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जहां एक तरफ ईसाइयत में मत से विमुख होने वालों की संख्या बढ़ रही है, वहीं जिहादी आतंकियों को पीठ पीछे पोसने वाले यूरोपीय देशों का औपनिवेशिक रवैया ज्यों का त्यों है। ईसाई मिशनरियां जोर-शोर से कन्वर्जन के काम में लगी हैं। उनका अलगा लक्ष्य दक्षिण पूर्व एशिया है
मोरेश्वर जोशी
दुनिया में लोगों के ईसाइयत से दूर होने की प्रक्रिया बढ़ती जा रही है। पिछले साल अप्रैल में यूरोप की यात्रा के दौरान मुझे यह एहसास हुआ। यह चलन प्रमुखता से सामने दिख रहा था। बड़े शहरों में कुछ चर्चों की हालत देखकर यह बात और तय दिखाई दी। यह चलन वहां मुख्य रूप से मूल श्वेत यूरोपीय समाज में बड़े पैमाने पर दिखता है। यूरोप के साथ ही यह बदलाव अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और रूस 6में भी बहुतायत में दिखता है। अन्य कोई मत स्वीकारे बिना ईसाई मत छोड़ने का यह मामला हैरान करने वाला है। कुछ यूरोपीय देशों में नास्तिकता की तरफ जाने वालों की संख्या उतनी नहीं है, लेकिन अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और रूस में यह बहुसंख्या में दिखता है।
हैरानी की बात है कि वहां मत से दूर होने वाले अधिकांश लोगों ने ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया है। वे आध्यात्मिक तो हैं लेकिन आध्यात्मिक समाज की भारत में जो कल्पना है, वैसी वहां नहीं है। इतना जरूर कहा जा सकता है कि वे योग अध्ययन, हरेकृष्ण आंदोलन, श्रीश्री रविशंकर, माता अमृतानंदमयी तथा चीन के 'ताई ची' आध्यात्मिक आंदोलनों और 'रेकी' उपासना से जुड़े हुए। ईसाई मत छोड़ने वाले लोगों के दो प्रकार। एक तो निधर्मी यानी भौतिकवादी, और दूसरे वे, जो किसी ने किसी आध्यात्मिक उपासना पद्धति का अनुसरण करते हैं। इसमें निधर्मियों की तुलना में किसी न किसी आध्यात्मिक उपासना पद्धति का अनुसरण करने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। दक्षिण पूर्व एशिया की बात करें तो ईसाई मत को त्यागने के चलन का दूसरा पहलू यह है कि चीन में नवईसाइयों की संख्या एक करोड़ से ज्यादा हो चुकी है। कुछ लोगों के अनुसार, यह 12 करोड़ है जबकि कुछ के मतानुसार यह 15 करोड़ है। दूसरी तरफ अफ्रीका में यह आंकड़ा एक अरब से ऊपर चला गया है। भारत में भी यह आंदोलन बढ़ा है। मिशनरियों का अगला लक्ष्य दक्षिण पूर्वी एशिया है। ब्रह्मदेश (बर्मा) का पिछले 30-35 वर्षों में म्यांमार नाम होने के बावजूद उस देश के लोग अभी भी गर्व से ब्रह्मदेश नाम ही प्रयुक्त करते हैं। उसी तरह लाओस, कंबोडिया, थाईलैंड, वियतनाम, श्रीलंका, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि देशों के ईसाईकरण की योजनाएं तैयार हैं। इनमें से कुछ देश तो मुसलमान हैं, फिर भी चूंकि वे कट्टर मुसलमान नहीं हैं, इसलिए मिशनरियों को वहां अच्छे प्रतिसाद की