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भारतवर्ष का प्राचीन विस्तार हैरान करने वाला है, ऐसा कि जिसे देखकर सिंकदर भी सोच में पड़ गया था। कच्छ से कामरूप और कश्मीर से कन्याकुमारी पर्यन्त भारत और भारतवासी एक थे जिनमें अंग्रेजों ने विभेद पैदा करके दूरियां बढ़ार्इं
शक्ति सिन्हा
कई विद्वानों और विश्लेषकों की दलील है कि ‘भारत का निर्माण’ अंग्रेजों ने किया। वे उन सभी ऐतिहासिक साक्ष्यों को नजरअंदाज कर जाते हैं जो दर्शाते हैं कि भारत चिरंतन काल से संस्कृति और सभ्यता की धरती रहा है। इन विद्वानों ने विभिन्न कालखंडों में भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर रहीं विभिन्न राजनीतिक शासन-व्यवस्थाओं के बारे में बताया है जो दरअसल पश्चिम के पंडितों को महिमामंडित करने की उनकी मानसिकता को उजागर करता है। इसके तहत वे अपनी सुविधानुसार विकसित मानकों को मान्य ठहराते आए हैं। दलील है कि भारत वेस्टफेलियन व्यवस्था आधारित राष्ट्र के तौर पर 15 अगस्त, 1947 या 26 जनवरी, 1950 को स्थापित हुआ, लेकिन इस तथ्य को भी चुनौती दी जा सकती है, क्योंकि दोनों विश्व युद्धों में भाग लेने वाली भारतीय सेना ग्रेट ब्रिटेन की सेना का हिस्सा थी ही नहीं, बल्कि उसकी अलग पहचान थी। भारत युद्ध के वर्षों के बीच लीग आॅफ नेशन्स और स्वतंत्रता पूर्व संयुक्त राष्टÑ का सदस्य था। इससे भी अधिक गौर करने वाली बात यह है कि भारतीयों ने खुद को क्षेत्रीय (जनपद और महा जनपद) स्तर से ऊपर किसी एकीकृत राजनीतिक व्यवस्था की प्रजा के रूप में कभी देखा ही नहीं। उनके अंदर एक मजबूत एहसास हमेशा विद्यमान था कि वे भारतीय हैं, जो सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से जंबूद्वीप के निवासी हैं। अत: बाहरी दुनिया बेशक हमें ‘इंडियन’ कहती हैं, लेकिन हम बखूबी जानते हैं कि वास्तव में हमारी पहचान क्या है।
डायना ईक की उत्कृष्ट पुस्तक ‘इंडिया: ए सेक्रेड जियोग्राफी’ सभी को जरूर पढ़नी चाहिए। विशेष रूप से उन लोगों को जिन्हें भारत की पहचान के संबंध में दुविधा है और जो इसके अस्तित्व को पिछली तीन शताब्दियों से यूरोप में विकसित राजनीतिक नामावली से जोड़ते हैं। मैं उनकी किताब में उल्लिखित एक ऐतिहासिक घटना और उनके दृष्टिकोण की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं जिसमें वह कहती हैं कि भारत का अस्तित्व ब्रिटिश राज से नहीं, बल्कि इतिहास के पन्नों से भी प्राचीन है।
जब सिकंदर विश्व-विजय के अभियान पर निकला तो उसने अपने साथ इतिहासकारों का एक दल भी रखा जिनका काम युद्धों, उनमें शामिल देशों के विवरण, उनकी पराजय आदि से जुड़े ब्योरे दर्ज करना था। ये विवरण यूनानी इतिहासकार एरियन की किताब ‘इंडिका’ में उपलब्ध हैं, जो सिकंदर के शासन के सौ साल बाद लिखी गई। एरियन की किताब के तथ्य सिकंदर के अभियान में शामिल इतिहासकारों में से एक नर्कुस द्वारा लिखे ब्योरे के आधार पर पेश किए गए हैं जिसके नेतृत्व ने नदी और समुद्र मार्ग द्वारा ग्रीस सेना के भारत से बाहर निकलने में अहम भूमिका निभाई थी। भारत में सिकंदर की आखिरी लड़ाई राजा पोरस (पूरु) के साथ झेलम नदी के तट पर हुई जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में है। युद्ध के बाद सिकन्दर की सेना ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया था क्योंकि उन्हें महसूस हुआ कि जब पोरस जैसा एक छोटी-सी रियासत का शासक इतनी बहादुरी से सामना करके उनके हाथ-पांव ठंडे कर सकता है तब पूरे भारत को जीतना असंभव होगा।
