादी लगभग 2.1 करोड़ है। इसमें मुसलमानों की संख्या तब की तमिल आबादी के आसपास ही है, यानी 9.2 प्रतिशत। इस कारण बौद्धों के मन में भविष्य को लेकर आशंका घर कर गई हैं। उन्हें लगता है कि मुसलमान उनके लिए वैसी ही मुसीबत पैदा कर सकते हैं, जैसी पूर्व में वे झेल चुके हैं। इसी कारण हिंसक प्रतिरोध में भरोसा करने वाली बोडू बाला सेना जैसे बौद्ध संगठन अपनी जमीन बनाने में सफल रहे। श्रीलंकाई बौद्धों में मुसलमानों के प्रति अविश्वास के भाव को मजबूत बनाने में कुछ हद तक उस वैश्विक   प्रवृत्ति की भी भूमिका रही, जो कट्टर और जिहादी इस्लाम के समर्थकों ने    तैयार कर दी है। नि:सदेह बौद्धों को  उनकी गतिविधियां आतंकवाद का  आभास कराती।
बढ़ता इस्लामी कट्टरवाद
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हाल के वर्षों में श्रीलंका में इस्लामी कट्टरवाद बढ़ा है। श्रीलंका की खुफिया एजेंसी स्टेट इंटेलिजेंस सर्विस (एसआईएस) ने 2005 में ही राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरीसेना और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को बताया था कि नौ परिवारों के 45 लोगों के आईएसआईएस में शामिल होने की सूचना है। श्रीलंका के 25 जिलों में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी त्रिंकोमाली (42.1 प्रतिशत), अम्पारा (43.6 प्रतिशत) व बट्टीकलोवा (25.5 प्रतिशत) में है। अगर खुफिया रिपोर्ट में इन इलाकों के लोगों के आईएसआईएस में शामिल होने की बात आती तो शायद बहुत हैरत नहीं होती, लेकिन चौंकाने वाली बात यह थी कि रिपोर्ट के मुताबिक आईएसआईएस में शामिल होने वाले लोग कुरुनेगाला, कैंडी और कोलंबो के बाहरी छोर पर बसे कोलोनावा और देहिवाला इलाके से थे। इसी साल श्रीलंका के एक निजी स्कूल में प्रधानाचार्य की नौकरी करने वाले एक शख्स की सीरिया में आईएसआईएस की ओर से लड़ते हुए मौत की खबर भी सुर्खी बनी थी। 45 लोगों के आतंकी संगठन आईएसआईएस में शामिल होने की खबर के बाद तत्कालीन रक्षा मंत्री करुणासेना ने माना था कि 36 लोगों के सीरिया जाने की खबर है, जिनमें से कई आईएसआईएस में शामिल हो गए हैं।
ले. जनरल शंकर (से.नि.) प्रसाद कहते हैं, ‘‘श्रीलंका का समाज कट्टरपंथी हिंसा के लिहाज से काफी संवेदनशील है, इसलिए बौद्धों और मुसलमानों की ताजा झड़पों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।’’ इराक और सीरिया में जिस तरह आईएसआईएस पर दबाव बन रहा है, इन संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता कि भविष्य में इसके लड़ाके अपने-अपने देश लौटने को मजबूर हो जाएं और तब ये बेशक आतंकी हमलों को सीधे अंजाम न भी दें, लेकिन स्लीपर सेल की तरह काम तो कर ही सकते हैं। ब्रिगेडियर आर.पी.सिंह (से.नि.) कहते हैं, ‘‘श्रीलंका में बौद्धों और मुसलमानों के बीच छिड़ी हिंसा संभवत: उतनी बड़ी समस्या नहीं, जितनी वहां आईएसआईएस के स्लीपर सेल नेटवर्क की जमीन तैयार होना है। यह उन देशों की समस्या है,  जहां आईएस के लड़ाके लौटकर आ रहे हैं या आएंगे।’’
रोहिंग्या से जुड़ते तार
बौद्धों और मुसलमानों में परस्पर वैमनस्य की जड़ें इतिहास में काफी दूर तक जाती हैं। मुसलमान-तुर्क शासकों को जहां भी बौद्ध विहार-मठ व बुद्ध की प्रतिमाएं मिलीं, उन्हें तोड़ते गए। नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के अलावा अफगानिस्तान तक में इसकी छाप मिलती है। इसी कारण बौद्धों में मुसलमानों के प्रति एक सहज दुराव रहा है। यही वजह है कि बौद्धों और मुसलमानों में परस्पर संघर्ष की छाप म्यांमार, थाईलैंड से लेकर श्रीलंका तक में मिलती है। म्यांमार के रखाइन इलाके में रोहिंग्या मुसलमानों और बौद्धों का संघर्ष सामने है। वहां भी रोहिंग्या मुसलमानों के बीच आतंकवादी संगठनों के पैठ बना लेने की बात सामने आई है।
