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अमरनाथ यात्रा पर जिहादी हमले और उससे उठे सवालों पर सेकुलर चुप्पी अपने आप में बहुत कुछ बयान करती है। मीडिया ने एक बार फिर अपनी जिम्मेदारी को ठीक से नहीं निभाया
ज्ञानेन्द्र बरतरिया
अमरनाथ यात्रा पर हुए हमले का है, जिसमें गुजराती तीर्थयात्रियों से भरी बस पर हमला किया गया था, अत्याधुनिक हथियारों से, और 7 बेकसूर यात्रियों की जान गई थी। अभी अपुष्ट सूचना यह है कि हमले में शामिल रहे 4 आतंकवादियों में से 3 को गिरफ्तार कर लिया गया है। इस बारे में चर्चा करने से पहले, आतंकवाद के मजहब से रिश्ते के कुछ वृत्तांत देखने जरूरी हैं।
हमले को किस रूप में देखें
आतंकवादी हमलों के संदर्भ में चर्चा में यह बिंदु कई बार सामने आता है कि अगर ऐसा हमला इस्रायल पर हुआ होता, तो क्या होता। यह दृष्टांत भी कश्मीर का है, जिसमें इस्रायली पर्यटकों पर हमला करने पहुंचे आतंकवादियों को पर्यटकों ने ही, उन्हीं की एके-47 रायफलें छीनकर ढेर कर दिया था। अब अमरनाथ यात्रा पर हुए हमले पर लौटें। बिना सुरक्षा की किसी बस पर घात लगाकर हमला करके निहत्थे, सोए हुए पर्यटकों को अत्याधुनिक हथियारों से मार देना कोई बहादुरी की बात नहीं है। बहादुर तो उन्हें कहा जाना चाहिए, जो इन हथियारबंद आतंकवादियों से निहत्थे लड़े और जीते।
अब 15 वर्ष पहले गांधीनगर में अक्षरधाम मंदिर पर हुए हमले को याद कीजिए। इसे भी हम इसी रूप में जानते हैं कि इस्लामी आतंकवादियों ने अक्षरधाम मंदिर में श्रृद्धालुओं पर हमला किया था, जिसमें लगभग 30 श्रृद्धालु मारे गए थे। वे इस्लामी आतंकवादी इतने बहादुर थे कि उन्होंने 3-4 साल के बच्चों को आॅटोमैटिक बंदूकों से मारा था।
लेकिन यह आधी सचाई है। पूरी बात यह है कि उन आतंकवादियों ने उस हॉल में घुसने की कोशिश की थी, जिसमें बड़ी संख्या में श्रृद्धालु मौजूद थे। लेकिन दो गुजराती युवकों ने बरसती गोलियों के बीच उस हॉल का विशाल लकड़ी का दरवाजा भीतर से बंद कर दिया था, आतंकवादियों का खूनी खेल इसके साथ ही बेकार हो गया था।
अब अमरनाथ यात्रा पर हुए हमले पर फिर लौटें। एक राष्ट्रीय अखबार का जम्मू संस्करण लिखता है (मुख्यधारा वाले मीडिया से अपेक्षा न करें)-‘बस में चार बहादुर नौजवान ऐसे थे, जो खुद की जान की परवाह किए बगैर बस यात्रियों की जिंदगी बचाने कूद पड़े। गोलियां उनके शरीर को चीरकर निकलती रहीं, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और 50 जिंदगियां बचा लीं। घायल यात्रियों का कहना है कि इन बहादुर जवानों ने बस का दरवाजा बंद न किया होता तो शायद कोई जिंदा न बचता। मुकेश पटेल और हर्ष देसाई बस के दरवाजे की बगल में बैठे थे। फायरिंग शुरू होते ही मुकेश के पास बैठै यात्री की मौत हो गई। फायरिंग करते आतंकवादी ने दौड़ते हुए बस में घुसने की कोशिश की।
मुकेश और हर्ष नीचे झुककर गेट बंद करने भागे। तभी दो गोलियां हर्ष के कंधे और हाथ पर लगीं। एक गोली मुकेश के गाल को चीरते हुए निकल गई। लेकिन दोनों ने रेंगते हुए बस के दरवाजे की चटखनी लगा दी। इससे आतंकवादी अंदर नहीं घुस पाए। खबर तो यह भी है कि एक आतंकवादी गेट पर लटक गया था, जिसे धक्का देकर गिरा दिया गया था।’
तो कौन था असली बहादुर?
