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जिन्ना से लेकर आजम और ओवैसी तक, भारत में मुसलमानों के स्वयंभू ठेकेदारों ने हर हाल में कौम को बरगलाकर देश के ‘संसाधनों पर पहला हक’ बनाए रखने की जुगत भिड़ाई है। लेकिन जमाना बहुत बदल चुका है। अब जिन्ना छाप तिकड़मों को भुलाकर कौम के आलिम समझदारी की बात करें तो ही कोई बात बनेगी
शंकर शरण
समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान ने इधर फिर संयुक्त राष्ट्र में शिकायत की धमकी दी। उन्होंने पहले भी मंत्रीपद से संयुक्त राष्ट्र को बाकायदा पत्र लिखा था कि भारत में मुसलमानों के साथ जुल्म हो रहा है। यानी, आजम खुद को देश की संवैधानिक, न्यायिक संस्थाओं से अलग और ऊपर मानते हैं! जबकि वे इसी की दी गई सुविधाओं, शक्तियों का उपभोग करते रहे हैं! इस हद तक कि सरकारी अधिकारियों तक को सताते हैं। सोचिए, कौन किसके साथ जुल्म कर रहा है?
पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह या अखिलेश यादव इन बातों पर चुप रहते हैं। आजम की गैर-जिम्मेदार बयानबाजियों के बाद भी उन्होंने न उन्हें मंत्रीपद से हटाया, न फटकारा। क्या इसी से स्पष्ट नहीं कि यहां मुसलमानों की वास्तविक स्थिति क्या है? मुस्लिम नेता देश-विरोधी, उग्र बयानबाजियां, गैर-कानूनी आचरण करके भी राजकीय सुख-सुविधा भोगते रहे हैं। इसमें आजम अकेले नहीं। फारुख, मुफ्ती, बुखारी, शहाबुद्दीन आदि अनेक नेताओं ने मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद आदि पदों से भड़काऊ बातें की हैं। इस प्रवृत्ति ने किसका हित और अहित किया है, इस पर सोचना चाहिए।
इसलिए भी कि ऐसी बातों की असलियत जगजाहिर है। जो मुस्लिम नेता शिकायतें करते हैं, वही दूसरे दिन देश के प्रधानमंत्री समेत जिस किसी को खुली धमकियां भी देते हैं। उनकी भाषा, शैली और राजनीति, सभी आक्रामक रही हैं। शिकायती अंदाज केवल एक मुफीद हथियार है। यह कोई छिपी बात नहीं है। तब इस पर गैर-मुसलमानों को क्या महसूस होगा, यह भी सोचना चाहिए। झूठी या अतिरंजित शिकायतें, धमकियां समाज में सद्भाव नहीं बढ़ातीं। तब यह सब करके मुस्लिम नेता क्या पाना चाहते हैं? जो भी चाहते हैं, वह क्या संभव है?
अभी आजम भाजपा और मोदी के विरुद्ध जो विषवमन कर रहे हैं, ठीक वही पहले जिन्ना ने कांग्रेस और महात्मा गांधी के विरुद्ध किया था। इस राजनीति को डॉ. आंबेडकर ने एक नाम भी दिया था-ग्रवेमन राजनीति। इसका अर्थ उनके ही शब्दों में, ‘ग्रवामॅन पॉलिटिक (शिकायती राजनीति) का तात्पर्य है कि मुख्य रणनीति यह हो कि शिकायतें पैदा करके सत्ता हथियाई जाए।’
यानी यहां मुस्लिम राजनीति लगातार सही-गलत शिकायतें कर-करके कपटपूर्वक दबाव बनाती है। यह निर्बल की आशंका का रूप बनाती है, किन्तु वास्तव में एक ताकतवर, संगठित समुदाय की सोची-समझी रणनीति है। डॉ. आंबेडकर ने इसे भारतीय रूपक से भी समझाया था कि ‘मुसलमानों की मांगें हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ती जाती हैं।’ यह सब डॉ. आंबेडकर ने 1941 में लिखा था। वे कोई हिन्दूवादी नेता नहीं थे, बल्कि कई लोगों द्वारा हिन्दू धर्म के आलोचक ही माने जाते थे।
