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सामयिक/कोरेगांव-भीमा-वक्त टकराने का नहीं, एक होने का

by
Jan 15, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Jan 2018 11:11:10

दलित विमर्श के नाम पर समाज का अहित करने की बजाए इसे शिक्षित और संगठित करना जरूरी

गुरु प्रकाश

साल 2018 का आरंभ दलित मंथन पर बहस के साथ होने से मैं मिश्रित रूप से आश्चर्यचकित हूं। जाति पर संवाद जोखिमपूर्ण तो हैं, लेकिन मैंने कभी किसी दलित मित्र को यह कहते नहीं सुना कि जाति पर बातचीत करना प्रतिगामी या अनुत्पादक है। इसके विपरीत वे मित्र जो खास सामाजिक तबके से आते हैं, वे सार्वजनिक संवादों में जाति नामक चीज और इसके अस्तित्व का खंडन करते हैं। दलित मंथन के उभार को समझने के लिए कई परिकल्पनाएं निर्मित हो सकती हैं। टीकाकार अपनी समझ और संबद्धताओं के अनुसार इस घटना को आकांक्षापूर्ण या बगावती रूप में देखते हैं। नया दलित कथानक कैसा होना चाहिए? इस विचार को लेकर संवाद गढ़ने वाले अठखेलियां कर रहे हैं। उभरते दलित मंथन का मुख्य  विषय क्या होगा? और 21वीं सदी    के दलित इतिहास लेखन के निर्धारक असली हितधारक   कौन होंगे?
   दलित कथानक स्पष्ट रूप से परंपरागत उत्पीड़न वाले विचार से उत्पन्न हुआ है। दलित समाज के बहिष्कार और अमानवीय बरताव के ऐतिहासिक संदर्भों से किसी को इंकार नहीं है। हालांकि, मुझे दलित प्रबुद्धों और राजनीतिज्ञों के समूह से मूलभूत समस्या है, जो पीड़ित कार्ड खेलने वाले विचार में फंसे रहते हैं और पक्षपात वाली कहानी से परे देखने के लिए न तो तैयार हैं, न ही इच्छुक। घोषित सरकारी नीति विशेषज्ञ चार्ल्स व्हिटमैन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि ‘जीतने वाले से अधिक हारने वाला व्यक्ति चिल्लाता है’। और ऐसा दलित जनसमूह में होता प्रतीत होता है। अपनी आवाज पहुंचाने के लिए संपादकीयों और टेलीविजन के ‘प्राइमटाइम’ में यह रुदन एक फैशन सा हो गया है। इस निराशा के माहौल में जो चीज महसूस की जानी चाहिए वह है टीना डाबी, नीरज घेवान और मिलिंद कांबले के  रूप में एक आशा की किरण, जिन्होंने  तमाम कठिनाइयों के बीच संघर्ष किया, लड़े और सफल हुए।
असहमति, जो विध्वंस करने के बावजूद लोकतंत्र का मूल तत्व है, अभिव्यक्ति की आजादी का मूल तत्व है। कोरेगांव युद्ध के 200वें शौर्य दिवस आयोजन में उमर खालिद और जिग्नेश मेवानी के भड़काऊ भाषणों के बाद एक लड़के की जान चली गई, दुकानें बंद हुर्इं, बसें जलाई गर्इं और मुंबई का चक्का जाम हुआ। आखिर, इस तोड़फोड़ से हमें क्या मिला? कुछ नहीं। यहां एक रोचक कहानी ध्यान देने योग्य है।
पुणे में वढू बुद्रुक नाम का एक छोटा गांव है जहां गोविंद गोपाल गायकवाड़ की समाधि के साथ संभाजी का एक स्मारक बना है। छत्रपति शिवाजी के बेटे संभाजी की हत्या करने के बाद औरंगजेब ने उनके शरीर को क्षत-विक्षत कर नदी में फेंक दिया था। तब गोविंद गोपाल गायकवाड़, जो कि एक महार थे, ने उनके शरीर के क्षत-विक्षत भागों को एकत्र किया, आपस में सिला और सम्मानपूर्वक उनका अंतिम संस्कार किया। मेरे लिए यह एक प्रेरणादायी घटना है, क्योंंकि गोविंद गोपाल गायकवाड़ ने अखंडता और सामाजिक एकता का एक मार्ग प्रशस्त किया। आंबेडकर ने संविधान का निर्माण करने वाली समिति के अध्यक्ष थे।
अत: दलित भारत की एकता और अखंडता की धुरी थे और रहेंगे। संविधान के सकारात्मक अभियानों की दूसरी पीढ़ी के रूप में मैं अपने दादा या पिता से अलग नजरिया रखता हूं, जिन्होंने दुर्भाग्यवश पक्षपात, भेदभाव का प्रथम रूप देखा जिसे न तो मैंने कभी देखा है, न ही देखूंगा। दलितों के बीच उत्कृटष्ता की एक बनावटी परत राजनीति और नौकरशाही में बनाई गई है। अच्छा होगा यदि दलित अपने समुदाय के सुविधाहीन भाइयों के उनके खिलाफ खड़े होने से पूर्व आरक्षण लाभ के क्षेत्रों को बढ़ाने के रास्तों को ढूंढें।
सामाजिक न्याय के अगली पीढ़ी के सुधारों के प्रकारों के निर्धारण की अनुमति देना समग्र रूप से समुदाय के लिए अपकारी होगा। बाबासाहेब आंबेडकर का विचार था, ‘‘एक आदर्श समाज गतिशील होना चाहिए, एक हिस्से से दूसरे हिस्से में परिवर्तनों को ले जाने में परिपूर्ण होना चाहिए। एक आदर्श समाज में बहु हित जाग्रत रूप में आदान-प्रदान किए जाने चाहिए।’’ आइए, हम समाज को शिक्षित और संगठित करने के लिए उसी तरह उठ खड़े हों जैसे आंदोलन के लिए होते हैं।
(लेखक इंडिया फाउंडेशन, नई दिल्ली  में सीनियर रिसर्च फैलो हैं)

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