ऐसे थे जैथलिया जी
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ऐसे थे जैथलिया जी

by
Jan 1, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Jan 2018 11:11:10

आत्मीयता, व्यवहार कुशलता, व्यक्ति नहीं समष्टि का चिंतन  जैथलिया जी का चारित्रिक गुण था। वे ध्येयनिष्ठा की प्रतिमूर्ति थे। उनके जीवन से जुड़े अनेक प्रेरक प्रसंग हैं। यदि उनको लिपिबद्ध किया जाए तो एक महाग्रंथ तैयार हो जाएगा। उनके जीवन आदर्श से जुड़े कुछ उल्लेखनीय प्रसंग बानगी के तौर पर प्रस्तुत हैं-

आत्मीयता से अभिभूत हुर्इं महादेवी वर्मा

हिंदी साहित्य की दीपशिखा महादेवी वर्मा जुगल जी और साथियों के विशेष आग्रह पर श्री छोटीखाटू हिंदी पुस्तकालय के 1979 में आयोजित वार्षिक समारोह में पधारीं। कार्यक्रम के पश्चात् जुगल जी ने छोटीखाटू के डूंगर की तलहटी में अवस्थित निर्भयराम बाबा की बगीची में उनको प्रकृति के आनंद हेतु पधारने की प्रार्थना की तो वे सहर्ष तैयार हो गर्इं। बगीची के पास कुछ बालकों को खेलते देखा तो पूछा, ये किसके बच्चे हैं। जुगल जी ने उन्हें बताया कि यहां पास ही हरिजन बस्ती है, ये बच्चे वहीं के हैं। उनकी उत्सुकता बढ़ गई और उन्होंने कहा कि उनकी चाय पीने की इच्छा हो रही है, क्या इस बस्ती के किसी घर से चाय मंगा सकते हैं? जुगल जी उक्त बस्ती के परिचित के घर गए तथा चाय बनवाकर साथ ले आए। बस्ती के कुछ और लोग भी वहां आ गए। महादेवी जी इससे अत्यंत प्रसन्न और  प्रभावित हुर्इं। वे मन ही मन खुश थीं कि जुगल जी का तथाकथित ‘पिछड़ी’ जातियों में भी इतना सम्मान और आदर भाव है। इस प्रसंग के कई दिन बाद कार्यवश जुगल जी का इलाहाबाद जाना हुआ। वे महादेवी जी से मिलने उनके आवास पर पहुंचे। उनके निजी सचिव ने बताया कि ‘मुलाकात होना संभव नहीं है। (उन्होंने प्रतीक्षारत महानुभावों की ओर इशारा किया।) फिर भी आप चाहें तो बैठ सकते हैं।’ वे बैठ गए। महादेवी जी जब नीचे उतरीं तो उनकी नजर जुगल जी पर पड़ी। उन्होंने जुगल जी का हाथ पकड़ा और बैठक के कमरे में ले गर्इं। वहां खड़े सभी लोग दंग रह गए। महादेवी जी अपने हाथ से फल काट कर जुगल जी को देने लगीं। जुगल जी ने कहा, ‘अम्मा जी आप बीमार चल रही हैं, यह श्रम आप न करें।’ महादेवी जी ने स्नेहसिक्त वाणी में कहा-‘मां भी कभी बीमार पड़ती है क्या? जुगल जी ने महादेवी जी से निवेदन किया कि बाहर काफी लोग प्रतीक्षारत हैं अत: उन्हें आज्ञा दें। महादेवी जी ने कहा, उन्हें बैठे रहने दीजिए, वे सब अपने स्वार्थ से आए हैं। साहित्य एवं समाज के लिए नि:स्वार्थ भाव से काम करने वाले आप जैसे लोगों से मिलकर अतिरिक्त आनंद आता है।’ जुगल जी ने अपने आचरण और व्यवहार से उनसे आत्मीय संबंध बना लिया था जो हम सब लोगों के लिए भी अनुकरणीय उदाहरण है।
    प्रस्तुति : बंशीधर शर्मा, कोलकाता

