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मूलत: मराठी में लिखी गई पुस्तक ‘चरैवेति! चरैवेति!!’ का अनुवाद अब तक हिंदी, गुजराती, उर्दू व अंग्रेजी भाषाओं में हो चुका है। उत्तर प्रदेश के माननीय राज्यपाल श्री राम नाईक द्वारा लिखित यह पुस्तक समाज एवं राष्ट्र जीवन के विभिन्न पहलुओं, विशेष रूप से राजनीतिक जीवन की चुनौतीपूर्ण एवं प्रेरणादायक घटनाओं का सिंहावलोकन कराती है। अपनी परंपराओं के अनुरूप ही उन्होंने अपना जीवन समाजसेवा में किस प्रकार समर्पित किया, इसका वर्णन इस पुस्तक में अत्यंत सुबोध शैली में मिलता है।
मैं अपने कार्यों का सिंहावलोकन करता हूं तो यह अहसास होता है कि मंत्रीपद का उपयोग जनहित के लिए करके पुण्य प्राप्ति का जो अनुभव होता है, वही जिंदगी भर की असली पूंजी होती है।
—राम नाईक, राज्यपाल, उ.प्र.
कालांतर से आत्मविस्मरण के कारण हमारे शाश्वत जीवन मूल्यों में क्रमश: क्षरण हुआ और सार्वजनिक जीवन में स्वार्थ एवं व्यक्तिवाद की मानो परिपाटी ही चल पड़ी। इस परिपाटी ने भारत की राजनीति पर व्यापक दुष्प्रभाव छोड़ा। 19वीं सदी में आयरलैंड में जन्मे सुप्रसिद्ध विद्वान जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का सपाट निष्कर्ष कि राजनीति बदमाशों के लिए आखिरी सहारा होता है (ढङ्म’्र३्रू२ ्र२ ३ँी ’ं२३ १ी२ङ्म१३ ाङ्म१ ३ँी २ूङ्म४ल्ल१िी’२), धर्म चालित राज्य की प्राचीन परिकल्पना से विभूषित भारत में भी चर्चित होने लगा। भारतीय राजनीति के ऐसे प्रदूषित, कंटकाकीर्ण एवं फिसलनशील परिवेश में श्री राम नाईक अपने पथ प्रदर्शक पंडित दीनदयाल उपाध्याय एवं अटल बिहारी वाजपेयी की ही भांति कर्मठता की मशाल लेकर उभरे।
पुस्तक का नाम – चरैवेति ! चरैवेति !!
लेखक – राम नाईक
प्रकाशक – भारत प्रकाशन,
नई दिल्ली
मूल्य – रु. 400/-
पृष्ट संख्या – रु. 267/-
( पेपर बैक संस्करण )
22 जुलाई, 2014 को राज्यपाल पद की शपथ लेने के तत्काल बाद ही उन्होंने घोषणा कर दी, ‘मुझे महामहिम कहकर न संबोधित किया जाए।’ उन्होंने यह भी निश्चय किया कि राजभवन में राज्यपाल नहीं, राजयोगी बन कर रहेंगे। ‘चरैवेति चरैवेति’ केवल उनकी पुस्तक का नाम नहीं है, बल्कि इसमें वर्णित विषयवस्तु से स्पष्ट होता है कि यह उनके जीवन का मूलमंत्र रहा है। 16 अप्रैल, 1934 को महाराष्ट्र के सांगली में जन्मे राम नाईक जी को लोग स्नेह से रामभाऊ कहते हैं। माता श्रीमती इंदिरा एवं पेशे से अध्यापक पिता श्री दा. वा. कुलकर्णी उपाख्य नाईक मास्टर व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्राप्त संस्कारों ने उन्हें जो अद्भुत दृष्टि, दिशा व सतत चलते रहने की प्रेरणा दी, उसी का प्रतिफल है ‘चरैवेति! चरैवेति!!’
