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सूर्य की कृपा के बिना जीवन अति कठिन है। उनकी अनुकंपा से ही फसल चक्र पूर्ण होता है और हमें भोजन मिलता है। सूर्य के कारण ही जीवों को नव ऊर्जा मिलती है। उनके ऋण से उऋण होने के लिए ही सनातन संस्कृति में सूर्योपासना की सदियों पुरानी परंपरा है
पूनम नेगी
भगवान भास्कर सृष्टि में केवल प्रकाश ही नहीं फैलाते, वरन् एक नवजीवन-नई चेतना का भी संचार करते हैं। सूर्योदय के साथ ही मानव से लेकर सभी छोटे-बड़े जीव-जंतुओं और वृक्ष-वनस्पतियों तक सभी में चेतनात्मक स्पंदन शुरू हो जाते हैं। इसलिए वेदों में सूर्य को विश्व की आत्मा कहा गया है। सूर्य के इसी महान उपकार के प्रत्युत्तर में वैदिक युग में हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्योपासना की जिस परंपरा का शुभारंभ किया था, सदियों बाद भी वह आज तक कायम है।
मकर संक्रांति सूर्योपासना का ऐसा ऋतु पर्व है जो हमारे लौकिक जीवन को देवजीवन की ओर मोड़ता है और हमारे भीतर शुभत्व और नवजीवन का बोध भरकर हमें चैतन्य, जागृत और जीवंत रूप से सक्रिय बनाता है। माघ मास में सूर्य के उत्तरायण होने पर समूचा जन-जीवन प्रसुप्ति से जागरण की ओर उन्मुख हो उठता है। पुराणकार कहते हैं कि जब दिवाकर मकरस्थ होते हैं तब सभी समय, प्रत्येक दिन एवं सभी स्थान शुभ हो जाते हैं। मकर संक्रांति के शुभ दिन से खरमास (पौष माह) में रुके हुए मंगल कार्य पुन: शुरू हो जाते हैं। यह स्नान पर्व मूल रूप से ऋतु चक्र परिवर्तन और नई कृषि उपज से जुड़ा है। इस समय तक धान, उड़द और तिल आदि की नई फसल तैयार हो जाती है। वैदिक चिंतन कहता है कि इस अवसर पर जिस तरह सूर्यदेव की कृपा से हमारा अन्नदाता हमें नवान्न का उपहार देता है, उसी तरह यह आलोक पर्व हमें प्रबोधित करता है कि हम सब भी जड़ता और आलस्य त्याग कर नए सकारात्मक विचारों को ग्रहण करें। देश के विभिन्न प्रांतों में इस त्योहार को मनाने के जितने रूप प्रचलित हैं, उतने किसी अन्य पर्व के नहीं। कहीं लोहड़ी, कहीं खिचड़ी, कहीं पोंगल, कहीं संक्रांति और कहीं उत्तरायणी।
खिचड़ी: स्नान-दान का पर्व
उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में मकर संक्रांति पर्व को मुख्य रूप से खिचड़ी पर्व के रूप में मनाया जाता है। तीर्थराज प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर लगने वाले एक माह के माघ मेले की शुरुआत मकर संक्रांति से ही होती है। इस पर्व पर विशिष्ट आकाशीय तरंगों का व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसीलिए इस दिन तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गई है। हमारी आस्था को पोषण देने के साथ इस पर्व का लौकिक और वैज्ञानिक आधार भी खासा मजबूत है। यह पर्व मूल रूप से ऋतु चक्र परिवर्तन और नई कृषि उपज से जुड़ा है। सूर्यदेव की कृपा से धरती माता अपनी कोख से नवान्न का उपहार देती है। नया साठी धान, नई उड़द की दाल, गन्ना और उससे निर्मित नया गुड़, तिल और सरसों के साथ ज्वार, बाजरा तथा मक्के की नई फसल की पैदावार पर किसानों के चेहरों की खुशी देखते ही बनती है। श्रद्धालुजन इस दिन संगम स्नान और सूर्य को अर्घ्य देकर सुपात्रों और गरीबों को खिचड़ी, तिल तथा ऊनी वस्त्र दान देते हैं और खिचड़ी का भोग प्रसाद ग्रहण करते हैं।
