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स्वामी विवेकानंद की दिव्यता से प्रभावित होकर मार्गरेट से भगिनी निवेदिता बन इस पुण्यात्मा ने भारत में न सिर्फ सेवा कार्य किए बल्कि स्वाधीनता संग्राम में भी हिस्सा लिया
प्रवीण गुगनानी
भारतीय इतिहास में अंग्रेजों का एक सुदीर्घ स्थान रहा है किंतु इस विस्तृत भारतीय अंग्रेजी इतिहास में कुछ गिनी-चुनी महिलाएं ही ऐसी हुई हैं जिनके विषय में कहा जा सकता है कि वे स्मरणीय हैं, उन्होंने कुछ परिवर्तनकारी किया है। इस क्रम में आयरिश मूल की मार्गरेट नोबेल ऐसी महिला रही हैं जिन्हें भारत के संदर्भ में युगांतरकारी महिला के रूप में स्मरण किया जा सकता है। मार्गरेट नोबेल स्वामी विवेकानंद के अध्यात्म, दर्शन व मानवसेवा के विचार से प्रेरित होकर भारत मंत्र में दीक्षित हो गई थीं। स्वामीजी से प्रभावित होकर भगिनी निवेदिता बनकर उन्होंने स्वामीजी को अपना आध्यात्मिक गुरु बना लिया व अपना कार्यक्षेत्र भारत को बनाया। भगिनी निवेदिता, जिनका जीवनकाल 1867 से लेकर 1911 तक रहा, का मूल नाम ‘मार्गरेट एलिजाबेथ नोबेल’ था। स्वामी विवेकानंद की यह अतीव संवेदनशील, कुशाग्र, मेधावी शिष्या समरसता के विचारों की धनी सामाजिक कार्यकर्ता तो थीं ही, साथ ही एक यथार्थपरक लेखिका भी थीं।
भगिनी निवेदिता यूं तो पश्चिमी मूल की थीं किंतु उन्होंने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन को समय-समय पर समर्थन दिया था। निवेदिता भारत में महिला शिक्षा की प्रखर प्रवक्ता थीं व उन्होंने इस क्षेत्र में विस्तृत व स्मरणीय कार्य किया था। स्वामी विवेकानंद की गुरु मां, स्वामी रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी मां शारदा निवेदिता को अपनी पुत्री मानती थीं। भगिनी निवेदिता अर्थात् नोबेल जब अपनी युवा अवस्था में लंदन में थीं तब उनकी भेंट 1895 में लंदन में ही स्वामीजी से हुई और यहीं से उनकी जीवनधारा अध्यात्म, शिक्षा व पीड़ित मानवता की सेवा में प्रवाहित होने लगी। लंदन में रह रहीं मार्गरेट नोबेल स्वामी विवेकानंद से अपनी एक महिला मित्र के निवास पर प्रथम बार मिली थीं, जहां वे उपस्थित व्यक्तियों को ‘वेदांत दर्शन’ समझा रहे थे। तत्काल ही नोबेल विवेकानंद के व्यक्तित्व से प्रभावित हो गईं। उसके बाद वे उनके कई और व्याख्यानों में गर्इं व स्वामी जी के संपर्क में रहने लगीं। वे स्वामी जी से आध्यात्मिक व दार्शनिक विषयों पर अपनी शंकाओं का समाधान पाने लगीं व उनसे सतत् चर्चारत रहने लगीं। इस प्रकार उनके मन में स्वामी विवेकानंद के लिए श्रद्धा, आदर व आस्था का भाव उपजा।
मार्गरेट गौतम बुद्ध और विवेकानंद के सिद्धांतों का अध्ययन करने लगी जिसका उनके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। स्वामी विवेकानंद मार्गरेट के अन्दर सेवा की भावना और उत्साह देख यह समझ गए थे कि वे भारत के शैक्षणिक उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। बस यहीं से स्वामीजी ने निवेदिता को भारत आकर प्रेरणा दी।
स्वामीजी की संवेदनशीलता, परपीड़ा का आभास, पीड़ित मानवता की सेवा का उदात्त भाव, स्वयं को दीन-हीन मानव का सेवक मानने का स्वभाव भगिनी निवेदिता को इतना भाया कि उन्होंने आजीवन सेवा को ही अपना धर्म बना लिया व अपना कर्म क्षेत्र भारत भूमि को चुन लिया। 1898 में नोबेल भारत आ गर्इं। स्वामी विवेकानंद जी से दीक्षा ली तब स्वामी जी ने उन्हें भगिनी निवेदिता नाम देकर विश्व स्तरीय परिचय दिया। भगिनी निवेदिता ने जिस प्रकार एक उन्मुक्त व व्यक्तिवादी अंग्रेजी पृष्ठभूमि से आकर यहां ब्रह्मचर्य को स्वीकार किया, वह अपने आप में एक कठिन तपस्या से कम नहीं था। स्वामी जी ने जब मार्गरेट एलिजाबेथ नोबेल को भगिनी निवेदिता नाम दिया तब उनकी दिव्य दृष्टि ने निश्चित ही भगिनी निवेदिता के नाम को पूर्णत: चरितार्थ होते हुए देख लिया होगा।
