|
कम्युुनिस्ट लेखकों-इतिहासकारों ने अंग्रेजों के मार्ग पर चलते हुए भारत के गौरवपूर्ण इतिहास को गलत रूप में प्रस्तुत करने का अपराध किया है। युवाओं को वास्तविक इतिहास से अविलंब परिचित कराया जाए तो कई चीजें स्पष्ट होंगी
प्रो. कपिल कुमार
हाल ही में आई पुस्तक ‘ब्रेनवाश्ड रिपब्लिक’ (लेखकद्वय-नीरज अत्री और मुनीश्वर सागर) ने अत्यंत ही तार्किक विधि द्वारा एनसीईआरटी की पुस्तकों में जान-बूझकर भारतीय इतिहास को एक भद्दे रूप में प्रदर्शित करने और अपने संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए युवा मस्तिष्कों में भ्रांतियां डालने वाले षड्यंत्र का पर्दाफाश किया है। आज बर्बादी गुट वाले वामपंथियों के मुंह पर ताले लग गए हैं क्योंकि इस पुस्तक को वे मात्र ‘भगवा प्रचार’ या ‘दक्षिणपंथी मिथ्या प्रचार’ कहकर नहीं टाल सकते। लेखकों ने चुन-चुनकर उन भ्रांतियों को एक स्थान पर ला दिया है जो कि पिछले पचास वर्ष से वामपंथी एनसीईआरटी के पाले में खड़े होकर फैला रहे थे।
लेकिन जहां एक तरफ इन भ्रांतियों से हटकर वास्तविक इतिहास लिखने की आवश्यकता है तो वहीं दूसरी तरफ एक युवा को यह भी बताना जरूरी है कि भारतीय इतिहास के बारे में ऐसा दुष्प्रचार किस मंशा से किया गया, कब किया गया और किसने किया।
अंग्रेजों ने औपनिवेशिक मानसिकता के आधार पर एक औपनिवेशिक समाज के निर्माण हेतु निर्दयतापूर्वक कई ऐसे तौर-तरीके अपनाए जिनसे भारतीय परंपरा, भारतीय इतिहास, धर्म, मूल्य, विज्ञान, धरोहर आदि को नष्ट किया जा सके। वास्तव में औपनिवेशिक मानसिकता पाश्चात्य की श्रेष्ठता और नस्लवाद के सिद्धांतों से ग्रस्त थी जिसके अनुसार दुनिया भर के असभ्य लोगों को सभ्य बनाने का परम दायित्व उनके ऊपर था। अत: अपने शासन को मजबूत करने के लिए, अपनी प्रभुता स्थापित करने के लिए अंग्रेजी शासक, बुद्धिजीवी, सैनिक, व्यापारी और मिशनरियों ने मिलकर प्राचीन भारतीय संस्कृति को ध्वस्त करना अनिवार्य समझा, ताकि वे केवल राजनीतिक स्तर पर ही नहीं, अपितु सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी अपना वर्चस्व स्थापित कर सकें। फलस्वरूप, भारतीय इतिहास के तथ्यों से छेड़-छाड़ करना, भारतीय संस्कृति और रीति-रिवाजों की खिल्ली उड़ाना उनका ध्येय बन गया। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ऐसा दुष्प्रचार केवल एनसीईआरटी की पुस्तकों तक ही सीमित नहीं है बल्कि विश्वविद्यालय स्तर पर भी यह पाठ्यक्रमों की रूपरेखा में, पुस्तकों में, व्याख्यानों में और सेमिनार कक्षों में निरंतर देखने को मिलता है। आज इसके पीछे कोई एक इतिहासकार नहीं है वरन् पूरी वामपंथी विचारधारा, वामपंथी पार्टियां, उनके समर्थक और सहानुभूति रखने वाले वे सभी लोग हैं जो एकजुट होकर इस देश की धरोहर, इतिहास, परम्परा, इस देश में जन्मे पंथों को ध्वस्त करने में लगे हुए हैं। अपने को साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोधी बताने वाले ये वामपंथी उस नीति को ही आगे ले जा रहे हैं जो अंग्रेजी मानसिकता ने भारत के संदर्भ में बनाई थी। इनके अधिष्ठाता कार्ल मार्क्स के अनुसार भारत का कोई इतिहास ही नहीं था। जिस प्रकार मार्क्स ने 1853 के अपने लेखों में भारतीय संस्कृति, समाज और रीति-रिवाजों पर अपमानजनक टिप्पणियां की थीं, उन्हीं टिप्पणियों से इनकी मानसिकता ग्रस्त है। मैं भारत से संबंधित मार्क्स की मानसिकता और अंग्रेजी मानसिकता में कोई अंतर नहीं करता, क्योंकि दोनों का उद्देश्य था भारतीयता, भारत के अतीत और भारत के अस्तित्व को नकारना।
जॉन स्ट्रैची 1780 में कहते हैं कि भारत नाम का कोई देश नहीं है और 22 जुलाई, 1853 के लेख में मॉर्क्स ने कहा था, ‘‘भारतीय समाज का कोई इतिहास ही नहीं है…जिसे हम उसका इतिहास कहते हैं, वह वास्तव में निरंतर आक्रांताओं का इतिहास है जिन्होंने अपने साम्राज्य उस निष्क्रिय और अपरिवर्तनीय समाज के ऊपर बिना विरोध के बनाए। अत: प्रश्न यह नहीं है कि क्या इंग्लैंड को भारत को जीतने का अधिकार था, बल्कि हम इनमें से किसको वरीयता दें, कि भारत को तुर्क जीतें, फारसी जीतें या रूसी जीतें, या उनके स्थान पर ब्रिटेन।’’ इससे पहले भी 25, जून 1853 के अपने लेख में मार्क्स भारत को नीचा दिखाने के लिए कई चुनिंदा शब्दों का प्रयोग कर चुका था। मार्क्स की ये धारणाएं वामपंथियों की नीति-निर्धारक हैं। सर्वहारा की निरंकुशता स्थापित करने का उद्देश्य रखने वाले वामपंथियों के मस्तिष्क में राष्ट्रवाद का कोई स्थान नहीं है और राष्ट्र और राष्ट्रवाद का विरोध करना उनका परम उद्देश्य है। सबसे ताजा उदाहरण है, जेएनयू में भारत की बर्बादी के नारे, सीताराम येचुरी द्वारा भारतीय सेनाध्यक्ष के बारे में की गई आपत्तिजनक टिप्पणियां और हुर्रियत कॉन्फ्रेंस को उनका समर्थन। हमें अलग-अलग स्तर पर इस प्रकार फैलाई जा रही भ्रांतियों का उत्तर देना पड़ेगा। भारत के अस्तित्व पर ब्राहस्पत्य संहिता में है,
हिमालयं समारभ्य यावदिंदुसरोवरं।
तं देवनिर्मितं देषं हिंदुस्थानं प्रचक्ष्यते॥
(वह देश जिसका निर्माण स्वयं ईश्वर ने किया और जो हिमालय से हिन्द महासागर तक फैला है, उसे हिन्दुस्थान कहते हैं।)
और इसी प्रकार विष्णु पुराण के अनुसार,
उत्तर यत्समुद्रस्य हिमाद्रेष्चैव दक्षिणम्।
वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति:॥
‘वह देश जो समुद्र के उत्तर में और हिमालय पर्वत के दक्षिण में स्थित है, उसे भारत कहते हैं और उसके निवासियों (संततियों) को भारतीय कहते हैं।’
भारतीय साहित्य ही नहीं वरन् चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में सेल्यूकस के यूनानी दूत मेगस्थनीज ने भारत की सीमाओं को पर्वतों से लेकर समुद्र तक बताया था। ठीक यही विवरण चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी दिया।
