एक शहीद की अंतिम घड़ियां
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एक शहीद की अंतिम घड़ियां

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Jul 17, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 17 Jul 2017 14:13:04

एक शहीद की अंतिम घड़ियां
पाञ्चजन्य ने 1968 में क्रांतिकारियों पर केंद्रित वशेषांकों की शृंखला प्रकाशित की थी। दिवंगत श्री वचनेश त्रिपाठी के संपादन में निकले इन अंकों में देशभर के क्रांतिकारियों की शौर्य गाथाएं थीं। पाञ्चजन्य पाठकों के लिए इन क्रांतिकारियों की शौर्य गाथाओं को नियमित रूप से प्रकाशित कर रहा है। प्रस्तुत है 22 जनवरी ,1968 के अंक में प्रकाशित मन्मथनाथ गुप्त का आलेख  :-
1934 का 20 जून अपने साधारण रूप में ही हमारी बैरक में अवतरित हुआ था। उसके सुनहले अवगुंठन के पीछे एक महान अनर्थ दुबक कर शिकार के लिए बैठा है, इसका लेशमात्र भी ज्ञान हमें नहीं था। 9 बजे दिन के समय एक जर्मन पुस्तक को साक्षी रखकर अपनी विचारधारा में बहा जा रहा था। श्री यशपाल भी कुछ पढ़ रहे थे। इतने में जेल की भाषा में रिपोर्ट मिली कि बड़े जेलर बी क्लास की ओर यानी हमारे बैरक की ओर आ रहे हैं। हम उनके असमय आगमन के कारण का अनुमान कर ही रहे थे कि वे जूते चर्र-मर्र करते स्वयं ही आ पहुंचे। हमारे साथी श्री यशपाल तथा मैंने जेलर की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा। उन्होंने भी भूमिका न बांधकर एकदम कहना प्रारंभ किया, ‘‘मि. बनर्जी की हालत बहुत खराब है। क्या आप उनसे मिलना चाहते हैं?’’
‘मरना निश्चित है’
उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मैं जल्दी से रवाना होने के लिए तैयार होने लगा। कामरेड पाल जेलर से बातें करने लगे। तीन मिनट के अंदर ही हम जेलर के साथ अस्पताल की ओर चल पड़े। रास्ते में और पूछताछ की तो जेलर ने कहा—‘‘आगामी दस मिनटों के अंदर मि. बनर्जी का मरना निश्चित है।’’
इसके बाद भी उन्होंने कुछ कहा, किन्तु क्या कहा, यह मैं नहीं समझ सका। यह खबर सुनते ही हमारे चित्त की अवस्था भ्रांत-सी हो गई और हम जल्दी-जल्दी अस्पताल की ओर चलने लगे। अस्पताल जाकर क्या देखता हूं कि मणीन्द्र नंगे शरीर दो तकियों पर औंधे होकर पड़े हैं और कुछ धीमे शब्दों में कराह रहे हैं। यह भी देखा कि उनकी देखभाल के लिए मिला कैदी पास ही निर्लिप्त रूप से बुत बना बैठा है। शिथिलवृन्त एवं पतनोन्मुख पुष्प की भांति मणीन्द्र का मुख निष्प्रभ एवं म्लान हो गया था। हमने एक ही दृष्टि से सब परिस्थिति समझ ली। मैं सीधा मणीन्द्र की खाट पर बैठा और झपट कर उसे उठाकर हृदय से लगा लिया। ऐसा करना हमारी भूल हो सकती है, किन्तु हमें ऐसा जान पड़ा कि हमारे आते ही उसके मुख की कातर मुद्रा कुछ देर के लिए अंतर्हित हो गई। मैंने जोर से पुकारा— ‘‘मणी, मणी, मैं आया हूं।’’
‘जा रहा हूं’
मणीन्द्र ने कहा— ‘‘हां, हां, तुम मन्मथ हो। तुम मुझे खूब जोर से पकड़े रहो, अब मैं जा रहा हूं।’’ मैंने कहा— ‘‘देखो मणीन्द्र, जाने-आने की बात सब फिजूल है।’’ … और मैं फिर उसे सुनाने लगा कि बीमारी में किस प्रकार बरेली के क्रांतिकारी कैदी दामोदर सेठ 122 पौंड से 61 पौंड रह गए थे। एक चम्मच फल का रस भी हजम नहीं होता था। जिस प्रकार क्रांतिवीर राजकुमार सिंह बरेली में इतने अस्वस्थ हो गए थे कि एक चम्मच हारलिक का दूध हजम नहीं कर पाते थे, फिर भी वह आज जीवित हैं। मरे नहीं, स्वस्थ हैं। मणीन्द्र इन कहानियों को अच्छी तरह जानते थे, कोई मेरी गढ़ी हुई बातें नहीं थीं। इसीलिए मैंने स्पष्ट देखा कि वह प्रभावित हो रहे हैं।
