सनातन संस्कारमिथक नहीं अभिमन्यु
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सनातन संस्कारमिथक नहीं अभिमन्यु

by
May 29, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 29 May 2017 13:30:13

 

भारत में जीवन के हर पहलू के संदर्भ में वैदिक संस्कार बताए गए हैं। उसी कड़ी में गर्भधारण से शिशु के जन्म तक 16 संस्कारों का अपना विशेष महत्व है। जन्मने वाले बच्चे का स्वास्थ्य, आचार-विचार और संस्कारों की नींव माता के गर्भ में ही पड़ चुकी होती है
 पूनम नेगी

देवताओं की धरती माने जाने वाले हमारे भारतवर्ष के ऋषि उच्च कोटि के वैज्ञानिक थे। उन्होंने सुंदर मानव समाज की स्थापना के लिए अनेक संस्कारों का प्रतिपादन किया था। अनेक सूक्ष्म आध्यात्मिक उपचार बताये थे, जिन्हें हम 16 संस्कारों के नाम से जानते हैं। उन्होंने कहा था कि प्रत्येक जीवात्मा अपने साथ अच्छे और बुरे गुण-धर्म लेकर आती है। इनके परिशोधन के लिए समय-समय पर विभिन्न धार्मिक कर्मकांडों व आध्यात्मिक उपचारों के द्वारा चेतना के बुरे संस्कारों का परिमार्जन एवं अच्छे  संस्कारों का बीजारोपण किया जाता है। इन 16 संस्कारों में से तीन संस्कार गर्भ में सम्पन्न होते हैं-1. गर्भ से पूर्व-गर्भाधान संस्कार 2. तीसरे माह में-पुंसवन संस्कार, और 3. सातवें माह में सीमांतोनयन संस्कार, जिसे आम बोलचाल की भाषा में ‘गोद भराई’ कहा जाता है। ऋषि-प्रणीत इन संस्कारों का मूल उद्देश्य गर्भस्थ शिशु के स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीरों का परिशोधन व परिमार्जन करना है।
अब विज्ञान ने भी तमाम प्रयोग के द्वारा इस बात की पुष्टि कर दी है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार प्रथम माह में जब मां को यह भी नहीं पता होता कि उसने गर्भ धारण कर लिया है, गर्भस्थ शिशु के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर की नींव तभी बन जाती है। यह नींव मजबूत हो, इसीलिये ऋषियों ने गर्भाधान संस्कार बनाया, क्योंकि वे यह बात अच्छी तरह जानते थे कि नींव कमजोर होने पर बच्चा शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक रूप से कमजोर व रोगी हो सकता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार 4 माह में गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क की कोशिकाएं 2 लाख 50 हजार कोशिका प्रति मिनट और 6 माह में 7 लाख कोशिका प्रति मिनट की रफ्तार से बढ़ती हैं। यानी बच्चे का 80 प्रतिशत मस्तिष्क गर्भ में ही बन जाता है। इस तेजी से बढ़ते मस्तिष्क से बच्चे के व्यक्तित्व एवं गुणों का निर्धारण होता है। 3 माह पर बच्चा आवाज, गंध और स्वाद पहचानने लगता है। छठे माह में उसमें भावनाओं का विकास हो जाता है। आठवें महीने में बच्चे में याद रखने और सीखने के केन्द्र बन जाते हैं और सारी इन्द्रियां क्रियाशील हो जाती हंै। नौवें माह में उसमें कई भाषाओं व जानकारियों को सीखने की क्षमता आ जाती है। दूसरे शब्दों में, बच्चे की बौद्धिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक प्रतिभा की जड़ गर्भ में ही पड़ जाती है। यही कारण है कि कभी कपोल-कल्पना मानी जाने वाली अभिमन्यु की कहानी आज सच मानी जाने लगी है। हमारे शास्त्रों में और भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो इस सिद्धांत को प्रमाणित करते हैं।