बच्चों को यह बताना होगा कि अंग्रेजी का इंडिया शब्द ग्रीक इण्डिका से निकला और इण्डिका शब्द का प्रयोग विदेशों में सबसे पहले हिरोडोटस ने 600 ई़.पू. में किया था। बच्चों को यह बताना होगा कि 1500 ई़.पू. के तुर्की स्थित बोगाझकोई के अभिलेख में मिस्रवासियों और हिटाइट्स के मध्य हुई संधि हिन्दू देवताओं इन्द्र, वरुण और अश्वनी कुमारों को साक्षी मानकर की गई थी। सिकंदर और सेल्यूकस किस देश तक आए थे? ह्वेनसांग, इत्सीग, फाह्यान, किस देश में आए थे? और आगे बढ़ें तो कोलम्बस किस देश को पागल की तरह ढूंढ रहा था? अंग्रेजों, फ्रांसीसियों, डच और पुर्तगालियों ने अपनी कंपनियों के क्या नाम रखे? ईस्ट इंडिया कम्पनी। और ये अंग्रेज देश पर कब्जा करने के बाद हमें बताते हैं कि भारत नाम का कोई देश नहीं था और वहीं बात मार्क्स दोहराता है।
अभी हाल ही में आईआईएएस, शिमला में मैं उस समय स्तब्ध रह गया जब एक वामपंथी इतिहासकार ने यह टिप्पणी की कि गिरमिटिया मजदूर इंडिया से नहीं गए थे, वे तो अपने गांवों से गए थे, क्योंकि इंडिया नाम का कोई देश ही नहीं था। मैंने जवाब दिया, ‘‘आप सही कह रहे हैं। वे इंडिया से नहीं गए थे, वे भारत से गए थे और इसलिए साथ में रामायण और गीता लेकर गए थे और उसी भारतीय संस्कृति को उन्होंने आज भी वहां पर जीवित रखा है।’’ दुर्भाग्य यह है कि हमारे शोधकर्त्ता भी विदेशी मानसिकता से ग्रस्त हैं और भारतीय परंपराओं, भारतीय इतिहास, भारतीय जनजीवन और राजनीति का अध्ययन उस भाषा में पनपे सिद्धान्तों से करते हैं जिनका उस समय तक जन्म ही नहीं हुआ था, जब भारत में संस्कृत और पालि जैसी भाषाएं विश्व का मार्गदर्शन कर रही थीं।
वैदिक काल में कोई संयुक्त राष्ट्र नहीं था, जब भारत ने वसुधैव कुटुम्बकम् का संदेश दिया। सेक्युलर शब्द की अंग्रेजी भाषा भी पैदा नहीं हुई थी जब भारत ने सर्वधर्म-समभाव का संदेश दिया। आॅक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज पैदा भी नहीं हुए थे जब तक्षशिला, नालंदा और उज्जैन जैसे विश्वविद्यालयों में दुनियाभर से विद्यार्थी आते थे। इन विश्वविद्यालयों को आक्रांताओं ने जलाया, नष्ट किया। यह इतिहास लिखते हुए वामपंथी डरते हैं क्योंकि यह उनके एकपक्षीय सेक्युरलिज्म के एजेंडे में नहीं आता। महाभारत और रामायण में क्या नहीं है? वे सामाजिक संरचना हैं, एक जीवनयापन की दिशा है। वे केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं हैं वरन् एक सम्पूर्ण जीवनदर्शन हैं। लेकिन वामपंथियों ने इन्हें मात्र मिथक बता दिया। जब समुद्र के नीचे द्वारका का उत्खनन किया जाता है तो ये वामपंथी इतिहासकार चिल्लाने लगते हैं कि यह सरकारी अपव्यय है, मिथक है और जब एक साधु के सपने पर मनमोहन सिंह सोने की खोज में खुदाई करवाते हैं तो इनकी बोलती बंद हो जाती है। वाह रे सेक्युरलिज्म!
