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आज जब देश के उत्तर और पश्चिम में चुनावी बयार बह रही है, चलिए, कुछ बीती बातों को याद कर लेते हैं। ये दोनों दिशाएं भारतीय राजनीति के दो ऐसे राजनीतिक स्तंभों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो एक ही कालखंड में सक्रिय रहे और राजनीति पर अपनी स्थायी छाप छोड़ गए।
सरदार वल्लभभाई पटेल गुजरात के नाडियाड से थे और जवाहरलाल नेहरू के वंशवृक्ष की जड़ें हिमालयी राज्य जम्मू-कश्मीर से जुड़ी थीं। संयोग ही है कि उपरोक्त दो विराट व्यक्तित्वों की जयंतियों (क्रमश: 31 अक्तूबर और 14 नवंबर) के बीच भारतीय राजनीति गुजरात और हिमाचल में अपने लोकोत्सव में डूबी है। हालांकि तुलना की जरूरत नहीं, किन्तु मानना होगा कि सिर्फ जवाहरलाल नेहरू पर केंद्रित रहकर और उन्हें ही बार-बार उल्लिखित करते हुए देश की सबसे उम्रदराज पार्टी (इंडियन नेशनल कांग्रेस) केवल एक परिवार तक सिमट गई। जबकि सरदार पटेल और ऐसे ही अन्य राष्टÑनायकों को पूरे मन से स्वीकारते और उनके योगदान को बार-बार देश के सामने रेखांकित करते हुए भारतीय जनता पार्टी पूरे देश के दिल पर राज कर रही है।
प्रश्न उठता है-कांग्रेस के साथ यह गड़बड़
कैसे हुई और भाजपा को सामाजिक सफलता का मंत्र
कैसे मिला!
दरअसल, कभी राष्ट्रीय विचारों का सामूहिक मंच रही कांग्रेस पार्टी को कुनबे की बपौती समझने की भूल नेहरूकाल से ही शुरू हुई। पार्टी के भीतर पीढ़ी दर पीढ़ी पुख्ता होते इस विचार का दंश अंतत: सांगठनिक एवं वैचारिक कमजोरी के तौर पर पार्टी को झेलना पड़ा। इसके बरअक्स, भारतीय जनता पार्टी ने अपने पूर्ववर्ती रूप (भारतीय जनसंघ) में ही वह मंत्र पा लिया था जो आगे चलकर पार्टी को सर्वसमावेशी आधार देने वाला था। यदि कहा जाए कि पं. दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद का दर्शन आज भाजपा की लीक को सही रखने वाली सीख साबित हुआ है तो गलत नहीं होगा। आज जम्मू-कश्मीर से लगते पर्वतीय राज्य हिमाचल में जहां जनता राजनीतिक भ्रष्टाचार से आक्रोशित है, वहीं काठियावाड़ से गांधीनगर तक जातीय समीकरणों ने राज्य की राजनीति में उथल-पुथल मचाई हुई है।
ऐसे में यह जिज्ञासा दिलचस्प हो सकती है कि कश्मीर से लेकर तिब्बत तक के मुद्दे पर ढुलमुल रवैया बरतने वाला नेहरूवादी विचार जनता को अब भी खींचता है या करीब 565 रियासतों को सूत्रबद्ध कर भारत का वर्तमान नक्शा खींचने वाला, भाग्यनगर (हैदराबाद) के भाग्य का फैसला करने वाला सरदार पटेल का दृढ़ रवैया लोगों को ज्यादा भाता है।
हालांकि यह सही है कि हिमाचल और गुजरात, दोनों राज्यों में चुनाव नेहरू या पटेल के नाम पर नहीं हो रहे, किन्तु साथ ही यह बूझना भी सही है कि राजनीति के किन प्रतीकों से जनता का मोहभंग हुआ और किनके प्रति विश्वास बरकरार है। कौन-सी राजनीति चलेगी? नतीजा जो भी हो किन्तु दोनों राज्यों के नतीजों को यदि दूरंदेश, स्पष्ट और दृढ़ राजनीति के प्रति जनता के दृष्टिकोण, प्रतिसाद के तौर पर देखा जाए तो गलत क्या है?
जानकार कहते हैं कि यदि नेहरू ने पटेल की सुनी होती, उनकी चिट्ठियों की उपेक्षा न हुई होती तो भारतीय राजनीति की दिशा और दशा कुछ और ही होती। यह बात कांग्रेस के लिए भी सही बैठती है—यदि इस पार्टी ने एक परिवार को ही तारणहार न माना होता तो पार्टी की दिशा-दशा कुछ और होती।
ऐसे में जबकि सभी चुनावी सर्वेक्षण दोनों राज्यों में भाजपा की जीत अवश्यंभावी बता रहे हैं, कांग्रेस अपने युवराज का वही चिराग रगड़ रही है। ऐसे में लोकतंत्र का ऊंट किस करवट बैठेगा? जवाब माहौल में तैर रहा है।
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