आधुनिक चिकित्सा शोध बताते हैं कि यदि गर्भवती मां दुखी होगी तो बच्चा भी दुखी, तनावग्रस्त होगा और यदि मां प्रसन्न रहेगी तो बच्चा भी प्रसन्न, तनावमुक्त रहेगा। अल्ट्रासाउन्ड तकनीक द्वारा यह साबित हो गया है कि बच्चे के मस्तिष्क के न्यूरॉन्स पर संगीत का गहरा प्रभाव पड़ता है। शोध के नतीजों में पाया गया है कि गूंजने वाले मधुर संगीत द्वारा बच्चे के न्यूरॉन्स की उर्वरकता बढ़ जाती है। इसमें सबसे अच्छी प्रतिक्रिया ॐ की ध्वनि की पायी गयी है। नासा ने भी इसे प्रमाणित किया है। यदि हमें अपने राष्ट्र को सबल, सशक्त व संस्कारवान पीढ़ी की विरासत सौंपनी है तो समाज को इन संस्कारों की अहमियत
समझनी होगी।
इस दिशा में सुप्रसिद्ध स्त्री रोग विशेषज्ञ और उत्तर प्रदेश की पूर्व स्वास्थ्य महानिदेशक डॉ. गायत्री शर्मा की पहल सच में उल्लेखनीय है। वर्तमान में वे शांतिकुंज (हरिद्वार) के शताब्दी चिकित्सालय में पूर्ण सक्रियता से स्वैच्छिक सेवाएं दे रही हैं। डॉ. शर्मा बताती हैं, ‘‘हम पांच राज्यों (उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड) में प्रशासनिक स्वीकृति के साथ सरकारी व अर्द्ध सरकारी चिकित्सालयों व स्वास्थ्य केन्द्रों पर स्थानीय चिकित्सकों व आशा बहनों के सहयोग से एक टीम गठित कर वृहद स्तर पर गर्भोत्सव संस्कारों की उपयोगिता का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। बीते ढाई वर्ष में हम लोगों ने हजारों लोगों को इस संस्कार का महत्व समझाकर उनके घरों में सुसंस्कारिता का बीजारोपण किया है। शीघ्र ही हमारी योजना उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार व गुजरात में इसके प्रचार-प्रसार की है।’’
विश्व स्वास्थ संगठन भी कहता है कि पूर्ण रूप से स्वस्थ वही है जो शरीर और मन के साथ ही आध्यात्मिक व संस्कारित दृष्टि से भी स्वस्थ हो। ऋषियों का कहना था कि गर्भधारण के समय जैसी दंपति की सोच होती है वैसा ही जीव गर्भ में आता है। इसीलिए गर्भोत्सव संस्कारों को आध्यात्मिक एवं सामाजिक शिक्षण माना गया है। इसके अंतर्गत गर्भवती मां हेतु स्वस्थ, प्रसन्न, शालीन, आस्तिक एवं अनकूल वातावरण बनाने, स्वस्थ, यथोचित, नियमित, सुव्यवस्थित दिनचर्या तथा सात्विक, संस्कारित एवं संतुलित एवं स्वस्थ भोजन तथा उचित विहार के बारे में शिक्षण दिया जाता है। एक छोटे कर्मकाण्ड द्वारा घर-परिवार के लोगों की उपस्थिति में भावी शिशु के स्वास्थ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया जाता है। यह एक प्रकार का सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रयोग है, जिसमें गर्भस्थ शिशु के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक पोषण पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है।  
महाभारत में कथा है कि अभिमन्यु ने अपनी माता सुभद्रा के गर्भ में ही चक्रव्यूह वेधन की शिक्षा प्राप्त कर ली थी। व्यास पुत्र शुकदेव ने भी अपनी मां के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। ऐसे अनेक पौराणिक आख्यान हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि गर्भस्थ अवस्था शिशु के लिए अत्यन्त संवेदनशील होती है। इस तथ्य को आजकल वैज्ञानिक भी स्वीकार करने लगे हैं। उनका कहना है कि गर्भस्थ शिशु सुन सकता है एवं सुख-दुख दोनों का अनुभव कर सकता है, यहां तक कि मां द्वारा ग्रहण की गई भोज्य वस्तु का स्वाद भी परख सकता है।