श्रीलंका में इससे पहले बौद्धों और मुसलमानों के बीच 2014 में बड़ी हिंसा हुई थी। तब बोडू बाला सेना का आरोप था कि हिंसा में म्यांमार से आए रोहिंग्या मुसलमानों का भी हाथ है। हाल के समय में भी म्यांमार से रोहिंग्या मुसलमान श्रीलंका आए हैं, इसलिए अति-राष्ट्रवादी बौद्धों की नजरें फिर सशंकित हो उठी हैं। म्यांमार में भारत के राजदूत रह चुके गौतम मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘‘श्रीलंका की मौजूदा जातीय हिंसा के पीछे रोहिंग्या मुसलमान के प्रभावी कारक होने की आशंका न के बराबर है। म्यांमार में दोनों समुदायों की दुश्मनी को देखते हुए इस तरह की अटकलें लगाई जा सकती हैं, लेकिन मुझे यह हिंसा ज्यादा स्थानीय लगती है।’’
हिंसा का राजनीतिक कोण
श्रीलंका में अभी प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) और राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरीसेना के नेतृत्व वाली श्रीलंका फ्रीडम पार्टी की गठबंधन सरकार है। वामपंथी रूझान वाली सिरीसेना की पार्टी और दक्षिणपंथी झुकाव वाली विक्रमसिंघे की पार्टी का यह गठबंधन दो विभिन्न वैचारिक ध्रुवों के बीच न्यूनतम साझा कार्यक्रम की नाजुक डोर से बंधा है लिहाजा, समय-समय पर इनका आपसी विरोधाभास सामने आता रहा है। पिछले महीने स्थानीय निकाय चुनाव हुए और इसके प्रचार से लेकर परिणाम आने के बाद तक दोनों दलों का अंतर्विरोध सार्वजनिक होता रहा और इनके नेता एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे। इन चुनावों में पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे की श्रीलंका पोडुजना पेरुमुना पार्टी (एसएलपीपी) ने 340 में से 231 निकायों पर कब्जा जमाया। राजपक्षे की पार्टी को 45 प्रतिशत वोट मिले। प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे की पार्टी 33 प्रतिशत वोटों के साथ दूसरे नंबर पर रही, जबकि राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरीसेना की पार्टी को महज 15 फीसदी वोट मिले। इस तरह राजपक्षे ने 2020 में होने वाले संसदीय चुनाव के लिए बिसात बिछा दी है, जो बहुसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण की सोची-समझी रणनीति पर आधारित है। चूंकि श्रीलंका के संविधान के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति को दो बार से अधिक राष्ट्रपति नहीं बन सकता, राजपक्षे के लिए 2020 के चुनाव में यह विकल्प तो नहीं रहेगा, लेकिन वह प्रधानमंत्री जरूर बन सकते हैं। 2009 में देश को लिट्टे के आतंक से मुक्त कराने वाले राजपक्षे को स्वाभाविक रूप से बहुसंख्यक सिंहली का समर्थन प्राप्त था और उनकी स्थिति काफी मजबूत भी थी, लेकिन लिट्टे के खात्मे के मुश्किल लक्ष्य को पाने के बाद उनका अतिविश्वास उन्हें भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की ओर ले गया। बाकी कसर चीनी निवेश के मोहक ऋण जाल ने पूरी कर दी। राजपक्षे का झुकाव चीन की ओर रहा और उनके समय में बुनियादी क्षेत्र में धड़ाधड़ चीनी निवेश हुआ। यह निवेश उन्हें अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की तुलना में कहीं आसानी से मिल गया। युद्धकाल की समाप्ति के बाद देश में बड़े पैमाने पर पुनर्निर्माण का काम होना था और इसमें आसान चीनी निवेश की ओर झुक जाना राजपक्षे की मजबूरी भी थी। लेकिन फिर वही हुआ जो चीनी निवेश के