इस्लाम के उद्भव से पहले उन क्षेत्रों में कौन-से पंथ प्रचलित थे, यह बताते हुए इन्हें शर्म आती है। बामियान में बुद्ध की प्रतिमा तोड़े जाने पर या सीरिया और ईराक में आईएस द्वारा प्राचीन धरोहरों के विनाश पर इनके मुंह पर ताले लगे रहते हैं। ये तो बहुत बड़े अंतरराष्ट्रीयतावादी हैं तो फिर चुप्पी क्यों? यजीदियों पर हो रहे अत्याचारों पर चुप्पी क्यों? मध्यकालीन भारत में आक्रांताओं द्वारा की गई हर क्रूरता, हर नरसंहार, कन्वर्जन आदि को इन्होंने निरंतर इतिहास लेखन में अनदेखा किया है, क्यों? मेरा मानना है कि भारत के जिस क्षेत्र को भी अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य में मिलाने की कोशिश की, उस प्रत्येक क्षेत्र में अंग्रेजों को चुनौती दी गई, चाहे वे दक्षिण के पोलीगार थे या जनजातियां संथाल और मुंडा। मैं तो भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1770 में शुरू हुए संन्यासी और फकीर विद्रोह को मानता हूं। अंग्रेजी कम्पनी द्वारा 150 संन्यासियों को गोली मारे जाने से जन्मे इस विद्रोह का नारा वन्देमातरम् था, जिसे आगे चलकर बंकिम ने आनन्दमठ उपन्यास में अपनाया और वह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का प्रेरक बना। मजे की बात यह है कि भारत में अंग्रेजों की सारी नीतियां उनके 1857 के अनुभव पर आधारित थीं और हमारे वामपंथियों ने 1857 को ‘सामंतवाद की लड़ाई’ कहकर इतिहास के पन्नों से गायब कर दिया। जेएनयू,अलीगढ़ विश्वविद्यालय आदि के इतिहास विभागों में 1857 पर आज तक एक भी शोध नहीं करवाया गया।
स्पेनिश शब्द कास्टा को अंग्रेजी में कास्ट में बदलकर अंग्रेजों ने अपने जनगणना अभियानों द्वारा भारतीय समाज का जातिगत वर्गीकरण किया। कितने ही पेशेवर समुदायों को ‘नीची जाति’ बता दिया गया। ‘चोर-जात’ और ‘चोर-जनजातियों’ जैसी उपमाएं इस समाज में अंग्रेजों ने दीं लेकिन वामपंथियों द्वारा लिखी पुस्तकों में कभी अंग्रेजों को इसका दोषी नहीं ठहराया गया। दलित को लेकर जो ऐतिहासिक व्याख्या ये करते हैं, उसमें अपनी सहूलियत के अनुसार प्राचीन भारत से कुछ उपमाएं लेकर प्राचीन भारत और भारतीय संस्कृति को ये वामपंथी कोसते हैं। परंतु ऐसी कोई पुस्तक नहीं है जिसमें मध्यकालीन भारत में दलित की क्या स्थिति है, उस पर चर्चा की गई हो। क्या दलित 1,000 साल के लिए इस देश से पलायन कर गये थे और फिर आधुनिक काल में शोषित होने को वापस आ गये? अभी हाल ही में जे.एन.यू. की एक प्रोफेसर महोदया ने मैला उठाने वालों को लेकर एक शोधपत्र पढ़ा और उसमें जमकर हिन्दू धर्म और प्राचीन भारत की आलोचना की। मैंने उनसे एक सवाल पूछ लिया कि मुझे यह बताइए कि मैला उठाने का कार्य भारत में कब से शुरू हुआ, क्योंकि आज भी प्रधानमंत्री मुखर रूप से कह रहे हैं कि गांव-गांव में शौचालय बनाएं। वास्तव में, शौचालय हमारी संस्कृति का अंग ही नहीं था। जब मैंने उनसे कहा कि कमोड को भारत में सबसे पहले तुर्क लाए थे। ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं कि जब भारतीयों को धमकाया गया कि यदि वे कन्वर्ट नहीं होंगे तो उनसे मैला उठाने का कार्य करवाया जाएगा और भारतीयों के एक वर्ग ने कन्वर्जन के स्थान पर मैला उठाना उचित समझा। मैं ऐसे भारतीयों का अभिनन्दन करता हूं, जिन्होंने अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए, उसे बनाए रखने के लिए मैला उठाना भी स्वीकार किया। बाद में यह काम मुगलों ने और अंग्रेजों ने करवाया। लेकिन इस सच्चाई को लिखते हुए सेक्युरलिज्म इतिहासकारों के आड़े आ जाता है।