पुस्तकालय भवन सार्वजनिक सम्पत्ति
अक्सर देखा जाता है कि गांव के सार्वजनिक भवन दानदाताओं की उदासीनता के कारण दुर्दशाग्रस्त हो जाते हैं। नाम की पट्टियां तो लग जाती हैं पर उचित साज-संभाल नहीं होती। जुगल जी ऐसी नाम वाली पट्टियों में विश्वास नहीं करते थे। अत: उन्होंने पुस्तकालय भवन में किसी अनुदानकर्ता के नाम की पट्टी नहीं लगने दी। उनके इस विचार से उनके सहयोगी भी सहमत थे। एक बार दानवीर सेठ सोहनलाल दूगड़ छोटीखाटू आए तो उन्होंने पुस्तकालय भवन देखने की इच्छा जताई। जैथलिया जी उन्हें आदर के साथ पुस्तकालय भवन लेकर आए। भवन में प्रवेश करने के पूर्व दूगड़ जी ने वैद्य गुरुदत्त के कर कमलों से उद्घाटन वाली नाम पट्टिका को प्रणाम किया तत्पश्चात् अंदर प्रवेश किया। कुछ देर में बाहर आए, फिर अंदर गए और घूम-घूम कर उक्त भव्य भवन का अवलोकन करते रहे। लगता था जैसे कुछ ढूंढ रहे हैं। असमंजस में पड़े जुगल जी ने जब जिज्ञासावश इस बारे में पूछा तो सेठ जी ने सुखद आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि इस छोटे से गांव में पुस्तकालय का इतना बड़ा भवन देख रहा हूं जिसमें दानदाताओं की नाम पट्टिका नहीं लगी है। जुगल जी ने उनको बताया कि मैंने इस संस्था को अपने मित्रों के परामर्श से व्यक्तिनिष्ठ नहीं, बल्कि ध्येयनिष्ठ संस्था के रूप में खड़ा करने का प्रयास किया है। हमने संघ शाखाओं से यही सीखा है। बिना दान पट्टी के भवन का निर्माण करवाया, ताकि इसको छोटीखाटू के लोग अपनी संपत्ति मानकर देखभाल करें। दूगड़ जी स्वयं इस चिंतन में विश्वास करते थे। वे कई बार उन अनुदानित भवनों में प्रवेश करने से मना कर देते थे जब तक दान प्राप्तकर्ताओं द्वारा उनके नाम के पत्थर नहीं हटाए जाते थे। यह थी जुगल जी की सार्वजनिक संस्थाओं के प्रति सामाजिक दृष्टि।
    प्रस्तुति : प्रकाश बेताला, भुवनेश्वर

संघ कार्य में समर्पण और प्रतिबद्धता
संघ के प्रति जुगल जी का समर्पण भाव था। उन दिनों वे प्रभात शाखा के मुख्य शिक्षक हुआ करते थे। पढ़ने-लिखने में कुशाग्र बुद्धि, साहित्य से जुड़ाव, कविता आलेख लेखन चलता रहता था। ये रचनाएं समय-समय पर समाचार पत्रों में प्रकाशित भी होती थीं। एक दिन दोपहर के समय भंवरलाल जी मल्लावत उनके कार्यालय में आए तो देखा जुगल जी कविता लिख रहे हैं। उन्होंने भंवर जी को भी कविता सुनाई। भंवर जी ने प्रशंसा की। फिर पूछने लगे- अब तक ऐसी कितनी कविताएं लिख चुके हैं। उन्होंने कहा यही कोई 60-70 । तब भंवर जी ने कहा- जुगल जी, पहले आप कविता लिखेंगे, फिर मित्रों को सुनाएंगे, समाचार पत्रों में प्रकाशन होगा, फिर प्रशंसा के फोन आएंगे और आप भी प्रशंसा सुनने के लिए कुछ फोन करेंगे। आपका जब इतना समय चला जाएगा तब अपनी वकालत का काम कब करोगे और फिर संघ के कार्य के लिए तो समय ही नहीं बचेगा। यह सुनकर जुगल जी सकते में आ गए। भंवर जी ने उनसे सारी कविताओं का पुलिंदा लिया और फाड़कर कूड़ेदान में डाल दिया और निर्देश दिया कि संघ कार्य के लिए समय बचाइए और अधिक प्रभावी शाखाएं खड़ी कीजिए। जुगल जी अपनी संपूर्ण ऊर्जा के साथ संगठन को प्रभावी बनाने में जुट गए। जुगल जी की कुशल संगठनकर्ता के रूप में पहचान थी। 1963 में उन्होंने वकालत शुरू की। वे दिन में अदालत जाते और शाम को बांगड़ बिल्डिंग के अपने कार्यालय में वादियों से मिलते। तब वे प्रभात शाखा जाया करते थे। उन दिनों राजस्थान से आने वाले छात्रों/स्वयंसेवकों के बीच संघ कार्य बढ़ाने के लिए  एक योग्य कार्यकर्ता की आवश्यकता थी। कुशल संगठनकर्ता और ओजस्वी वक्ता होने के कारण संघ के अधिकारियों की उन पर नजर थी। प्रांत प्रचारक श्री केशव दीक्षित एवं महानगर संघचालक श्री कालीदास बसु ने जुगल जी से सायं विभाग कार्यवाह का दायित्व लेने हेतु आग्रह किया। जुगल जी ने वकालत तथा पिता के इकलौते पुत्र का कर्तव्य निर्वहन का हवाला देते हुए उनके आग्रह को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। जब भंवर जी ने यह सुना तो वे जुगल जी के पास पहुंचे। औपचारिक बातें करते-करते कार्यकर्ताओं की सुविधा-असुविधा की चर्चा करने लगे। अचानक जुगल जी के मुंह से निकला- भंवरजी, चाहे सुविधा हो या असुविधा, संघ का कार्य तो होना ही चाहिए। बस उनका इतना बोलना था कि उन्होंने तुरंत जुगल जी को बगले दिन से सायं विभाग कार्यवाह का दायित्व संभालने की आज्ञा दे दी। जुगल जी ने अपने कार्यालय का समय परिवर्तित कर रात 9 से 11़ 30 कर दिया। वे शाखा वेश में ही कार्यालय आते और वादियों का काम करते। उन्होंने अपने दायित्व से कभी छुट्टी नहीं ली। ऐसे थे जुगल जी।
        प्रस्तुति : मोहनलाल पारीक, कोलकाता

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