उम्मीद है। लेकिन इस पूरे ईसाईकरण का स्वभाव यही है कि यूरोप के ईसाई पंथ-उपपंथ के मुख्यालयों के प्रयासों के बिना इसमें से कुछ नहीं होता। यानी अफ्रीका में उप सहारा प्रदेश और उससे सटकर कुछ देशों की जनसंख्या पिछले सौ वर्ष के दौरान एक करोड़ से बढ़कर एक अरब हो गई, लेकिन वह सब मिशनरियों के प्रयासों के चलते ही हुई है। एक ओर वहां अकालग्रस्त माहौल कायम रखना तो दूसरी तरफ वहां करोड़ों टन अनाज, तेल के डिब्बे, दूध पाउडर के डिब्बे मदद के तौर पर देते हुए ईसाई संख्या बढ़ने देना, यह एजेंडा वहां पिछले 100 वर्ष से जारी है। अफ्रीका महाद्वीप का हर देश प्राकृतिक संपदा से संपन्न है फिर भी यूरोपीय वर्चस्व के चलते वहां का कोई हिस्सा सुजलाम् सुफलाम् नहीं है। इन्होंने भारत की भी 150 वर्ष से अधिक समय तक यही हालत बनाई थी। चीन में मिशनरियों ने वहां के ईसाईकरण के आधार पर जल्द ही उसे 'ईसाइस्तान' बनाने का यूरोप, अमेरिका का सपना है। लेकिन इस बारे में चीन की सरकार का कहना है कि चीन में किसी की भावना का सम्मान तो होता है लेकिन उसके आधार पर कोई यदि राजनीति अथवा आक्रमण की भाषा बोले तो उसका सामना करने के उपाय हमारे पास पहले से ही तैयार हैं। एक तो दस से बारह करोड़ का आंकड़ा, जो उन्हें लगता है कि 'उनके हाथ में है', उन्हें भले ही संतुष्टि देता हो, लेकिन चीन की कई भौतिकवादी और ईश्वरवादी परंपराओं ने यूरोप सहित अनेक देशों में बड़ा फासला तय किया है। चीन के जिस क्षेत्र में यूरोपीय वर्चस्व का आभास होता है, तो उससे निबटने के लिए उन्होंने भी सावधानी के तौर पर तैयारी रखी है। अफ्रीका की तरह दक्षिण अमेरिका में भी ईसाइयों की संख्या करोड़ों के आंकड़े पार कर रही है। उन्होंने तो रोम में पोप के मुख्यालय और लंदन में प्रोटेस्टेंट चर्च के मुख्यालय की जिम्मेदारियां उठाने की तैयारी की है। 'यूरोप में ईसाई साम्राज्य का पतन होता दिखेगा तो वह निशान हम उठाएंगे,' ऐसी भाषा उन्होंने शुरू की है। लेकिन ईसाई वर्चस्व के अपने 300-400 वर्षों के दौरान उन्हें अपना देश चलाने का आत्मविश्वास कभी नहीं मिला। उनकी यह 300-400 वर्ष की गुलामी रही है, पिछले 50-60 वर्ष में स्वतंत्रता जैसे शब्द सुने जा रहे हैं। पर इनमें से किसी भी देश को अपनी पर्याप्त पहचान नहीं मिली है।
इसका मतलब यह नहीं है कि पिछली पांच सदियों में दुनिया पर वहशी वर्चस्व बनाने वाली ईसाई महासत्ता का वर्चस्व समाप्त हो गया है। आक्रमण के आदी लोगों से हमेशा सावधान रहना चाहिए। लेकिन इतना निश्चित है कि उनके ही लोगों ने उनके बनाए भ्रामक विश्वासों की जड़ें उखाड़नी शुरू कर दी हैं, इसलिए उनके किले में दरारें पड़ चुकी हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि आज सारी दुनिया करवट बदल रही है इसलिए पिछले 500 वर्ष के आक्रमणों के खंडहरों के देश दिखें तो कोई आश्चर्य नहीं है। उनका कहना है कि आज