कहते हैं कि मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी बनाने की परंपरा बाबा गोरखनाथ ने उत्तर प्रदेश के गोरखनाथ मंदिर से शुरू की थी। मोहम्मद खिलजी के आक्रमण के समय नाथपंथियों को युद्ध के दौरान भोजन बनाने का समय न मिलने से अक्सर भूखा रहना पड़ता था। तब इस समस्या का हल निकालने के लिए एक दिन बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल और सब्जी को एक साथ पकाने की सलाह दी। तभी से गोरखपुर स्थित बाबा गोरखनाथ धाम में मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी भोज की परंपरा शुरू हुई।
घुघुतिया: न्योते जाते हैं कौवे
इस पर्व को उत्तराखण्ड में उत्तरायणी के नाम से मनाया जाता है। पर्वतीय अंचल में इस पर्व के प्रति गहरी जनास्था जुड़ी हुई है। 14 जनवरी, 1921 को उत्तरायणी के दिन कुमाऊंवासियों ने क्रूर अंग्रेजी राज की दमनकारी कुली बेगार प्रथा के काले कानून के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजा कर हमेशा के लिए दासत्व से मुक्ति पाई थी। पर्वतीय समाज में यह पर्व ‘घुघुतिया’ के रूप में भी मनाया जाता है जिसमें गुड़ और आटे से एक विशेष प्रकार के व्यंजन बनाकर कौवे न्यौते जाते हैं। इस मौके पर बागेश्वर और उत्तरकाशी में लगने वाला माघ मेला पूरे देश में विख्यात है।
लोहड़ी: नई फसल का उत्सव
पंजाब, हरियाणा और हिमाचल में मकर संक्रांति की पूर्व संध्या पर लोहड़ी का त्योहार नई फसल के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। पंजाबियों में नववधू और बच्चे की पहली लोहड़ी अति विशिष्ट होती है। लोहड़ी की रात खुले स्थान में पवित्र अग्नि जलाते हैं और परिवार तथा आस-पड़ोस के लोग लोकगीत गाते हुए नए धान के लावे के साथ खील, मक्की, गुड़, रेवड़ी, मूंगफली आदि उस पवित्र अग्नि को अर्पित कर परिक्रमा करते हैं।
पोंगल: नए साल का शुभारंभ
तमिलनाडु में इस पर्व को पोंगल के रूप में मनाया जाता है। इस 4 दिवसीय पर्व के साथ तमिलनाडुवासियों के नए साल का आगाज होता है। पोंगल का शाब्दिक अर्थ है मिट्टी के चूल्हे पर पकाना। पहले दिन लोग सूर्योदय से पहले उठकर अपने घर से पुरानी, अनुपयोगी चीजों और कूड़े-कचरे को जलाते हैं। उसके बाद घर में साफ-सफाई कर विधि-विधान से इंद्र देवता की पूजा करते हैं। भोग-प्रसाद के रूप में भगवान इंद्र को समर्पित पहली पोंगल को ‘भोगी पोंगल’ कहते हैं। दूसरी पोंगल ‘सूर्य पोंगल’ कहलाती है। इस दिन लोग मिट्टी के बर्तन में नए धान और गन्ने के रस या गुड़ से एक खास तरह की खीर बनाते हैं। पोंगल तैयार होने के बाद सूर्य की पूजा की जाती है और भोग लगाया जाता है। इस दिन नई कटाई के धान से बना खाना खाया जाता है, जिसमें मीठी खिचड़ी खास होती है। यह खिचड़ी एक नए मटके में नए चावल, गुड़ और ताजे दूध से बनाई जाती है। तीसरी पोंगल को ‘मट्टू पोंगल’ कहा जाता है। तमिल समाज में मट्टू बैल को भगवान शंकर का वाहन माना जाता है।
सबरीमाला तीर्थयात्रा का समापन
केरल में भगवान अयप्पा की सबरीमाला की वार्षिक तीर्थयात्रा की अवधि मकर संक्रांति के दिन ही समाप्त होती है। मकर संक्रांति पर लगने वाला बंगाल का गंगासागर मेला समूचे विश्व में विख्यात है। कहा जाता है कि यहीं पर गंगा जी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं। मोक्ष प्राप्ति की विशेष मान्यता के कारण ही कहा जाता है ‘सारे तीरथ बार बार, गंगासागर एक बार।’
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