तब सिकंदर को भारत के बारे में जानने की इच्छा हुई। उसकी दो श्रमणों (बौद्ध भिक्षु) के साथ बातचीत हुई जिन्होंने भारत का वर्णन करते हुए उसे बताया कि हिमाच्छादित पहाड़ों (हिमालय) से लेकर महासागर तक फैली हुई भूमि भारत है जिसका निचला भाग त्रिकोण जैसी आकृति का है। उन्होेंने दो तटरेखाओं की लंबाई के बारे में भी बताया। जब अंग्रेजों ने 19वीं सदी में भारत का मानचित्र तैयार कराया तो ‘द ग्रेट ट्रिगोनोमेट्रिक सर्वे’ में दोनों तटरेखाओं को भी मापा गया था। प्राप्त आंकड़े दो हजार साल पहले श्रमणों के सिकंदर को बताए माप से नाममात्र ही भिन्न थे।
भारत के प्रमुख दक्षिणी भूभाग पर कन्याकुमारी में भगवती मंदिर सर्वथा अलग है, क्योंकि देवी यहां अक्षत कौमार्य की प्रतीक एक अविवाहित कन्या के रूप में विराजमान हैं। इससे एक दिलचस्प कथा जुड़ी है जो भारत के जनमानस में बांची जाती है। प्रचलित है कि भगवती देवी (दुर्गा/पार्वती) ने शिव को पति रूप में पाने के लिए वर्षों तपस्या की। अंत में शिव मान गए और विवाह की तिथि और समय (ब्रह्म मुहूर्त) तय हुआ। सभी तैयारियां हो चुकी थीं और शिव करीब 12 किलोमीटर दूर शुचिंद्रम से बारात लेकर निकले। अब देवतागण घबरा गए कि अगर देवी भगवती शादी कर लेंगी और गृहस्थी में रम जाएंगी तो भारत की दक्षिणी सीमाओं की रक्षा कौन करेगा? उन्हें यह विवाह हर हाल में रोकना था। इंद्र ने नारद मुनि को मदद के लिए बुलाया जिन्होंने एक मुर्गे की आवाज निकालकर यह आभास कराया कि भोर हो गई है। शिव ने जब आवाज सुनी तो उन्हें महसूस हुआ कि शुभ मुहुर्त छूट गया। इसलिए वह बिना विवाह किए शुचिंद्रम वापस लौट गए। देवी बहुत क्रोधित हुर्इं। इस तरह उन्हें अविवाहित रहना पड़ा।
अगर ये दोनों उदाहरण भी पर्याप्त रूप से नहीं दर्शाते कि भारतीयों को व्यापक रूप से एक साझा पहचान के साथ अपनी भौगोलिक सीमाओं और अखंड अस्तित्व के बारे में स्पष्ट जानकारी थी, तो महाराजा रणजीत सिंह के विचारों और कार्यों पर नजर डालना उपयोगी होगा। पंजाब के सिख शासक की कुछ इच्छाएं अपूर्ण रह गई थीं जिनमें हरिद्वार में गंगा स्नान, काशी-विश्वनाथ और जगन्नाथपुरी के मंदिर के गुंबदों को सोने से मढ़वाना शामिल था। रणजीत सिंह सिख पंथ के थे और इन तीन स्थानों में से किसी का संबंध इस पंथ से नहीं था, न ही ये स्थान उनके राज्य का हिस्सा थे। फिर भी, उन्हें इन धार्मिक स्थलों के साथ एक मजबूत भावनात्मक रिश्ता महसूस हुआ, जो संप्रदायों की संकीर्ण सीमाओं से परे श्रद्धा के अथाह कोष से समृद्ध था। इसी तरह, इंदौर की रानी अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमा से बाहर स्थित वाराणसी और गया में मंदिरों की मरम्मत ही नहीं करवाई, बल्कि इन जगहों पर सार्वजनिक सुविधाओं का निर्माण भी करवाया। यह बात भी यही जताती है कि भारत की धरती के विभिन्न राज्यों-साम्राज्यों के राजाओं और सम्राटों की सीमाओं ने भारतीयों के एक व्यापक भौगोलिक भूभाग और वृहत् सभ्यता का सदस्य होने के भाव को कभी धूमिल नहीं किया।
वास्तव में, जब नेपाल के शाह राजाओं ने गोरखा साम्राज्य की सीमाओं के विस्तार के दौरान देश के पहले संविधान का मसौदा तैयार करवाया तो उन्होंने इसे हिंदुस्थान का एक हिस्सा बताया था। गौरतलब है कि उसमें लोगों को राजा के प्रति नहीं बल्कि राज्य के प्रति वफादारी की भावना रखने की अपेक्षा की गई थी यानी राजशाही की सीमाओं से परे राष्टÑ की व्यापक अवधारणा-भारत-के प्रति समर्पण को महत्व दिया गया था।