लेकिन इस्रायल से तुलना वाली बात यहां खत्म नहीं होती। बात सरकार तक जाती है। अब देखिए कर्नल (से.नि.) नीरव भटनागर का (उनकी फेसबुक वॉल से) उत्तर-‘‘आतंकवाद के प्रति जीरो टॉलरेंस अवश्य होना चाहिए। ऐसा कहना सरल है, करना कठिन। भारत में यह लगभग असंभव ही है। मोदी जी ने गुजरात में इसका प्रयास किया था। उनके पुलिस प्रमुख को कई वर्ष जेल में बिताने पड़े थे। केपीएस गिल ने इसका प्रयास किया था, एनजीओ और अदालतें उनकी टीम के कई सदस्यों के पीछे पड़ गई थीं और अंतत: एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को आत्महत्या करनी पड़ी थी। हम इस लक्ष्य को भारत में कैसे प्राप्त कर सकते हैं? प्रथम, जब हमारी अदालतें यह तय करती हैं कि उस भीड़ के खिलाफ कौन सा हथियार प्रयोग में लाया जाना चाहिए, जो आतंकवाद का समर्थन करती है और सुरक्षा बलों पर पथराव करती है। दो, जब हमारी अदालतें निर्देश देती हैं कि जब भी कोई आतंकवादी मारा जाएगा, तो एक एफआईआर दर्ज की जाएगी। तीन, जब हमारे मानवाधिकार संगठन घोषणा करते हैं कि जिस शख्स ने सेना को अपने कर्तव्य का निर्वहन करने से रोकने की चेष्टा की थी, उसे मुआवजा दिया जाएगा। चार, पिछले 30 वर्ष से आतंकवाद का सामना करने के बावजूद, आतंकवाद से निबटने के लिए हमारे पास कानून में कोई विशेष प्रावधान नहीं है। पोटा/टाडा सभी समाप्त हो चुके हैं और हमें कसाब को सजा देने में लगभग एक दशक लग गया, जो कि एक पूरी तरह स्वयंसिद्ध मामला था। और पिछले 60 वर्ष में ऐसी संस्थागत समस्याएं पैदा हो चुकी हैं, जिन्हें मात्र 3 वर्ष में समाप्त नहीं किया जा सकता है।’’ वास्तव में यह सब दीर्घकालिक कायरता के बड़े-बड़े यादगार स्तंभ हैं। इनका रंग-रोगन करने के लिए कुछ और बातें गढ़ी जाती हैं। जैसे बार-बार यह घोषणा करना कि ‘भारत कभी किसी देश पर हमला नहीं करता है, न उसने किया था। या यह कि ‘भारत एक शांतिप्रिय देश है’, (और लिहाजा वह जवाबी कार्रवाई नहीं करेगा।) या यह कि ‘हमें अहिंसक आंदोलन के कारण स्वतंत्रता मिली थी (आंदोलन खत्म होने के आधे दशक बाद उसका असर हुआ था?)। यह इंडिया है, कोई इस्रायल थोड़े ही है।’आदि। जाहिर है, इस्रायल में आतंकवादियों को ये सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन भारत के खिलाफ जारी आतंकवाद के ये वे तीन पक्ष हैं, जिनसे भारत की मीडिया मुंह मोड़े रहता है।
इन दो यात्रियों की ‘बहादुरी’ की चर्चा आपने देखी। मुख्यधारा के मीडिया में बस के ड्राइवर सलीम शेख की ‘बहादुरी’ की चर्चा ज्यादा है। लेकिन सुरक्षा विशेषज्ञों ने इस पर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि जिस ‘आपराधिक’ लापरवाही ने इन तीर्थयात्रियों के प्राण खतरे में डाले थे, पहले उसकी चर्चा ज्यादा जरूरी है। उनके अनुसार एक खतरनाक मार्ग से बस चलाने का फैसला, श्राइन बोर्ड में बस का पंजीकरण न करवाना, सुरक्षा बलों ने जो सुरक्षा घेरा उपलब्ध करवाया था, उसमें शामिल न होने का फैसला, सुरक्षित माने जाने वाले समय, जिसका भरपूर प्रचार किया गया था, के काफी देर बाद बस चलाना-ये सारी बातें संदेह के दायरे में आती हैं, और ड्राइवर निश्चित रूप से कम से कम लापरवाही का आरोपी होना चाहिए। हालांकि तय है, ये सारे निर्णय उस अकेले के नहीं होंगे। पुलिस का कहना है कि बस टायर पंक्चर हो जाने के कारण देर से चली थी। यह बात हजम नहीं होती। अगर बस चलने में देर ही हुई थी, तो वह किसी सुरक्षित स्थान पर रात काटने के लिए क्यों नहीं रुक गई थी? कुछ प्रत्यक्षदर्शियों का यह भी कहना है कि इसी बस के पीछे एक और बस भी थी, जिस पर हमला नहीं हुआ। फिर इसी बस में ऐसा क्या खास था?