इसी प्रकार मध्यकालीन भारत के इतिहास को लेकर तथ्यों को छुपाया गया और इसमें वामपंथी इतिहास विभागों की सबसे बड़ी भूमिका रही है। तत्कालीन फारसी वृत्तांतों में जो धार्मिक स्थलों को तोड़ने का जिक्र है, कन्वर्जन का जिक्र है, कत्लेआम का जिक्र है उस सबको जान-बूझकर हटा दिया जाता है। चित्तौड़गढ़ में अकबर द्वारा किए लगभग 30,000 लोगों के कत्लेआम की चर्चा किस किताब में की गई? यही नहीं, मध्यकालीन इतिहास को केवल सल्तनत और मुगलों का इतिहास मानकर शोध किया जाता है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में कई साल से यूजीसी की तरफ से ‘एडवांस्ड रिसर्च सेंटर’ है परंतु उत्तरी-पूर्वी भारत को लेकर, दक्षिण भारत को लेकर यहां कोई शोध नहीं कराया गया और जब 2002 में मैंने इस मुद्दे को उठाया कि भारत के और भी क्षेत्र थे और उन पर शोध क्यों नहीं कराया जाता, तो वामपंथी प्रोफेसर महोदया का उत्तर था कि ‘‘आप आऱ.एस.एस. का एजेण्डा लागू करना चाहते हैं?’’ प्रो. इरफान हबीब भाषण देते हैं कि बिना फारसी भाषा की जानकारी के मध्यकालीन इतिहास नहीं लिखा जा सकता। जब मैंने पूछा कि यह तो सरकारी भाषा थी और एक वामपंथी इतिहासकार केवल सरकारी भाषा के आधार पर इतिहास लिखने की बात कर रहा है! तो वे मेरी शक्ल देखने लगे। मैंने आगे पूछा कि यदि मैं आपकी बात मान भी लूं तो क्या आपको संस्कृत आती है, पालि आती है, वे बोले नहीं। तो मैंने पूछा कि खरोष्ठी आती है, तो तमतमा कर बोले कि ‘‘मुझे क्यों आए ये’’? तो मैंने जवाब दिया कि फिर यह दोहरा मापदंड क्यों? मध्यकालीन के लिए तो फारसी जरूरी है और आप बिना प्राचीन भारतीय भाषाओं की जानकारी के वैदिक काल पर भी टिप्पणी करें, द्वारका पर भी टिप्पणी करें, सरस्वती पर भी टिप्पणी करें? कोई जबाव नहीं था। सवाल है कि मध्यकालीन इतिहास लेखन के लिए तत्कालीन अन्य भारतीय भाषाओं में जो स्रोत उपलब्ध हैं, इतिहासकारों द्वारा उनका अवलोकन भी बहुत जरूरी है।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास को मात्र एक वंश का इतिहास बना कर युवा पीढ़ी के सामने प्रस्तुत किया गया। अभी हाल में एक टी.वी. चैनल पर बहस में एक विद्यार्थी से यह कहलवाया गया कि राष्ट्रपति के भाषण में नेहरू का जिक्र होना जरूरी था, क्योंकि हम तो उन्हीं के योगदान के बारे में बचपन से पढ़ते आए हैं। मैंने उस बच्चे से पूछा कि क्या तुमने बाबा रामचन्द्र का नाम सुना है जिसने अवध के किसानों को संगठित किया था और जिसके ऊपर नेहरू ने अपनी राजनीति चमकाई थी, तो वह बच्चा बोला कि यह तो हमें नहीं पढ़ाया गया। फिर मैंने कहा कि यही तो समस्या है। जब तथ्यों को दबा दिया जाएगा तो सही इतिहास आप कैसे जानेंगे? 1942 में 8 अगस्त को कांग्रेसी नेताओं को अहमदनगर किले की जेल में बंद कर दिया गया था और आज भी वे सारे कमरे दर्शन के लिए उपलब्ध हैं। जिस कमरे में जो नेता बंद था, उसके बाहर उसके नाम की छोटी तख्ती लगी हुई है। परंतु नेहरू के कमरे में उनकी अचकन रखी है, बिस्तर लगा है, कलम रखी है, डिस्कवरी आॅफ इंडिया रखी है और उनकी एक बड़ी तस्वीर भी लगी है। अब आप खुद जान सकते हैं कि यह क्यों किया गया है। 10,000 प्रवासी भारतीयों ने आजाद हिन्द फौज की तरफ से लड़ते हुए देश के लिए जान दी, पर मुझे एक इतिहास की किताब दिखा दीजिए जिसमें उनके योगदान की चर्चा हो।
क्रांतिकारियों के प्रति तो कांग्रेस के रवैये की बात अब खुलकर सामने आ गई है, परंतु कितनी किताबों में लिखा है कि प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों ने नेहरू का नाम कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए नहीं भेजा था, अपितु सरदार पटेल के नाम की सिफारिश की गई थी। परंतु गांधीजी ने नेहरू को अध्यक्ष और फिर प्रधानमंत्री बनाया। कितनी किताबों में यह लिखा है कि पंजाब के विभाजन को लेकर जो मतगणना होनी थी, कांग्रेस पर विश्वास कर और उसके कहने पर हिंदुओं ने उसमें हिस्सा नहीं लिया। तभी तो एक बूढ़ी शरणार्थी औरत ने नेहरू से कहा था कि ‘‘काका, जद एह करना सी, ते झूठ ते न बोलया होंदा।’’ कितनी किताबों में यह लिखा है कि खान अब्दुल गफ्फार खान को कैसे धोखा दिया गया। क्या यह सब इतिहास नहीं है? कितनी किताबों में यह लिखा गया कि नेहरू ने आजाद हिन्द फौज के एक भी सिपाही को भारतीय सेना में वापस नौकरी नहीं दी?