कारण तमाम अफ्रीकी देशों में हो रहा है-देश में ऐसी परियोजनाएं लग रही थीं जो स्थानीय लोगों को कोई रोजगार नहीं दे रही थीं, सारे कारीगर चीन से आ रहे थे। इस तरह सामने शक्ल ले रही चकाचौंध भरी दुनिया में अपने लिए रोजी-रोटी की गुंजाइश नहीं देखकर युवा वर्ग उनसे दूर हो गया। आसमान में उड़ती राजपक्षे सरकार को लोगों ने जमीन पर ला पटका। पिछले अनुभवों से सबक लेकर राजपक्षे बहुसंख्यक बौद्धों के ध्रुवीकरण को अचूक हथियार के तौर पर देख रहे हैं। निकाय चुनाव में उन्होंने इस अस्त्र का सफल परीक्षण भी किया। अत: मानकर चलना चाहिए कि आने वाले समय में श्रीलंका में बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक भावना को भड़काने की और कोशिशें होंगी। वैसे भी, राजपक्षे का झुकाव सिंहलियों की ओर रहा है। उनके पिछले कार्यकाल के दौरान बोडू बाला सेना को सरकारी सरपरस्ती हासिल थी। जब बौद्धों-मुसलमानों के बीच हिंसा का हालिया दौर शुरू हुआ तो प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने खुले शब्दों में इसे सोची-समझी साजिश करार दिया। उन्होंने कहा, ‘‘जिस तरह से हिंसा भड़की, वह बिना पूर्व योजना के नहीं हो सकती थी।’’ उनका इशारा राजपक्षे की ओर था। बेशक राजपक्षे ने इसे खारिज कर दिया था, पर निकाय चुनाव के प्रचार के दौरान बौद्धों को अल्पसंख्यकों के खिलाफ एकजुट करने की कोशिश तो उन्होंने की ही थी। तब उन्होंने कहा था कि यूएनपी को वोट देने का मतलब अलग तमिल राज्य का रास्ता साफ करना होगा। राजपक्षे शायद नहीं भूले हैं कि 2005 के चुनाव में सिरीसेना और विक्रमसिंघे की गठबंधन सरकार उदार बौद्धों, तमिलों व मुसलमान वोटों के कारण ही बनी थी। इसी कारण वह बहुसंख्यक बौद्धों के ध्रुवीकरण की रणनीति पर चल रहे हैं। इसलिए श्रीलंका में बौद्धों, मुसलमानों के बीच मौजूदा खाई के पीछे राजनीतिक हित भी काम कर रहे हैं।
भारत के विकल्प
श्रीलंका में शुरू हुआ ताजा हिंसा का दौर भारत के लिए चिंताजनक है। भारत ने श्रीलंका के मामलों में हस्तक्षेप का खामियाजा भी झेला है और श्रीलंका में बढ़ती चीनी उपस्थिति उसे परेशान भी कर रही है। पूर्व राजनयिक योगेंद्र कुमार कहते हैं, ‘‘हमारे लिए यह केवल एक देश से कूटनीतिक रिश्ते की बात नहीं। श्रीलंका में रह रहे तमिलों के दक्षिण भारत से पारिवारिक रिश्ते हैं और इसलिए हम दोनों के हित एक-दूसरे से जुड़े हैं। लिहाजा, दोनों देशों पर एक-दूसरे के हालात का असर तो पड़ेगा ही।’’ वहीं, ले.जनरल शंकर प्रसाद (से.नि.) का मानना है कि भारत को सीधे हस्तक्षेप से बचना चाहिए। वह कहते हैं, ‘‘चीन के पास अकूत धन है और उस मामले में हम उनका मुकाबला नहीं कर सकते। हम अपने पड़ोसियों का भरोसा जीतकर अपने हित को बेहतर तरीके से साध सकते हैं। इसके लिए हमें उनकी संप्रभुता का ध्यान रखना होगा। इसलिए सीधे हस्तक्षेप के विकल्प को अंतिम ही मानना चाहिए। हां, हम हालात पर नजर जरूर रखें और उन्हें भरोसा दिलाएं कि अगर उन्हें सहयोग की जरूरत होगी तो भारत हमेशा तैयार मिलेगा।’’कमजोरी और मजबूती एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। अंतर केवल देखने के कोण का होता है। अगर पड़ोसी आपके खिलाफ बिछी कूटनीतिक बिसात का मोहरा बन सकता है, तो वह आपके हितों की रणनीतिक किलेबंदी का साधन भी हो सकता है। श्रीलंका में बहुसंख्यक ध्रुवीकरण के संकेतों और वहां कसते चीनी निवेश-पाश के बीच भारत को बड़े संयम से काम लेना होगा, श्रीलंका के प्रति भारतीय कूटनीतिक दृष्टिकोण का मर्म यही है।      

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