दीक्षा देते समय स्वामीजी ने भगवान बुद्ध को उद्धृत करते हुए भगिनी निवेदिता से कहा-जाओ और उस महान व्यक्ति का अनुसरण करो जिसने 500 बार जन्म लेकर अपना जीवन लोककल्याण के लिए समर्पित किया और फिर बुद्धत्व प्राप्त किया। अपने कर्मक्षेत्र कोलकाता (उस वक्त कलकत्ता) में बसने व वहां कन्या शिक्षा में जागृति ही नहीं, अपितु क्रान्ति लाने वाली भगिनी निवेदिता उससे पूर्व स्वामीजी के साथ देश का एक बड़ा भाग घूम चुकी थी। बंगाल में जब उन्होंने कन्या शिक्षा का दुर्गम अभियान प्रारम्भ किया तब कोलकाता के धनी, संभ्रांत व प्रगतिशील परिवारों में भी कन्या शिक्षा का वातावरण नहीं था।
भगिनी निवेदिता का उस वातावरण में यह अभियान अपने कंधों पर लेना कांटों का ताज पहनने जैसा था, क्योंकि उन्हें प्रारम्भ में इस हेतु अच्छी नजर नहीं देखा गया। उन्हें सहजता से स्वीकार नहीं किया गया था। वह तो भगिनी निवेदिता का आभामंडल और उनकी आध्यात्मिक प्रभा ही थी जिससे वे न केवल परम्परागत बंग्ला भूमि के सामान्य समाज में पैठ बनाने में सफल हुर्इं अपितु बंगाल के सम्पूर्ण श्रेष्ठि, सुधि, संत, बुद्धिजीवी व आध्यात्मिक व्यक्तित्व भी उनके सतत संपर्क में रहते थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर, वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु, शिल्पकार हैमेल तथा अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, अरविंदो घोष, चित्रकार नंदलाल बोस, रमेशचन्द्र दत्त, यदुनाथ सरकार आदि कितने ही विद्वान भगिनी निवेदिता से परामर्श, चर्चा-परिचर्चा करते थे। बंगाल के उस समय के इतिहासकारों को इतिहास लेखन में भारतीय दृष्टिकोण के विकास का तत्व उन्होंने ही प्रदान किया था। भगिनी निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद के साथ अपने दिव्य, ईश्वरीय व आत्मिक अनुभवों का उल्लेख अपनी पुस्तक ‘द मास्टर- ऐज आई सॉ हिम’ में किया है। भगिनी प्राय: स्वामी विवेकानंद को ‘राजा’ कहती थीं और स्वयं को उनकी आध्यात्मिक पुत्री बताती थीं। मई 1898 में वे स्वामी विवेकानंद के साथ हिमालय भ्रमण के लिए गई थीं और अमरनाथ की यात्रा भी की थी।
1899 में वे स्वामी विवेकानंद के साथ अमेरिका भी गई थीं। भगिनी ने जब भारत में ब्रिटिश राज के पाशविक रूप को देखा व भारतीय समाज पर अंग्रेजों के नारकीय अत्याचार देखे तब उनके भीतर स्वाधीनता के प्रति प्रेम जाग उठा व वे भारतीयों की अंग्रेजों से मुक्ति हेतु स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय हो उठीं। इस कालखंड में उनकी राजनीतिक सक्रियता से रामकृष्ण मिशन को हानि न हो, इस हेतु वह मिशन से अलग हो गर्इं थीं। स्वाधीनता आंदोलन को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन देते हुए उन्होंने भारतीय युवाओं हेतु कई व्याख्यान दिए और लेख लिखे। 1905 में राष्ट्रीय कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में भी उनकी उपस्थिति उल्लेखनीय रही थी। 13 अक्तूबर, 1911 को जब वे मात्र 44 साल की अल्पायु में थीं, तब वे दुर्गा पूजा के उत्सव हेतु दार्जिलिंग गई थीं। वहीं उनका बीमारी से निधन हो गया। दार्जिलिंग में भगिनी निवेदिता का स्मारक रेलवे स्टेशन के समीप विक्टोरिया फाल्स के रास्ते में एक आध्यात्मिक स्थान के रूप में आज भी प्रसिद्ध है।
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