संदेह करने के कारण हैं। बस भी गुजरात से चली थी, और उसमें सवार लोग भी गुजरात के थे। उस गुजरात के, जो प्रधानमंत्री का गृह राज्य है और वह गुजरात, जहां निकट भविष्य में विधानसभा चुनाव होने हैं। कश्मीर पुलिस पहले ही चेतावनी दे चुकी थी कि देश के विभिन्न भागों में साम्प्रदायिक दंगे छेड़ने के लिए तीर्थयात्रियों की बसों को निशाना बनाया जा सकता है। ऐसे में अगर गुजरात से चली इसी बस को निशाना बनाया जाना था, तो इसका अर्थ यह भी होता है कि हमलावरों के पास पर्याप्त सूचनाएं रही होंगी। इसी का अर्थ यह भी होता है कि बस चलने में हुई देरी, विशेषकर एक के बाद दूसरा पक्चर निकलने वाली बात, अनायास नहीं हो सकती। संदेह की एक और बड़ी वजह है, कि जो आतंकवादी संगठन यात्रा के खिलाफ लगातार चेतावनियां दे रहे थे, जो किसी भी वारदात की जिम्मेदारी लेने में सबसे आगे रहते हैं, उनमें से किसी ने भी अभी तक इस वारदात की जिम्मेदारी क्यों नहीं ली? क्या वे प्रतीक्षा कर रहे हैं कि भारत का कथित मुख्यधारा का मीडिया और मणिशंकर, लालू और दिग्विजय जैसे नेता प्रकरण को उस दिशा में धकेल दें, जिस दिशा में उसे वे चाह रहे हैं? फिर एक बार अमरनाथ यात्रा पर हुए हमले पर लौटें। अमरनाथ यात्रा पर हुआ यह पहला हमला नहीं है। आज से 17 वर्ष पहले भी अमरनाथ यात्रा पर सिलसिलेवार ढंग से हमले किए गए थे। इन हमलों का एक सीधा राजनीतिक संबंध था। राजनीतिक संबंध यह कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की जो कोशिश की थी। अब भी एक वर्ग में यह चर्चा है कि अमरनाथ यात्रा पर यह हमला इस्राइल और अमेरिका के साथ संबंध सुधारने के प्रयासों पर खीझ निकालने की चेष्टा है। जुनैद पर छाती पीटने वाले मुंह क्यों नहीं खोल रहे? अच्छा सवाल है। सवाल, जाहिर तौर पर उन लोगों से है, जिनकी तरफ इशारा कर्नल भटनागर ने किया है, या जो खुद को उदार, वामपंथी या कथित मुख्यधारा का पत्रकार मानते हैं। अमरनाथ यात्रियों पर हमले के मामले में उनकी चुप्पी ही बहुत है। यह यात्रा सिर्फ धार्मिक, आध्यात्मिक ही नहीं, एक भौतिक क्रिया भी है। जो शेष देश से कश्मीर की अभिन्नता को रेखांकित करती है। इसे हिंगलाज भवानी की तरह पराया नहीं होने दिया जा सकता है। चाहे जो हो।
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