शिशु की वास्तविक क्रियाविधि जन्म के कुछ सप्ताह पूर्व से ही प्रारम्भ हो जाती है। इस संदर्भ में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के डॉ. रोपार्ट सेडलर का शोध अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उनका कहना है कि 9 सप्ताह का विकासशील बालक हिचकी ले सकता है और हमारे आस-पास के वातावरण के प्रति संवेदनशील होने लगता है। उसे जैसा परिवेश मिलता है, वह  उसी के अनुरूप ही विकसित होता है। इसलिए गर्भवती माता को शांत, प्रेमपूर्ण व सकारात्मक माहौल में रखना चाहिए। इससे उसका अन्त:करण पवित्र एवं शुद्ध रहता है और निश्चय ही इसका अच्छा प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ता है। गर्भवती माता को अपने भीतर  धैर्य, साहस, आशा और उत्साह के भाव बनाये रखने चाहिए। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के डेवेलपमेण्टल साइकोलॉजिस्ट हीडेलाइज एल्ज ने एक रोचक प्रयोग से इस तथ्य को प्रमाणित किया है कि मां जब प्रसन्न एवं खुश रहती है तब उसके गर्भस्थ शिशु की गतिविधियां अद्भुत एवं निराली होती हैं। इस दौरान वह बड़ा ही मस्त रहता है। परन्तु जैसे ही मां उदास एवं तनावग्रस्त हो जाती है, वह बालक डरा-सहमा व्यवहार करने लगता है। एल्ज का कहना है कि अल्ट्रासाउण्ड के माध्यम से उसके इस क्रिया-कलाप को और अच्छी तरह से देखा जा सकता है।
इसी तरह बच्चे के शरीर और मन पर माता के आहार का गहरा असर देखा जा सकता है। मोनेल केमिकल सेन्सेज सेण्टर, फिलाडेल्फिया की जैव मनोवैज्ञानिक जली मेनेला कहती हैं कि शिशु मां के भोजन से स्वाद ग्रहण करता है और अपनी माता के भोजन के आधार पर परिपक्व एवं पोषित होता है। मिर्च-मसालेदार, अति ठण्डे-उत्तेजक भोजन करने वाली मां के गर्भ में पलने वाले शिशु भी उस गंध के प्रति आकर्षित हो जाते हैं और बड़े होने पर उन्हें इस प्रकार के भोजन की लत पड़ जाती है। अत: गर्भवती माता को अधिक मसालेदार एवं गरिष्ठ भोजन से परहेज कर सात्विक, हल्का एवं सुपाच्य भोजन ही ग्रहण करना चाहिए।  
प्रसिद्ध शिशु रोग विशेषज्ञ जेनेट के अनुसार पन्द्रह सप्ताह का गर्भस्थ शिशु आवाज के प्रति भी बड़ा संवेदनशील होता है। उनके प्रायोगिक निष्कर्ष अत्यन्त रोचक हैं। गर्भस्थ शिशु अपनी मां की आवाज से भलीभांति परिचित होता है। वह कई आवाजों के मध्य अपनी मां की ध्वनि को पहचान लेता है। पिएरे के अनुसार उसका यह गुण जन्मजात होता है। उनका कहना है कि यदि शिशु को मां के पेट के पास कोई गीत या कहानी सुनाई जाती है तो उसकी ह्रदय गति मंद पड़ जाती है। इसके विपरीत किसी अपरिचित की ध्वनि से यह गति स्थिर रहती है। अत: शिशु का अपनी माता की लोरी के प्रति गहन लगाव होना स्वाभाविक है। संभव है, इसी कारण माता की थपकी से बच्चा शान्त एवं चुप हो जाता है।
पेरिस के जीन पिएरे ने इस सम्बन्ध में और कुछ रोचक तथ्य प्रस्तुत करते हुए कहा है कि गर्भ में पलने वाला शिशु कहानी या गीत के वास्तविक शब्दों को ग्रहण नहीं करता, पर उसके स्वर एवं भाव को सुनता है एवं उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। इसलिए माता को चाहिए कि वह अपनी मनोभूमि को उच्चस्तरीय बनाये रखने के लिए स्वाध्याय करे। प्रेरणाप्रद जीवन निर्माण के साहित्य आदि के अध्ययन से उच्च विचारों का प्रवाह बना रहता है। यही प्रवाह बच्चों की मनोभूमि का निर्माण करता है। मां जैसा चिन्तन करेगी, उसी तरह का उसके बालक का स्वभाव निर्मित होगा। अत: गर्भवती माता को सदैव प्रसन्नचित्त, सन्तुष्ट एवं शान्त रहना चाहिए, जिससे कि उसके गर्भ से श्रेष्ठ आत्मा का अवतरण हो सके।     ल्ल

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