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डोकलाम को लेकर चीन की उग्र बयानबाजियों के बीच भारत सरकार द्वारा गरिमापूर्ण व्यवहार के साथ ही अपनी सामर्थ्य का परिचय देना एक सफल कूटनीति की निशानी ही कही जाएगी
ले. ज. (सेनि) सैयद अता हसनैन
भूटान के निकट स्थित 89 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र लंबे डोकलाम पठार में जारी तनाव आठवें सप्ताह में प्रवेश कर चुका है। इस बीच बीजिंग से ब्रिक्स बैठक में शिरकत करने के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल के लौट आने के साथ ही इस संबंध में चीन की मंशा भी स्पष्ट होने लगी है। इस वर्ष जून के शुरू में चीन ने डोकलाम पठार के दक्षिणी सिरे पर चुम्बी घाटी के निकट ‘ट्राईजंक्शन’ पर एक सड़क का निर्माण करने के अपने उग्र इरादे से भूटान और भारत को हैरानी में डाल दिया था। इस मामले में खास बात यह है कि डोकलाम क्षेत्र चीन और भूटान के बीच विवादित है; भारत इस विवाद से बाहर है। फिर भी डोकलाम चुम्बी घाटी के पूर्वी सिरे पर है जो इसी घाटी के पश्चिमी सिरे पर हमारे रक्षा क्षेत्र के ठीक सामने पड़ता है। इसलिए इस क्षेत्र में किसी भी तरह का निर्माण चुम्बी के दक्षिणी सिरे पर चीन की क्षमता में वृद्धि कर सकता है जो क्षेत्र की सामरिक तस्वीर को बदल देगा।
भारत इस मार्ग निर्माण को लेकर ज्यादा संवेदनशील इसलिए भी है क्योंकि इसके कारण सिलिगुड़ी गलियारे के समक्ष चीनी का खतरा बढ़ सकता है। सिलिगुड़ी गलियारे को आमतौर पर ‘चिकेन्स नेक’ कहा जाता है जो कि यहां से दक्षिण की ओर 50 किमी की दूरी पर दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में स्थित है।
इस मामले में जब भूटान के विरोध का कोई नतीजा नहीं निकला तो उसने मदद के लिए भारत से गुहार लगाई। 2007 की भारत-भूटान मैत्री संधि के प्रावधानों के अंतर्गत भारत मदद देने को वचनबद्ध है। इसके बाद भारतीय सेना की कुछ टुकड़ियां भूटानी क्षेत्र में पहुंचीं और बिना गोलीबारी के चीन के मार्ग निर्माण के सामने अवरोध खड़े कर दिए। कई तस्वीरों में दिखी इस तनातनी से 1967 के नाथुला विवाद की यादें ताजा हो जाती हैं, हालांकि उस दौरान दोनों देशों के सिपाही एक दूसरे के सामने बंदूकें थामे खड़े थे। नाथुला के संघर्ष के दौरान दोनों ओर हताहतों की संख्या काफी ज्यादा थी, हालांकि उस समय चीन को अधिक सैनिक गंवाने पड़े थे, क्योंकि चीन ने उस दौरान उत्साह में नाथुला चौकी पर बाड़ लगा रही भारतीय सेना को उग्रता से रोकने की कोशिश की थी। हालांकि भारतीय सेना सीमा बंटवारे के अनुसार ही अपने काम में लगी थी।
1967 की अपेक्षा आज की चीनी प्रतिक्रिया कुछ अलग दिशा में दिख रही है। सबसे पहले उसने बेतुके तर्कों के साथ नाथुला से गुजरने वाली वार्षिक मानसरोवर यात्रा पर रोक लगाई। उसके बाद उसने अपने सरकारी मीडिया के जरिये तीखा मनोवैज्ञानिक दुष्प्रचार शुरू किया, जो कि पिछले 30 वर्षों के दौरान देखने को नहीं मिला था। इस अभियान में इस्तेमाल की जाने वाली शब्दावली पी-5 के सदस्य की गरिमा से कहीं नीचे थी जो खुद के एक जिम्मेदार देश होने का दम भरता है। यह बयानबाजी दिन-ब-दिन बढ़ती गई और आज भी जारी है। तीसरा, इस कारण तिब्बत में चीन का ब्रिगेड स्तर का सैन्य अभ्यास देखने को मिला है जिसके जरिए वह भारत को डराना चाहता था। हालांकि चीन की लामबंदी या सैन्य तैयारियों की कोई खबर नहीं मिली है, लेकिन धमकियों को देखते हुए महसूस होता है कि जैसे युद्ध बस छिड़ने को है। इसलिए हमारे सामने मुद्दा यह जानने का है कि क्या यह मामला दुर्घटनापरक और अव्यावहारिक था जो कि हाथों से निकल गया या फिर इसे जानबूझकर अंजाम दिया गया था।
