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सज्जन कुमार तुल्स्यान
वरिष्ठ आयकर सलाहकार, कोलकाता
जुगल जी का स्मरण करते ही एक ऐसे कर्मठ एवं प्रेरक व्यक्तित्व का बिंब आंखों के सामने उपस्थित होता है जिसने अपने जीवन का बड़ा अंश समाज को समर्पित कर राष्टÑनिर्माण हेतु अपनी अनन्य निष्ठा प्रमाणित की।
मातृभूमि के प्रति श्रद्धा तथा राष्टÑ के प्रति भक्ति का भाव केवल वाणी का विलास नहीं है, उसके लिए स्वयं सक्रिय होकर कुछ करने का संकल्प तथा अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को संस्कार-संपन्न करके निष्ठा जगाने की जरूरत होती है। व्यक्ति-निर्माण ही राष्टÑ-निर्माण का मूल मंत्र है, इस बात को अंत:करण में संजोकर भविष्यदर्शिनी दृष्टि से समाज की विभिन्न संस्थाओं में कार्यकर्ताओं को उनकी योग्यता के अनुसार संबद्ध करने का जो काम जुगल जी ने किया, वह विरल एवं विशिष्ट तो है ही, यह उनकी सृजनशील सक्रियता को भी उजागर करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उन्हें यह विवेक राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ से प्राप्त हुआ।
स्मरणीय जुगल जी
दुर्गा व्यास, मंत्री, सेठ सूरजमल जालान पुस्तकालय
जीवन में कुछ लोगों का ह्दय से चरण स्पर्श करने का मन करता है, उनमें से जुगल भैया एक थे। प्रणाम करने पर हर बार वे कहते है कि ‘आप यह मत किया कीजिए’ और मेरा जवाब होता कि ‘कितने लोग हैं जिनके समक्ष मन और माथा दोनों झुकता है, करने दिया कीजिए।’ जुगल जी सच्चे अर्थ में कर्मयोगी थे।
मैं जब भी उनसे मिलने जाती, वे कुछ लिखते-पढ़ते ही मिलते और बातें भी अपने कष्ट की नहीं, पुस्तकों या अच्छे विचारों के प्रसार की ही करते। कोई पन्ना या पुस्तक हाथ में देकर कहते, इसे पढ़िए और इन बातों का कहीं न कहीं उपयोग कीजिए। फिर फोन कर पूछते, वह पुस्तक पढ़ी या नहीं। पठनशील बनाने की, विचारों को गढ़ने की एवं बहुत सार्थक करवा लेने की भावना तो जैसे उनके व्यवहार में कूट-कूट कर भरी थी। जुगल जी की बातें सही-गलत का, उचित-अनुचित का स्पष्ट दिशा निर्देश देती थीं। कोई किंतु-परंतु नहीं, कोई उलझन नहीं, उनकी स्पष्ट सोच, दूरदृष्टि, दृढ़ निश्चय एवं सटीक निर्णय ने स्वयं जुगल जी से ही नहीं, उनके सहयोगियों से भी बड़े-बड़े काम करवा लिए। व्यक्ति की क्षमताओं को पहचान कर उपयुक्त काम करवा लेना उन्हें बखूबी आता था। वे हमेशा कहा करते थे कि हिंदू-संस्कृति ‘ही’ की नहीं, ‘भी’ की संस्कृति है। ‘हम ही’ सही हैं, ऐसा नहीं है, ‘दूसरे भी’ सही हो सकते हैं यानी सबको समाहित करने की, साथ मिलकर चलने की संस्कृति है, संगठित होकर विकसित होने की संस्कृति है। अपने जीवन में उन्होंने ऐसा ही किया भी। इसीलिए विरोधी विचार-धाराओं वाले लोगों के बीच भी वे प्रिय थे। उनका सिद्धांत था ‘मतभेद’ होना चाहिए, ‘मनभेद’ नहीं।
सचाई का समर्थन, गलत का विरोध उनका स्वभाव था। उनकी सोच बिल्कुल स्पष्ट होती थी। उनकी इसी भंगिमा ने मुझे उनका प्रशंसक बनाया था। मुझ जैसे अनेक लोगों को उन्होंने प्रेरित किया। उनका मानना था कि परिस्थितियां जैसी भी हैं, हम उन्हें पूरी तरह बदल नहीं सकते पर अपने कर्म से, निष्ठा से एवं साहस से कुछ ठीक अवश्य कर सकते हैं। हमें अपने आस-पास को लेकर ही काम करना है। यह केवल उपदेश नहीं था, उनके जीवन में युवावस्था से लेकर जीवन के अंतिम समय तक चरितार्थ था। जो पारिवारिक, सामाजिक, व्यावसायिक, मानसिक या शारीरिक उतार-चढ़ाव, व्यवधान एक साधारण व्यक्ति के जीवन में आते हैं, वे जुगल जी के जीवन में भी आए पर राष्टÑ, समाज एवं साहित्य को कुछ अर्पण करने का कार्य निरंतर चलता रहा। देश की अनेक साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं को वैचारिक एवं आर्थिक ऊर्जा प्रदान करने वाले जुगल जी महानगर के पुरोधा थे। वे समाज के केवल रत्न ही नहीं, कोहिनूर थे, जिनका आभामंडल विराट था। छोटे से छोटा व्यक्ति उनके सान्निध्य में आकर क्षमतावान बन जाता था तो बड़े से बड़ा व्यक्ति महिमावान। उनके जैसा निष्ठावान, प्रज्ञावान, ऊर्जावान, विचारवान संगठनकर्ता, कार्यकर्ता हम सबमें एक विचार के रूप में, एक भाव के रूप में सदा अमर है।
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