रोचक यह है कि डॉ. आंबेडकर ने उस जमाने में भारत के मुस्लिम नेताओं के विचार, उनकी विशिष्टता और सामान्य प्रवृत्ति का प्रामाणिक आकलन भी किया था। उन्होंने पाया कि मुस्लिम नेताओं में घमंड और शासकीय भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। उदाहरण के लिए, प्रसिद्ध विद्वान, सूफी और दिल्ली निजामुद्दीन दरगाह के प्रमुख ख्वाजा हसन निजामी ने कहा था, ‘मुसलमान कौम ही भारत की अकेली बादशाह है। उन्होंने हिन्दुओं पर सैकड़ों वर्षों तक शासन किया और आगे मुसलमान ही शासन करेंगे।’ मुस्लिम लीग ने भारत-विभाजन की मांग भी मुस्लिम श्रेष्ठता के दावे पर की थी। जिन्ना ने स्पष्ट कहा था कि मुसलमान मालिक कौम, ‘मास्टर रेस’ हैं, इसीलिए वे हर हाल में शासन करेंगे। ऐसे अहंकार और दावे का कारण था। आज से 100-150 वर्ष पहले तक भारत में, विशेषत: उत्तर भारत में मुस्लिम ही अग्रणी समुदाय थे। वे राजनीतिक और शैक्षिक रूप से भी आगे माने जाते थे।
1871 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या में 10 प्रतिशत होते हुए भी स्कूलों में मुस्लिम छात्रों की संख्या 25 प्रतिशत थी। मुस्लिम ही उच्च वर्ग थे। इसीलिए अनेक महत्वपूर्ण शहरों में महत्वाकांक्षी हिन्दू लोग मुस्लिम उच्च वर्ग के साथ अधिक मेल-जोल रखते थे, क्योंकि सदियों से मुस्लिम एक तरह से शासक वर्ग समझे जाते थे। अत: उन के विरुद्ध भेदभाव तो क्या, वही दूसरों को अपने से नीचा समझते थे। सर सैयद से लेकर मौलाना आजाद तक, किसी मुस्लिम नेता ने मुसलमानों को पिछड़ा वंचित आदि न समझा, न कहा।
इसलिए, यह देखने की बजाए कि मुसलमान कैसे पिछड़ गए, वे दूसरों के आगे हो जाने के विरुद्ध क्रोध में भरे रहते हैं। मानो जब मुस्लिम समुदाय मध्ययुगीन मानसिकता में जी रहा हो, तब दूसरों को भी उसी तरह पीछे बना रहना चाहिए। मानो आज भी मुगल राज हो। अधिकांश मुस्लिम नेता इसी भाव में रहते हैं कि उनका राज, साम्राज्य, शान-शौकत दूसरों ने छीन ली हो।
आज भी भारतीय मुसलमानों में वही अहंकारी ग्रंथि भरी जाती है। आजम खान, ओवैसी जैसे नेताओं की भाषा और करतूतें इस का खुला इश्तिहार हैं। जबकि जरूरत यह थी कि मुसलमान पिछले 100 साल की अपनी राजनीति की समीक्षा करते। पता लगाते कि देश तोड़कर अलग पाकिस्तान बना लेने के बाद भी वे कहीं खुश क्यों नहीं हैं? न पाकिस्तान, न भारत में।
वरिष्ठ कांग्रेस नेता और केरल के पूर्व मुख्यमंत्री ए. के. एंटोनी ने भी कहा था कि ‘मुसलमानों ने दबाव देकर बहुत अधिक सुविधाएं और लाभ उठा लिए हैं। राज्य के राजनीतिक, प्रशासनिक स्तर में उनका दबदबा है। यह उचित नहीं है। मुसलमानों को इससे होने वाले हिन्दू असंतोष पर ध्यान देना चाहिए और संयम बरतना चाहिए।’ श्री एंटोनी भी ईसाई अल्पसंख्यक समुदाय से हैं।