मैंने देखा कि उन्होंने अभी तक श्री यशपाल की उपस्थिति अनुभव नहीं की। इसलिए मैंने कहा, ‘‘मणीन्द्र, मि. पाल पास ही बैठे हैं। क्या तुम उन्हें देख नहीं पा रहे हो?’’ मणीन्द्र ने इसके उत्तर में आंखें खोलकर देखा, किन्तु उन्हें कुछ भी सूझ नहीं पड़ा, तो निराश होकर बोले— ‘‘नहीं मैं कुछ भी नहीं देख पा रहा हूं। बार्इं आंख से एकदम कुछ नहीं, दाहिनी आंख से जरा धुंधला-सा देख रहा हूं। मि. पाल, आप बैठिए।
वह विह्वल आत्महारा अवस्था…
इस बात को सुनते ही मैं इतना मर्माहत हो गया कि हमारे हाथ-पैर शिथिल हो गए। श्री पाल ने मणीन्द्र को पकड़ लिया, क्योंकि मैं खाट से छिटक कर जमीन पर जा पड़ा, खैरियत यह हुई कि मैंने लोहे की खाट के पावे को पकड़ लिया। मैंने जल्दी से जेलर के होते हुए भी कमीज उतार डाली। ऐसा मालूम हुआ कि मैं बेसुध हो जाऊंगा, किन्तु जीवन में मैं कभी बेसुध नहीं हुआ था, उस दिन भी नहीं हुआ। इस विह्वल आत्महारा अवस्था में मैंने दो मिनट बिताए होंगे। फिर मेरा आत्मबल जाग्रत हो उठा और उस दिन जब तक मणीन्द्र जीवित रहे, तब तक मैं फिर आपे से बाहर नहीं हुआ। एक गिलास पानी पीकर मैं पुन: कमर कसकर मणीन्द्र के पास पहुंचा। यद्यपि मैं यह जानता था कि यह दृष्टि-हीनता का लक्षण बहुत ही खराब है और जीवन रूपी प्रदीप में अत्यंत तैलाभाव सूचित करता है। फिर मैं मणीन्द्र को बराबर समझाने लगा कि ऐसा कुछ नहीं है। मणीन्द्र मेरी बातों को ध्यान से सुनता रहा, उसने प्रतिवाद नहीं किया। वह अच्छे लड़के की भांति मेरे व्याख्यान को हजम करने लगे। श्री पाल ने इस बीच में बी श्रेणी के बैरक से ओडोक्लोन की शीशी मंगाई और ओडोक्लोन मणीन्द्र के सीने में मलने लगे। मैं मणीन्द्र को इसी प्रकार पकड़ कर जेलर से पूछने लगा— ‘‘इनके घरवालों को इनकी क्या खबर दी गई है?’’
तार भेजे गये
इसके उत्तर में मुझ बतलाया गया कि एक तार बनारस में दिया गया है। मैंने कहा, ‘‘यह यथेष्ट नहीं है।’’ इसके अतिरिक्त मैंने कहा कि जो तार दिया गया है, उसका शब्द विन्यास ठीक नहीं है। उससे परिस्थिति की भयानकता स्पष्ट नहीं होती। खैर, तर्क-वितर्क के बाद दो-तीन और तार जेलर ने सरकारी खर्च से भेजना स्वीकार किया। इसके फलस्वरूप मेरठ, इलाहाबाद तथा बनारस में तार भेजे गए। तार भेजने की व्यवस्था कर लेने के बाद मैंने जेलर से पूछा कि आई.जी. को क्या रिपोर्ट दी गई है? इसके उत्तर में मुझे बतलाया गया कि सोमवार के दिन मेजर भंडारी ने आई.जी. की रिपोर्ट दी है। मैंने कहा— ‘‘लिखा है तो अच्छी बात है, किन्तु ऐसी अवस्था में मणीन्द्र को बहुत पहले ही छोड़ देना चाहिए था। बहुत से कैदी स्वास्थ्य की खराबी के कारण प्रति वर्ष छोड़े जाते हैं, यह तो आप जानते ही होंगे। फिर आप यह भी जानते हैं कि यदि मणीन्द्र को कुछ हो गया तो जनता उसका भारी विरोध प्रदर्शन करेगी और उसके फलस्वरूप यदि कोई कमीशन बैठे तो कोई आश्चर्य नहीं। आप जानते हैं कि लखनऊ जेल में जब अवध सिंह मर गए थे तब बाद में कैसा तूल-तबील हुआ था?’’
इस प्रकार कुछ गंभीर रूप से, तथा कुछ परिहास में, मैं जेलर को सहज सत्य बातें समझा रहा था। वह भी पुराना खुर्राट था। मेरी बातों का नॉनकमिटल किस्म का उत्तर दे रहा था। मणीन्द्र हम लोगों की बातें बड़े ध्यान से सुन रहे थे। श्री यशपाल और मैं विशेष रूप से उनका ध्यान बंटाने के लिए तथा उन्हें यह दिखाने के लिए कि उनकी अवस्था जरा भी खराब नहीं है, इधर-उधर की बातें कर रहे थे। कहा जा सकता है कि हम जरा अभिनय कर रहे थे।
मणीन्द्र के साथ बातचीत करने में हमें यह भी ज्ञात हुआ कि सबेरे फर्रुखाबाद के सिविल सर्जन मि. गुलाम मुर्तजा मि. भंडारी के साथ आकर परीक्षा कर गए थे और बाद में उसे दो इंजेक्शन भी दिए गए थे। जेलर ने तुरंत ही प्रतिवाद किया कि वह इंजेक्शन के विषय में कुछ भी नहीं जानता। किन्तु मणीन्द्र ने दृढ़तापूर्वक कहा कि इंजेक्शन अवश्य दिया गया था। तब जेलर बोला— ‘‘संभव है इंजेक्शन दिया गया हो, पर मैं मौजूद न था।’’
कैसा था वह इंजेक्शन!