ऐतिहासिक तथ्य छुपाने की इन काली करतूतों का कोई अंत नहीं है। आपातकाल के दौरान जासूसी विभाग से सेवानिवृत्त धर्मेन्द्र गौड़ ने धर्मयुग में एक लेख में बताया था कि चन्द्रशेखर आजाद की मुखबिरी किसने की थी, यह लखनऊ ने गोखले मार्ग की सीआईडी फाइल में मौजूद है। उस फाइल को किसने जलवाया? मेरा मानना है कि युवा पीढ़ी को देश के गद्दारों का इतिहास भी बताया जाना चाहिए, क्योंकि किसी भी आक्रांता ने कोई भी युद्ध गद्दारों के सहयोग के बिना नहीं जीता और आज फिर इस देश में ऐसे जयचंद मौजूद हैं जो पूर्व मंत्री होते हुए भी पाकिस्तान जाकर भारत सरकार के विरुद्ध टिप्पणी करते हैं। मानवाधिकारों के नाम पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को रात को 2 बजे चुनौती देते हैं और आतंकवादी को फांसी से बचाने की कोशिश करते हैं। यह सब किसलिए? इतिहास से खिलवाड़ किसलिए? हमें युवा पीढ़ी को बताना होगा कि वामपंथी, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं वे एक वामपंथी देश बता दें जिसमें प्रजातंत्र, नागरिक अधिकार या स्वत्रंतता दी गई हो। इनका एजेण्डा भारत का विखण्डन है। और यही कारण है कि 1970 के दशक से एक सोची-समझी साजिश के तहत इन्होंने भारत के विश्वविद्यालयों पर, भारत की शिक्षा प्रणाली पर कांग्रेस के साथ मिलकर कब्जा जमाया। एनसीईआरटी ही नहीं वरन् विश्वविद्यालय स्तर पर पाठ्यक्रम बनाने, अपनी विचारधारा के लोगों की नियुक्तियां करने, एक-दूसरे की पीठ ठोकने, छात्रवृत्तियां देने जैसे हथकंडे अपनाकर एक वाम साम्राज्य शिक्षा के जगत में इन्होंने बनाया और आज जब इनके पास गाने को राग दरबारी नहीं है तो विलाप और स्यापा कर रहे हैं। जेएनयू में जाकर बर्बादी और आजादी के नारों का समर्थन करने वाले ये वामपंथी भूल गए कि आपातकाल में जेएनयू में इनके साथ क्या हुआ था। राहुल गांधी भूल गए कि 1983 में उनकी दादी ने जेएनयू को पुलिस की छावनी बना दिया था और 1,500 छात्र गिरफ्तार किए गए थे। एक इतिहासकार होने के नाते मेरा यह मानना है कि जब शोधकर्ता इतिहास के सभी स्रोतों की परख करेंगे और जो सरकारी दस्तावेज अभी तक शोधकर्ताओं को उपलब्ध नहीं कराए गए हैं, यदि वे उपलब्ध हो जाएं तो जिन ऐतिहासिक वास्तविकताओं को कांग्रेसी और वामपंथी इतिहासकारों ने आज तक जनता से छुपाया है, वे स्वयं ही सामने आ जाएंगी। आज आवश्यकता है कि इतिहास की उन वास्तविकताओं को जिन्हें वामपंथियों और कांग्रेसियों ने जान-बूझकर दबाया है, केवल संकलित ही नहीं किया जाए बल्कि कक्षाओं या सेमिनार कक्षों तक सीमित न रखकर आम जनता के बीच ले जाया जाए।
(लेखक प्रख्यात इतिहासकार और इग्नू से संबद्ध हैं)
टिप्पणियाँ