देश भर में पहचान और अखंडता की धारणाएं इतनी सशक्त रही हैं कि अगर एक भारतीय अपना राज्य छोड़ कर दूसरी जगह जाए तो भाषा और सूरत के आधार पर देश के किसी भी कोने के साथ अपनी भारतीयता की पहचान साझा करने में उसे कोई मुश्किल नहीं आएगी। यही नहीं, हमारे धर्मशास्त्रों में रामायण और महाभारत जैसी कालजयी रचनाओं में दर्शाए गए दृश्य भी विभिन्न स्वरूपों में प्रस्तुत होने के बाद भी भारतीय जनमानस के कण-कण में व्याप्त मूल कथानक की शाखाओं जैसे नजर आते हैं। महाभारत और रामायण सिर्फ कहानियां और मान्यताएं नहीं हैं, बल्कि ये विभिन्न क्षेत्रों की ज्ञान मंजूषा का हिस्सा हैं, जिसके साथ प्रत्येक क्षेत्र की पहचान जुड़ी है। यही वह भाव है जो एकता का मजबूत बंधन स्थापित करता रहा है जिसके कारण देश सहस्राब्दियों से एक सूत्र में बंधा है। उदाहरण के लिए, वाल्मीकि रामायण विभिन्न क्षेत्रों के वनस्पतियों और जीवों की सूची को अत्यंत सटीक रूप से सूचीबद्ध करती है। स्पष्ट है कि उस काल में विद्वानों ने विभिन्न स्थानों की यात्रा की होगी, जगह-जगह शोध किए होंगे और ज्ञान मंजूषा तैयार की होगी और उसे जन-जन तक सहज ग्राह्य स्वरूप में पेश करने के लिए महाग्रंथों की रचना की होगी।
ऐसा नहीं लगता कि इसमें भाषा कभी बाधा बनी होगी क्योंकि हमारा साहित्य विद्वानों, साधुओं और आम जन के अलग-अलग तीर्थ-स्थानों की यात्रा वृत्तांतों से भरा है। इसी तरह, तमिल देश में तिरुवयार निवासी होने के बावजूद त्यागराजा ने तेलगु में भगवान राम की स्तुति में अनेक कृतियों की रचना की। पल्लवों ने अपने शिलालेखों में संस्कृत का उपयोग किया है, वहीं चोल शासकों ने भी अपने सिक्कों में अक्सर इस भाषा का इस्तेमाल किया है। जाहिर है, भारतीयों ने भाषा को हमेशा लोगों को एक सूत्र में पिरोने के साधन के तौर पर देखा है, जो
कभी विभाजित नहीं करती, बल्कि संवाद और बेहतर समझ का जरिया बनती है।
यह बुनियादी पहचान, जो भारतीयों की नैसर्गिक प्रवृत्ति का हिस्सा थी, औपनिवेशिक सत्ता का सबसे पहला शिकार बनी। उन्होंने भारतीयों में फूट डालने की गंदी राजनीति शुरू की ताकि अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित कर सकें। बर्टिल लिटनर की पुस्तक ‘ग्रेट गेम ईस्ट’ नागालैंड (1950 के दशक में) और मिजोरम (1960 के दशक में) में उभरते उग्रवाद के बारे में बताती है। नागा और मिजो के बीच पहचान की लड़ाई का अंकुर 1920 के दशक के बाद ईसाई मिशनरियों के प्रभाव तले फूटा था, जिसके बाद मिशनरियों ने उन क्षेत्रों के निवासियों को धीरे-धीरे मुख्यधारा से अलग करते हुए उनके मन में वैमनस्य बो दिया, जो अब गहरे पैठ गया है। इतिहास में और पीछे जाएं तो इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि ऐसा कोई आर्य आक्रमण नहीं हुआ जिसके परिणामस्वरूप भारत में आर्य और द्रविड़ नाम के दो अलग-अलग जाति समूह विकसित हुए, फिर भी ईसाई मिशनरियों और कैल्डवेल जैसे विद्वानोंं के भाषायी भिन्नता को जातीय भेदभाव में तब्दील करने के मंसूबे कामयाब रहे। भारतीयता की पहचान पर अंग्रेजों की पेश की परिभाषा को चुनौती देने वाला तमिलदेश (आज का तमिलनाडु) का शिक्षित वर्ग मुख्य रूप से ब्राह्मण था, लिहाजा एक भिन्न जाति वर्ग निर्धारित करके और हिंदू समाज की पिछड़ी सामाजिक प्रथाओं का फायदा उठाते हुए अंग्रेजों ने तमिल लोगों के भारतीयता के एकजुट भाव में फूट के बीज बो दिए। अचानक, ब्राह्मण को दलित (द्रविड़) और