औंध रियासत के आटपाडी गांव के जिस स्कूल में वे पढ़ने गए उसके पाठ्यक्रम का पहला पीरियड ‘सूर्य नमस्कार’ था। यह सूर्यनमस्कार का सद्प्रभाव था कि 60 वर्ष की आयु में उन्होंने कैंसर को परास्त किया और आज तंदुरुस्त तरुण की भांति दृढ़तापूर्वक समाज सेवा के प्रति समर्पित हैं।
बी.कॉम., एल.एल.बी. की डिग्री हासिल करने के बाद उन्होंने नौकरियां भी कीं, लेकिन उनका मुख्य ध्येय संघ-कार्य ही था। इसमें कोई व्यवधान न आए, इसलिए उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़कर प्राइवेट कंपनी में नौकरी की। जीवन के 25वें वर्ष में वे राजनीति में सक्रिय हुए और भारतीय जनसंघ में विभिन्न दायित्वों को निभाया। अपने प्रेरणास्रोत पं. दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर 25 सितंबर, 2013 को उन्होंने चुनावी राजनीति से निवृत्ति की घोषणा की। बाल्यकाल से ही राम नाईक जी की किसी से मित्रता का आधार श्रम-निष्ठा रही। 1950 के दशक में जब वे 18 वर्ष के थे तो एक दूध बेचने वाले युवा राजाभाऊ चितले से उनकी घनिष्ठ मित्रता हुई, जो आज भी बरकरार है। राजाभाऊ पुणे से कोसों दूर गांव भिलवडी से रोज तड़के साइकिल से दूध लाकर शहर में घर घर जाकर देते थे। राजाभाऊ चितले का यह विश्वास था कि यश प्राप्ति के लिए श्रम के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है। उनकी इसी श्रम-निष्ठा से रामभाऊ प्रभावित हुए और पढ़ाई के कारण पिताजी पर आ रहे आर्थिक बोझ को बांटने के लिए सुबह अखबार बेचने लगे। यहीं से दोनों की मित्रता बढ़ी।
दुनियाभर में प्रसिद्ध ‘चितले बंधु मिठाई वाले’ के निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले मूल पुरुष राजाभाऊ चितले ही हैं, जो सामाजिक सरोकारों में दिल खोल कर सक्रिय योगदान देते रहे हैं। उन्होंने मुंबई की झुग्गी झोपड़ियों, सार्वजनिक शौचालयों तथा दमघोटू गलियों में जिंदा रहने के संघर्षों को नजदीक से देखा और जिया। साठ के दशक में समाजवादी पार्टी की नेता मृणाल गोरे के पानी आंदोलन में सबकोसाथ लेकर चलने की सक्रियता ने जन साधारण के हृदय में राम नाईक जी के प्रति आदर भाव भरा। आदर्श विधायक एवं सांसद रामभाऊ म्हालगी को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘आदर्श जनप्रतिनिधि वही होता है जो उन सबका, जिन्होंने उसके हक में या विरोध में मतदान किया, जिन्होंने मतदान किया ही नहीं या जिन्हें मतदान का अधिकार मिला नहीं, ऐसे सम्पूर्ण वर्ग का प्रतिनिधित्व करता हो।’’ इस वचन को राम नाईक जी ने चरितार्थ किया। 1978 में पहली बार वे बोरीवली विधानसभा क्षेत्र से भारी बहुमत से चुनाव जीते, लेकिन कुष्ठ रोगियों और मछुआरों वाले मतदान केंद्रों में उन्हें क्रमश: दो व तीन मत ही मिले। फिर भी उन्होंने कोई वैमनस्य भाव न आने दिया और उन सभी के साथ आत्मीय संबंध स्थापित किए और उनके लिए अनेकों कार्य करवाए जिसका उल्लेख इस पुस्तक में है। सबको साथ लेकर चलने वाले इस अहैतुकी आत्मीयता भाव को कितने राजनेता समझते हैं? मुंबई में विश्व की पहली महिला लोकल ट्रेन चलवा कर, अनगिनत झुग्गी झोपड़ियों में महिलाओं के लिए शौचालय, घरों में जलप्रदाय, महिलाओं के लिए विशेष रूप से नौकरी, स्तनपान को प्रोत्साहन, लाखों गैस सिलिंडरों का वितरण, युद्ध में शहीद वीरों की पत्नियों का सम्मान व उन्हें स्वावलंबी बनाने के लिए गैस एजेंसी या पेट्रोल पंप देना, ऐसे अनेक सत्कृत्यों से श्री राम नाईक ने महिलाओं का सशक्तीकरण किया। इसके अलावा, रा.स्व.संघ की सामाजिक विश्वविद्यालय जैसा अनुकरणीय कार्य कर रही ‘केशव सृष्टि’ एवं ‘रामभाऊ म्हालगी’ जैसी संस्थाएं स्थापित करने में उनकी भूमिका का विस्तृत विवरण भी पुस्तक में है। एक बार श्री राम नाईक की प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई से तीखे विवाद की नौबत आ गई थी। उस समय राम नाईक मुंबई जनता पार्टी के अध्यक्ष थे। जयप्रकाश नारायण मुंबई के जसलोक अस्पताल में इलाज करवा रहे थे तो प्रधानमंत्री का मुंबई आने का कार्यक्रम बना। जयप्रकाश नारायण से मिलने के बाद उन्हें शिवाजी पार्क में एक सभा को संबोधित करना था। लेकिन मुंबई आने पर मोरारजी भाई