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चौथा स्तम्भ/नारद
मुद्दों पर मीडिया के रुख और रुखाई की परतें खंगालता यह स्तंभ समर्पित है विश्व के पहले पत्रकार कहे जाने वाले देवर्षि नारद के नाम। मीडिया में वरिष्ठ पदों पर बैठे, भीतर तक की खबर रखने वाले पत्रकार इस स्तंभ के लिए अज्ञात रहकर योगदान करते हैं और इसके बदले उन्हें किसी प्रकार का भुगतान नहीं किया जाता।
मुगलों और अंग्रेजों से लेकर कांग्रेस पार्टी तक, इन सभी में एक समानता रही है। इन सबने भारत पर शासन करने के लिए जाति व्यवस्था को औजार की तरह इस्तेमाल किया। इनकी सफलता के पीछे समाज को जाति के आधार पर बांटने की रणनीति रही है। अब जब देश के ज्यादातर हिस्से कांग्रेसी राज से मुक्त कराए जा चुके हैं, सत्ता वापस पाने के लिए कांग्रेस उसी पुराने आजमाए हुए औजार का इस्तेमाल करने की तैयारी में है। हैरानी तब होती है जब मीडिया का एक वर्ग भी हिंदुओं को जातियों में बांटने में योगदान देता दिख रहा है। दबे-छिपे रूप में यह कोशिश हमेशा से रही है, लेकिन अब यह काम खुलकर किया जा रहा है। तमाम कथित बड़े पत्रकार ऐसी बातें खुलेआम लिख और बोल रहे हैं जिससे समाज में जातीय द्वेष और अविश्वास पैदा होता हो। यह सिर्फ संयोग नहीं है बल्कि इसके पीछे सोची-समझी रणनीति है।
अभी हाल चारा घोटाले के करीब आधा दर्जन मुकदमों में से दूसरे केस में अदालत का फैसला आया। लालू यादव समेत कई आरोपी दोषी करार दिए गए। लालू यादव के लिए सेकुलर मीडिया का प्रेम कोई छिपी बात नहीं है। भ्रष्टाचार का जो चारा उन्होंने खुद खाया, उसका एक बड़ा हिस्सा उन्होंने अपने करीबी पत्रकारों को भी खिलाया। यही कारण है कि संगठित लूट, वंशवाद और राजनीति के अपराधीकरण जैसे आरोपों के बावजूद पत्रकारों की एक बड़ी जमात लालू को सामाजिक न्याय का सूरमा साबित करने में जुटी रहती है। इसी जमात की सहानुभूति का नतीजा है कि तमाम बड़े चैनल उनके बरी होने की झूठी खबर ‘ब्रेकिंग न्यूज’ के रूप में चला देते हैं। एक क्रांतिकारी एंकर हाथ मसलते हुए पूछता है कि ‘क्या आडवाणी का रथ रोकने वाले लालू यादव को आज इंसाफ मिलेगा?’ एक अपराधी से यह स्वार्थ आधारित प्रेम यहीं तक होता तो चल जाता, हद तब हो गई जब शेखर गुप्ता ने एक लेख के जरिए लालू यादव पर आए फैसले को जातीय रंग दे डाला।
इसी तरह विवादित पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने जयराम ठाकुर को हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाए जाने को जातीय रंग दिया। उन्होंने ट्वीट किया कि भाजपा के ज्यादातर मुख्यमंत्री अगड़ी जातियों के हैं। सोशल मीडिया पर लोगों ने उन्हें याद दिलाया कि भाजपा के मुख्यमंत्रियों में पिछड़े वर्गों और जनजातियों ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक भी शामिल हैं। यह विश्वास करना मुश्किल है कि सरदेसाई को यह बात पता नहीं रही होगी। वास्तव में पत्रकारों की एक बड़ी टोली अपने राजनीतिक आका के इशारे पर हिंदू समाज को बांटने की कोशिश में जी-जान से जुटी है। 2019 के लिए यह कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा है। प्रतिबद्ध पत्रकारों का झुंड उसी के लिए माहौल बनाने में जुटा है।
तभी गुजरात के तीन जातीय नेताओं में हमारी प्रगतिशील मीडिया को भविष्य की उम्मीद दिखाई दे रही है। अब ये तीनों 2019 तक सभी टीवी चैनलों, लिटरेचर फेस्टिवलों और अखबारों के संपादकीय पन्नों पर छाये रहेंगे। हर मुद्दे पर मीडिया उनकी प्रतिक्रिया को ऐसे छापेगा मानो उनकी राय सबसे महत्वपूर्ण है। आजतक और एनडीटीवी इस काम में पहले ही जुट चुके हैं। ठीक उसी तर्ज पर जैसे देशद्रोही नारे लगाने वाले जेएनयू के कुछ अधेड़ छात्र नेता देखते ही देखते मीडिया की आंखों के तारे हो गए थे।
इकोनॉमिक टाइम्स ने खबर छापी कि मोदी सरकार के कारण दिल्ली में रोहिंग्या शरणार्थियों की नौकरियां जा रही हैं। क्या उसे यह नहीं पता कि शरणार्थियों और घुसपैठियों को कोई भी सभ्य देश नौकरी की छूट नहीं देता। उसके लिए ‘वर्क परमिट’ की जरूरत होती है। सेकुलरवाद में अंधे हो चुके इन मीडिया संस्थानों और पत्रकारों के लिए उनका एजेंडा देश और कानून से बढ़कर है।
अभिनेत्री जायरा वसीम की झूठी शिकायत पर जेल में बंद विकास सचदेवा को बीते हफ्ते जमानत मिल गई। एक संदिग्ध किस्म की शिकायत पर मीडिया ने उन्हें दोषी साबित करने की पूरी कोशिश की थी। जब सच्चाई सामने आ गई है, क्या यह मीडिया की जिम्मेदारी नहीं कि वह इस बात की पड़ताल करे कि जायरा वसीम की इस हरकत के पीछे क्या उद्देश्य था? लेकिन हमारे कुछ मेधावी पत्रकार तो अभिनेत्री अनुष्का शर्मा की शादी के बाद मांग में सिंदूर लगाने पर टीका-टिप्पणी में व्यस्त हैं। उनकी परिभाषा में सिंदूर या कोई भी हिंदू प्रतीक दकियानूसी होता है।
उधर, मीडिया की आजादी पर काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट (सीपीजे) की रिपोर्ट 21 दिसंबर को आई। इस रिपोर्ट के मुताबिक इस साल भारत में 'खतरनाक मिशन पर काम करते हुए' तीन पत्रकारों की हत्या हुई। इनमें त्रिपुरा के दो पत्रकारों सुदीप भौमिक और शांतनु भौमिक के नाम हैं जो वामपंथी हिंसा का शिकार हुए। तीसरी पत्रकार गौरी लंकेश हैं, जिनकी हत्या का शक माओवादियों पर है, क्योंकि वे उनके आत्मसमर्पण के लिए पुलिस की मदद कर रही थीं।
लिहाजा इस साल यह खबर मीडिया से पूरी तरह गायब रही। किसी अखबार या चैनल ने इसका जिक्र तक नहीं किया। शायद इसलिए क्योंकि इससे मीडिया की आजादी पर उनके उस झूठ की पोल खुल जाएगी जो उन्होंने बीते कई सालों में गढ़ा है। ल्ल
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