अंग्रेजों का साझा दुश्मन ठहरा दिया गया। इसी प्रकार, देश के विभिन्न राज्यों के राजघरानों में भी अखिल भारतीय पहचान से अलग स्थानीय पहचान के वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा सुलगा दी गई। भारत, वास्तव में, एक विविध और समरसतापूर्ण साझा पहचान का नाम है जो धार्मिक संप्रदायों, भाषायी भिन्नताओं या भिन्न राज्यों का निवासी होने के बाद भी मूलत: भारतीय ही है और इसे चुनौती देने वाले षड्यंत्रकारी बलों का मुकाबला करने के लिए तत्पर है। सबसे बड़ी चाल वर्ण व्यवस्था को जाति व्यवस्था से भ्रमित करने की थी, जो कामयाब हुई। वर्ण सिर्फ चार थे, पर जातियां हजारों की संख्या में उभरती गईं जो वास्तव में स्थानीय निवासियों से जुड़ा परिचय मात्र रहा होगा। कुछ जातियों ने अपने राज्य या भाषायी पहचान से अलग भी विकास किया तो कहीं समान जातियों को राज्यों में पारंपरिक क्रम में अलग रखा गया। इस तरह एक समूह के रूप में जाति क्रम की सीढ़ियां तैयार होती गर्इं। इसके बावजूद, जाति व्यवस्था को कठोर और कट्टर दिखाया गया है।
भारतीय समाज को विभाजित करने की सबसे बड़ी साजिश दिल्ली शहर में करीब तीन शताब्दी पहले शुरू हुई थी, जो कामयाब होती चली गई। दिल्ली के एक निवासी शाह वलिउल्लाह ने दो दशकों तक मक्का में रह कर पढ़ाई की और बाद में वहां पढ़ाया भी। 1742 में वह दिल्ली लौट आए। उस समय मक्का पर मोहम्मद इब्न वहाब का नियंत्रण था जो मुसलमानों में कट्टर इस्लाम मजहब बोना चाहते थे। हालांकि दोनों के बीच किसी बातचीत का कोई दस्तावेज नहीं है, पर माना जाता है कि मक्का बहुत छोटा शहर था और वहाब के नजरिए से वलिउल्लाह वाकिफ था, क्योंकि दिल्ली आने के बाद उसने मुसलमानों की कटु आलोचना शुरू की कि वे अपने मजहब के प्रति वफादार नहीं हैं। उसने उन्हें धिक्कारा कि वे हिंदुओं के जैसे दिखते हैंं। शाह वलिउल्लाह के मुताबिक मुसलमानों को ‘काफिरों’ से अलग पहचान रखनी चाहिए। उनके नाम से उनके मजहब का पता चलना चाहिए और उन्हें होली (बसंत), दीवाली और अन्य स्थानीय त्योहार नहीं मनाने चाहिए। इसके अलावा, भाषायी स्तर पर भी हिंदू और मुसलमानों को अलग दिखना चाहिए। इस तरह फारसी-अरबी लिपि के साथ एक अलग भाषा उभरी- उर्दू-जिसकी शब्दावली संस्कृत आधारित हिंदी खड़ी बोली से उलट थी। भोजन, शादी के रिवाज और सामाजिक संस्थाएं आदि अलग होने लगे ताकि भारतीय सांस्कृतिक स्वरूप से अलग एक नई मुस्लिम पहचान उभर सके। अपने अनन्यवादी, गैर-भारतीय आधार को सशक्त करने के लिए खलीफा और उम्माह संबंधी मान्यताएं भी पेश होने लगीं। वलिउल्लाह के आक्रामक रुख और ब्रिटिश सत्ता की भड़काई ंिचनगारी से हिंदू-मुस्लिम आखिरकार अलग-अलग समुदायों में बंटते चले गए और यह विषबेल ऐसी फैली कि उसके ताप ने भारत के दो टुकड़े कर दिए। आज हमें इतिहास से सबक लेकर एक स्पष्ट संदेश के साथ भारतीय पहचान स्थापित करने का लक्ष्य निधारित करना होगा जो किसी पांथिक मान्यताओं, सामाजिक उत्पत्ति, भाषायी समूह और भौगोलिक स्थान के लिए खतरा न हो। हमें विघटनकारी बलों के कुत्सित इरादों को कुचलना होगा, अन्यथा हमारे देश की शांति पर ग्रहण लग जाएगा और भारतीय समाज जाति, पंथ, भाषा, क्षेत्रीय सीमाओं के नाम पर विभाजित हो जाएगा। कहते हैं, सतत सतर्कता से ही स्वतंत्रता की रक्षा संभव है। (लेखक नई दिल्ली स्थित नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी के निदेशक हैं)
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