ने अस्पताल जाने से मना कर दिया। काफी मान मनौवल के बाद भी वे नहीं माने तो राम नाईक जी ने कहा कि यदि जसलोक अस्पताल जाने का आपका कार्यक्रम रद्द हुआ तो वे पार्टी अध्यक्ष के नाते सभा को भी रद्द कर देंगे, जिससे उनकी तथा उनकी पार्टी की छवि को धक्का लगेगा। मोरारजी भाई मान गए और जयप्रकाश नारायण से मिले व सभा को भी संबोधित किया। इसके अलावा, पुस्तक इस बात का भी उल्लेख है कि जब मोरारजी भाई की सरकार गिरी और मध्यावधि चुनाव की घोषणा हुई तो कई लोग जनता पार्टी छोड़ गए, लेकिन राम नाईक मुंबई के अध्यक्ष बने रहे। उनकी अध्यक्षता में पार्टी ने मुंबई का गढ़ जीता। बाद में 6 अप्रैल, 1980 को भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ। 30 दिसंबर, 1980 को मुंबई के ऐतिहासिक शिवाजी पार्क में अटल जी की गर्जना, ‘अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा’ के साथ पार्टी के प्रथम महाधिवेशन का समापन हुआ। देशभर से आए 54,000 प्रतिनिधियों वाले इस महाधिवेशन को संपन्न करने के लिए संयोजक का चुनौतीपूर्ण दायित्व मुंबई भाजपा अध्यक्ष के नाते राम नाईक जी ने अपने ऊपर लिया था। साथ ही, यह पुस्तक उनके जीवन चरित्र का एक महत्वपूर्ण संदेश देती है, वह है किसी भी पद पर रहते हुए संघ स्वयंसेवक और भाजपा का कर्मठ, कर्तव्यपरायण तथा कर्तव्यकठोर कार्यकर्ता बने रहने की उनकी जिद। 2004 में चुनाव हारने के बाद उन्हें फिर से संगठन का कार्य देखने का दायित्व मिला और केंद्रीय अनुशासन समिति का अध्यक्ष बनाया गया। अध्यक्ष के नाते प्रिय सहयोगी तथा दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना व सुश्री उमा भारती के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी। राज्यपाल बनने से पहले वे भाजपा द्वारा स्थापित ‘सुशासन प्रकोष्ठ’ के संयोजक रहे।
1989 में लोकसभा पहुंचने पर पहली बार उन्होंने संस्कृत में शपथ ली। बंबई का नाम बदल कर मुंबई रखने, संसद में राष्ट्रगान एवं राष्ट्र गीत की शुरुआत जैसे कार्यों में राम नाईक जी भूमिका उल्लेखनीय रही। परिस्थिति या सिद्धांतों से समझौता किए बिना किसी भी समस्या को सूक्ष्म अनुवीक्षण के मौलिक व स्वकीय सांचे में ढाल एवं समझकर निर्भीकता से उसका समाधान निकालने का प्रयत्न करना मानो राम नाईक जी का स्वभाव रहा है। इसी कारण उन्होंने स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह बेबी फूड पर प्रतिबंध लगाकर स्तनपान को बढ़ावा देने का कानून बनाने लिए संघर्ष किया और सफल भी हुए। भारत के संविधान का हिंदी संस्करण जिसमें श्रीराम, श्रीकृष्ण, गौतमबुद्ध, झांसी की रानी आदि के रेखाचित्र हैं उसे संसद व बाजार में लाने, संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम, संत एकनाथ आदि पर डाक टिकट या सिक्के जारी करवाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। लगातार तीन बार विधायक, पांच बार सांसद व दो बार अहम मंत्रालयों में मंत्री रहे राम नाईक लिखते हैं, ‘‘मैं अपने कार्यों का सिंहावलोकन करता हूं तो यह अहसास होता है कि मंत्रीपद का उपयोग जनहित के लिए करके पुण्य प्राप्ति का जो अनुभव होता है, वही जिंदगी भर की असली पूंजी होती है। इसी अहसास ने मुझे उस पद से कई कार्य करने के लिए प्रेरित किया। मुझे विश्वास है कि लोगों को भी ऐसा ही लगता होगा।’’
पुस्तक में वर्णित परिस्थितिनिरपेक्षता के अनेक रिकॉर्ड बना चुके राम नाईक ने उत्तर प्रदेश की अनेक बहुआयामी समस्याओं की जननी बन सकने वाली अनेक समस्याओं का निस्तारण किया। अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष को कैबिनेट मंत्री का दर्जा देने संबंधी अध्यादेश, विधान परिषद् की सदस्यता हेतु सरकार के द्वारा भेजे नामों को स्वीकृति प्रदान करना एवं लोकपाल की नियुक्ति जैसे अनेक कंटकाकीर्ण विषयों की कठिन परीक्षा में उनके ससम्मान उत्तीर्ण होने का अद्भुत शब्द चित्रण मिलता है। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि इसमें भाषा-सौष्ठव एवं उद्दिष्ट भाव-सम्प्रेषण को किसी संभावित द्वंद्व के ऊपर रखा गया है। डॉ. बलराम मिश्र
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