जाहिर है, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को ऐसे सामरिक सैन्य तर्कों ने निर्देशित किया होगा कि वह इस मामले से जो भी राजनीतिक हित साधना चाहती है, वह आसान नहीं होंगे। चीन के इस उग्र अभियान की पृष्ठभूमि में साफ दिख रहा है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग इस वर्ष कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं नेशनल कांग्रेस के दौरान समूचे विपक्ष को धराशायी कर अपने नेतृत्व की अवधि में विस्तार करना चाहते हैं। तंग शियाओ फंग के शासनकाल के बाद जिनपिंग चीन के सबसे शक्तिशाली नेता के तौर पर उभर कर सामने आए हैं और उनकी महत्वाकांक्षा चीन के आधुनिकीकरण के जनक की छवि से भी आगे जाने की है। हालांकि, जिनपिंग की इस नीति में कूटनीतिक, आर्थिक एवं सैन्य शक्ति का प्रदर्शन भी एक अहम हिस्सा है। इस दिशा में मई 2017 में बीजिंग में छवि निर्माण के लिए ‘वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव’ (ओबीओआरआई) के दौरान राजनीतिक एवं सामरिक महत्व के साथ-साथ आर्थिक पक्ष को भी प्रमुखता से सामने रखा गया था; जापान एवं अमेरिका द्वारा इस दौरान शिरकत जिनपिंग की बड़ी राजनीतिक उपलब्धि थी। वहीं उत्तर कोरियाई नेता किम जोंग उन के उग्र इरादों पर रोक लगाने के लिए अमेरिका की चीन पर निर्भरता से भी इस छवि में सुधार होता दिखा। इसके बाद उनके सामने एक ही काम रह जाता था और वह था अपने बड़े पड़ोसी देश को खास मुद्दों पर घेरना और डराना, उसे चीन की विशाल ताकत के सामने बौना साबित करना। इस तरह वह संभवत: चीन से अपने योगदान का प्रमाणपत्र चाहते हैं।
वैसे चुम्बी घाटी का चुनाव संभवत: भारत और भूटान द्वारा बीजिंग में ओबीओआरआई बैठक में भाग न लेने के फैसले के कारण किया गया। चीन के निकटतम पड़ोसी होने के कारण दोनों देशों की अनुपस्थिति पर खासी चर्चा हुई थी। चीन को उम्मीद थी कि सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण सिलिगुड़ी गलियारे के पास स्थित इस तनावयुक्त क्षेत्र पर दबाव बनाने से भारत और भूटान दोनों चीन की मांगों को मान लेंगे। इस संबंध में उसकी कभी बड़ा झगड़ा मोल लेने की मंशा नहीं रही, क्योंकि स्थानीय स्तर पर ऐसे किसी विवाद के सफल होने की कोई गारंटी नहीं होती। ऐसे किसी भी विवाद के बढ़ने की सूरत में वह लद्दाख, मध्यवर्ती क्षेत्र या अरुणाचल प्रदेश तक फैल सकता है जिससे भारत के विकल्प सीमित हो जाएंगे। पीएलए को उम्मीद है कि भारत असुरक्षित क्षेत्रों के पास ऐसे किसी भी तनाव से बचने की कोशिश करेगा और दबाव में आ जाएगा। लेकिन इस संबंध में उसने तीसरे विकल्प का अंदाजा नहीं लगाया था, जिसमें भारत की ओर से लंबे प्रतिरोध और आपसी रजामंदी पर फौजों की वापसी से सामरिक तौर पर भारत की जीत होगी। इतने लंबे विवाद के कारण को इसी तरह समझा जा सकता है कि अब चीन नेशनल कांग्रेस की बैठक से पहले अपनी फौजें वापस बुलाने का फैसला नहीं कर सकता। और यही कारण है कि मध्यवर्ती क्षेत्र के बाराहोटी में कोई एक हफ्ता पहले पीएलए द्वारा छिटपुट घुसपैठ की घटनाएं आगे भी देखने को मिल सकती हैं। ऐसी ही घटनाएं लद्दाख एवं अरुणाचल के क्षेत्रों में भी देखी जा सकती हैं।
इसलिए जो भी भारत व चीन के बीच पूर्ण युद्ध छिड़ने की संभावना देख रहे हैं उन्हें समझना होगा कि ऐसा कोई भी परिदृश्य दीर्घकालिक तौर पर किसी भी तरह चीन के राजनीतिक लक्ष्यों के पक्ष में नहीं होगा। यह भी साफ है कि इस मामले में कम से कम फिलहाल, भारत की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है। वहीं चीन के समक्ष जापान और दक्षिण-पूर्व एशिया से जुड़ी कई परेशानियां हैं। उसे व्यावहारिक तौर पर सोचना होगा कि हिंद महासागर क्षेत्र में एक बड़ी शक्ति को अपने खिलाफ करना चीन के हितों को नहीं सुहाएगा। चीन की विकास गाथा उसकी ‘सी लाइन्स आॅफ कम्युनिकेशन’ (एसएलएसओसी) की सुरक्षा पर निर्भर करती है, जो पहले से असुरक्षित है और भारत उसे और असुरक्षित बना सकता है। इस मुद्दे को कुशलता से साधने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सूझबूझ की तारीफ किए बिना यह समूचा आकलन अधूरा होगा। कहना न होगा कि बिना किसी बड़े दावे के भारत ने इस व्यर्थ के विवाद को कुशलता से दबाए रखने के साथ ही अपने सामरिक अनुभव का भी परिचय दिया है। सामरिक मामलों में ऐसे मुद्दों को सहेजना सबसे कठिन कार्य होता है। इसलिए अब जरूरत है कि भारत का यह शांत और गौरवशाली व्यवहार बना रहना चाहिए। दो या अधिक मुद्दों पर जंग कर सकने की भारत की क्षमता का बखान करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि कई बार विजयश्री शांत और गौरवशाली व्यवहार में निहित होती है।
(लेखक प्रख्यात सुरक्षा विशेषज्ञ और श्रीनगर स्थित 15 कोर के प्रमुख रहे हैं।)
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