यदि मुस्लिम नेता पुन: वही 1930 और ’40 के दशक वाली ताकत की भंगिमा दिखा रहे हैं, तो मानना पड़ेगा कि वे मुगलिया घमंड से नहीं निकले हैं। वही जिन्ना-छाप राजनीति दुहराने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन मुसलमानों को समझना होगा कि गत 70-80 साल में सारी दुनिया में बड़े बुनियादी परिवर्तन हो चुके हैं।
सबसे पहले तो, दुनिया और भारत के लोग इस्लामी राजनीति, मतवाद और इतिहास को पहले की तुलना में अधिक जानते हैं। दूसरे, नए मीडिया के कारण हर व्यक्ति हर बात को फौरन और प्रामाणिक तौर से जांचने-जानने में समर्थ है। हिन्दू भी और मुसलमान भी। इसलिए किसी को अधिक बरगलाना संभव नहीं है। तीसरे, सारी दुनिया इस्लामी आतंक और उग्रवाद से त्रस्त होने के कारण आमतौर पर मुसलमानों के प्रति उदासीन या क्षुब्ध मुद्रा में है। चौथे, यहां हिन्दुओं का नेतृत्व इतिहास, राजनीति से अनजान भावुक नेताओं के हाथ में नहीं, बल्कि अधिक व्यावहारिक लोगों के हाथ में है। पांचवें, स्वयं मुस्लिम समाज में भी सुधारवादी, विवेकशील स्वरों की आवाज अधिक खुली है। तीन तलाक और हलाला के खिलाफ मुस्लिम स्त्रियों का निर्भीक उठ खड़े होना उसी की एक अभिव्यक्ति है। ये स्त्रियां मानवीय अधिकारों के लिए कुरान और प्रोफेट के नाम से भी नहीं दब रही हैं और मुल्ला-मौलवियों को खरी-खरी सुना रही हैं।
इन सभी कारणों से आज भारत में जिन्ना-छाप राजनीति करने वालों को अपने तौर-तरीकों और नारों पर पुनर्विचार करना चाहिए। यदि वे भारतीय मुसलमानों के हितैषी हैं, तो उन्हें समझना चाहिए कि ‘ग्रवामॅन राजनीति’ का जमाना बीत चुका है। पाकिस्तान, कश्मीर के कटु अनुभवों के अलावा यहां देश के कोने-कोने में अनगिनत जिहादी, आतंकी कांडों के मद्देनजर अधिकांश लोग इस्लामी राजनीति पर संदेह करने लगे हैं।
दशकों के कटु, ‘थैंक्लेस’ अनुभव के बाद भी क्या हिन्दू लोग यहां मुस्लिम राजनीति की अदाओं को नहीं समझेंगे? हिन्दू इसे बखूबी समझते हैं। उनके पास केवल नेतृत्व का अभाव था या है। अन्यथा ‘ग्रवामॅन राजनीति’ की काट कठिन नहीं है। झूठी शिकायतें सरलता से बेपरदा की जा सकती हैं। अत: मुसलमानों को सबके और अपने हित में भी सोचना ही होगा कि सदैव अलगाववादी, शिकायती, नाराज मुद्रा में रहना बेकार है। यदि यह देश मुसलमानों का भी है तो उन्हें इसकी अच्छाई और बुराई दोनों की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। सदैव दूसरों पर धौंस जमाने वाली राजनीति ज्यादा दूर नहीं चल सकती। 70 वर्ष पहले जिन्ना का ‘डायरेक्ट एक्शन’ यानी हिंसा और धमकी सफल हो गई थी। इसीलिए स्वतंत्र भारत में भी मुस्लिम नेताओं ने फिर वही शुरू किया। कई दलों ने भी स्वार्थवश उन्हें छूट दे दी। लेकिन इसी की प्रतिक्रिया है कि जैसे ही हिन्दुओं को अपना नेता दिखता है, वे संगठित होकर उसे समर्थन देते हैं। अत: मूल गलती मुस्लिम नेताओं की है कि वे सेक्युलर राज्य का दुरुपयोग केवल इस्लामी वर्चस्व के लिए करते रहे हैं। इस प्रकार वे हिन्दुओं को दोहरा अपमानित करते हैं। तब शिकायत किसे होनी चाहिए?