तब श्री यशपाल और मैंने मणीन्द्र के बाहों की परीक्षा की। स्पष्ट रूप से इंजेक्शन के निशान मौजूद थे। मुझे जरा संदेह हुआ, किन्तु मैंने सुझाव दिया कि पिट्रूटीन का इंजेक्शन दिया गया होगा। हम सबने इस अनुमान को सत्यरूप में ग्रहण किया, किन्तु मणीन्द्र ने कहा कि उस इंजेक्शन से उसे कोई लाभ नहीं हुआ, बल्कि उस समय से उसकी अवस्था बिगड़ती जा रही है। यह बात तो स्पष्ट थी। यह बात हो सकती है कि इंजेक्शन ठीक दिया गया हो, किन्तु उस समय उसकी अवस्था इतनी खराब हो चुकी हो कि इंजेक्शन का कोई प्रभाव न हो सका।
वह करुण कराह…
मणीन्द्र की श्रवण एवं विचार-शक्तियां अंत तक प्रखर थीं। वे श्री यशपाल के प्रश्नों के उत्तर बराबर अंग्रेजी में तथा मेरे प्रश्नों के उत्तर बांग्ला में देते जा रहे थे। उन्हें बीच-बीच में सांस का दारुण कष्ट हो रहा था और वे बड़े करुण ढंग से कराह रहे थे। यह कराहना सुन-सुन कर हम लोगों का हृदय भीतर बैठा जा रहा था। परन्तु हाय, उसे कुछ भी राहत पहुंचाना हमारे वश की बात न थी। बीच-बीच में हम उसे चम्मच से बर्फ का पानी दे रहे थे।
ऐसे समय में हमें अकस्मात् याद आया कि डॉक्टर मुकर्जी नाम के एक सज्जन फर्रुखाबाद शहर में रहते हैं। मैंने जेलर से कहा, किन्तु मुझे बताया गया कि वे बहुत दिन हुए इस शहर से चले गए हैं। इसके बाद मणीन्द्र ने स्वयं ही समरण कर अपने एक रिश्तेदार का नाम बतलाया, जो इसी शहर में रहते हैं और सरकारी स्कूल में मास्टर या हेड मास्टर हैं। जेलर उस समय चला गया था, इसलिए मैंने स्वयं एक परचा लिखकर जेलर को खबर दी। बाद में हमें बतलाया गया कि वहां आदमी भेजा गया था, किन्तु इस नाम के किसी महाशय का पता नहीं लगा।
काश! पहले उपचार हो पाता!
जब मैं अस्पताल में आया था, तभी मुझे बतलाया गया था कि कम्पाउंडर शहर में मणीन्द्र के लिए दुर्लभ दवा लाने के लिए गया है और जेल का सूबेदार भी सैनिक अस्पताल में मणीन्द्र के लिए आॅक्सीजन लाने के लिए गया है। जब उसकी दशा इतनी खराब हो गई और जीवन की कोई आशा न प्रतीत हुई तब ये सब उपचार होने लगे। हाय, दो दिन पूर्व यदि वे सब बातें की जातीं। बड़े डॉक्टर ने मुझे यह बतलाया कि कम्पाउंडर जिस दवा को लेने के लिए गया है, वह फर्रुखाबाद के सदृश ‘जंगली एवं अभागे’ शहर में शायद ही मिले। विगत 24 घंटों में मणीन्द्र ने दो औंस से अधिक पेशाब नहीं किया था। उसका मूत्राशय एकदम बेकार हो रहा था और उसकी कार्य शक्ति चली सी गई थी।
सात दिन तक न सोने के कारण, यहां तक कि लेटना भी संभव न होने के कारण उसकी जीवन शक्ति भाटे की निम्नतम श्रेणी में आ गई थी। 14 मई वाले अनशन के समय से ही उसके पेशाब से अल्ब्यूमेन क्षरण हो रहा था और मूत्राशय उसी समय से विध्वस्त होना प्रारंभ हो गया था। वह अनशन के समय अपनी इस बात को भली भांति जानता था। मेजर भंडारी ने बार-बार उसे यह बात कह कर सावधान कर दिया था और कहा था कि उसके लिए अच्छा होगा कि अब अनशन तोड़ दे। यह भी एक कारण था जिससे मैंने 23 मई को अनशन तोड़ने के लिए अपने साथियों को परामर्श दिया था।          (जारी)

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