सारी दुनिया बदल रही है। अमेरिका ने भी 'अमेरिका फॉर अमेरिका' का विचार करना शुरू कर दिया है। ब्रिटेन ने भी वैसा ही सोचना शुरू किया है। रूस ने सोवियत संघ को विघटित कर 25 वर्ष पूर्व ही यह चलन आरंभ कर दिया था। चीन ने साम्यवाद का स्वरूप एकदलीय सरकार तक ही सीमित रखा है। साथ ही, उसने दुनिया के बाजार की भाषा को ही जीने की भाषा मानना शुरू कर दिया है। विश्व के कुल श्वेत ईसाइयों में से आधों में ईसाई मत छोड़ने की ललक इससे कहीं अधिक है। इसका असर दुनिया और भारत पर स्वाभाविक रूप से होगा। पिछले 200-300 वर्ष में दुनिया के जिन 150 देशों की पहचान ही जिस यूरोप के आक्रमण से मिट गई, उन्हें पुन: पाने के लिए उसे इसका उपयोग करने की आवश्यकता है। यूरोपीय देशों और यूरोपीय वर्चस्व वाले देशों ने सदियों तक अपने वर्चस्व का एजेंडा अकेले और संगठित रूप से जारी रखा। उसी तरह सदियों तक उनके अधीन रहे देशों को भी अकेले और संगठित रूप से चर्चा करने की जरूरत है। प्रतिदिन आने वाले सैकड़ों बड़े-बड़े जहाजों को गटक जाने वाले इन देशों ने पूरी दुनिया में अखंड वर्चस्व बनाने का संगठित प्रयास शुरू किया था। उसमें पहले चरण में उनकी भूमिका थी कि दुनिया का इतिहास यूरोप अथवा बाईबल से शुरू होता है। आर्य-अनार्य का विषय इसका छोटा विस्तार है। पहले उसके नाम से आतंकवाद था। अब संबंधित देशों में माओवादी आतंक हो या जिहादी, उन्हें महासत्ताओं ने ही संगठित कर आतंकवाद फैलाना शुरू किया है। विश्व के प्रत्येक देश के अर्थतंत्र, शिक्षा, औद्योगिक वृद्धि, अनुसंधान क्षेत्रों, सैन्य गतिविधियों, सामाजिक कार्यों, कृषि, जल आपूर्ति, श्रमिक संगठन आदि के माध्यम से ये प्रयास चलते हैं। इसमें उन लोगों को जबरदस्त सफलता भी मिली। पिछले 60-70 वर्ष में यूरोपीय जकड़न से जिन 125 देशों को स्वतंत्रता मिली, उन पर पुन: वर्चस्व जमाने के लिए उन्होंने काम की दिशा बदल दी है। एक तरफ बाइबिल के नाम पर वर्चस्व जमाना तो दूसरी तरफ संबंधित देशों में आतंकवाद को संगठित रूप देना, यही उनका प्रयास रहा है। सभी देश इसके शिकार रहे हैं। यह करते हुए उन्होंने शायद दो प्रकार से दुनिया का विभाजन किया हुआ है। एक, औपनिवेशिक देश और दूसरा, यूरोपीय उपनिवेश से इतर देश। औपनिवेशिक देशों में ये सारे प्रयास जारी हैं। अन्य देशों में भी ये यथासंभव जारी हैं।
इन सभी देशों के लिए तीन प्रकार से विचार करना जरूरी है। एक, आज भी मौजूद यूरोपीय वर्चस्व के घटकों से वर्चस्व हटाना, दूसरे, उन देशों से जितनी लूट हुई, उसकी वसूली का संयुक्त अभियान चलाना, और तीसरे, उन पर पुन: आक्रमण न हो इसके लिए संगठित रूप से सतर्क रहना। आज पूरी दुनिया इस तरह के विचारों के अनुकूल है। यूरोप में ईसाई मत छोड़ने की जो लहर चल रही है, उसके स्वरूप को और व्यापक होने के लक्षण दिख रहे है।
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