अभी जिस तरह मोदी एवं भाजपा को ‘मुसलमानों के शत्रु’ के रूप में दिखाया जाता है, इसी तरह पहले महात्मा गांधी एवं कांग्रेस को दिखाया गया था। जैसे अभी मुस्लिम जनता का एक हिस्सा ऐसे दुष्प्रचार पर विश्वास कर लेता है, वैसे ही पहले भी हुआ था। लेकिन जिस प्रकार वह पूरी तरह झूठ और विभाजक राजनीति का हथकंडा था, वही आज भी है। मुसलमानों को यह समझ आने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
निस्संदेह, मुसलमानों में ऐसे लोग भी हैं जो आजम जैसी बयानबाजियों को गलत मानते हैं। लेकिन स्वतंत्रता पूर्व भारत में भी ऐसे मुस्लिम बड़ी संख्या में थे। पर उनकी आवाज संगठित नहीं होती और इसीलिए वे मुस्लिम राजनीति के निर्णय नहीं करते। यह कमी दूर करने पर उन्हें सोचना चाहिए। पुन: विभाजन कराने और यहां तीसरा मुस्लिम देश बनाने की कल्पना वाली राजनीति का कोई भविष्य नहीं है। संयुक्त राष्ट्र या यूरोप, अमेरिका, आदि मुस्लिम मांगों के प्रति अब नहीं सहानुभूति दिखाने वाले। अरब के तेल की ताकत भी कम हो चुकी है, तथा आगे और कम होगी।
इसलिए भारतीय मुसलमानों को यहां की समस्याएं सच्ची बराबरी से, मिल-जुलकर सुलझाने के रास्ते पर आना चाहिए। उन्हें इस्लामी विशेषाधिकार, मुगलिया घमंड और अलगाव का अंदाज छोड़ना चाहिए। उस अंदाज से अब तक क्या मिला, इसकी भी समीक्षा करनी चाहिए। साथ ही, दुनिया के दर्जनों मुस्लिम देशों में अल्पसंख्यकों की स्थिति क्या है, उस की तुलना भी भारत में मुसलमानों की स्थिति से करनी चाहिए। तब साफ दिखेगा कि आजम जैसे नेता क्या कर रहे हैं। बार-बार संयुक्त राष्ट्र का नाम लेकर वे दुहराते हैं कि इस देश में उनकी कोई निष्ठा नहीं है। तो क्या एक बार देश-विभाजन और असंख्य दंगों के बाद भी भारत इससे कोई सबक नहीं लेगा?
किसी समुदाय की कम संख्या यह प्रमाण नहीं होती कि उसके साथ अन्याय हुआ। खुद मुस्लिम नेता ठसक से कहते रहे हैं कि उन्होंने भारत पर 600 सालों तक राज किया, और फिर करेंगे! वे यह भी कहते हैं कि हिन्दुओं को शासन करना नहीं आता, कि मुसलमानों से डरने के कारण ही हिन्दू लोग सेक्युलर हैं, वगैरह-वगैरह। ऐसी अहंकारी बातें कोई पीड़ित समुदाय नहीं किया करता।
अत: मुस्लिम नेताओं को यह दोहरापन सदा के लिए छोड़ना चाहिए। एक ओर बात-बात में दबंगई, फिर शिकायतें कर-करके मुसलमानों को भड़काना और उदार, स्वार्थी, अज्ञानी हिन्दू नेताओं से मनमानी सुविधाएं वसूलना। यह अब चलने वाला नहीं है। निस्संदेह, यहां मुस्लिम नेताओं का आक्रामक अंदाज और शिकायती मुद्रा एक कुटिल रणनीति रही है। यह मुसलमानों में पीड़ित होने का भाव और हिन्दुओं में अपराध-बोध पैदा कराती है। इससे हिन्दू और मुसलमान, दोनों संदेहग्रस्त रहे हैं। इससे मुसलमानों का आदर नहीं बढ़ा। यह सब ठीक करने के लिए सुधारवादी मुसलमानों को आगे आना चाहिए। इस्लाम केंद्रित राजनीति से कोई राह मिलने वाली नहीं है। अत: मुसलमानों को नए और मानवतावादी नेताओं को आगे करना होगा। जिन्ना से लेकर आजम तक इस देश की बरबादी के पैरोकार रहे हैं। उनसे मुसलमानों का न भला हुआ है, न होगा। ल्ल
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