|
हाल में दिल्ली में नगर निगम चुनाव संपन्न हुए। महाराष्ट्र में बैठे किसी व्यक्ति को लग सकता है कि इससे मुझे क्या?
अगर हमारे देश में होने वाली छोटी-छोटी उथल-पुथल और इससे उभरते संकेतों में हम रुचि नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा? क्या विदेशी! क्या फिलिप ओल्डनबर्ग?
चौंकिए मत, विविधता से भरे इस देश में स्थानीय निकाय के चुनाव और वह भी दिल्ली जैसे निगम चुनाव का क्या महत्व है, यह फिलिप ओल्डनबर्ग जैसे विशेषज्ञ समझते रहे हैं। कभी तरुण भारत के पूर्व संपादक मा.गो. वैद्य (उपाख्य बापूराव) के विदेशी मेहमान रहे फिलिप को शिकागो विश्वविद्यालय से 1969 में जिस पीएच.डी. के लिए शिष्यवृत्ति (फैलोशिप) मिली, उसका विषय ही था ‘म्युनिसिपल पालिटिक्स इन इंडिया-विद स्पेशल रेफरेंस टू दिल्ली कॉर्पोरेशन’ सो, हैरान मत होइए, जागिए! बहरहाल, फिलिप इस चुनाव का क्या विश्लेषण करते, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन फिर लगता है, निगम चुनाव के चार स्पष्ट और गहरे संकेत हैं और यह दिल्ली या किसी एक राजनीतिक दल की बजाय सबके लिए हैं।
पहला सबक है- लॉलीपॉप पालिटिक्स नहीं चलेगी!
‘लोकलुभावन’ पैंतरे का पिट जाना भारत के लिए चौंकाने वाली बात है। हमेशा एक कमजोर, गरीब और विकासशील देश के तौर पर निरूपित किए जाने वाले देश की राजनीति के लिए यह ऐसा झटकेदार सबक है जिसका आकलन नेताओं को जरूर करना चाहिए। दिल्ली में ‘गृहकर’ (हाउस टैक्स) की राशि ठीक-ठाक बैठती है और मतदाताओं की अच्छी-खासी संख्या को प्रभावित करती है। ऐसे में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का यह कहना कि यदि निगम में भी उनकी पार्टी को बहुमत मिलता है तो दिल्लीवालों को गृहकर चुकाना ही नहीं पड़ेगा—बहुत ललचाऊ दांव था। लेकिन राजनीति के उस दौर में जहां जनता काम और करतूतों में अंतर करने के लिए पर्याप्त समझदारी के उदाहरण दे रही हो, लुभावने वादों का फुग्गा फूटना तय था। दिल्ली ने शायद यह इशारा दे दिया है कि जिस दौर में कार्यशीलता कसौटी पर हो, वहां जनता ‘करतब’ पर रीझने की बजाय ‘कर’ चुकाना बेहतर समझती है।
दूसरा सबक भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपने कार्यकर्ताओं को दिया गया। यह सबक है-काम स्थायी है, कुर्सी नहीं। अपने सभी वर्तमान पार्षदों की उम्मीदवारी की संभावनाओं पर विराम लगा भाजपा ने उस स्वाभाविक नाराजगी के बादल छांट दिए जो सत्ता के प्रति मतदाताओं के मन में स्वाभाविक रूप से जगह बनाने लगती है। साथ ही दोहरा संदेश भी दे दिया। पहला था- नए चेहरों के लिए पार्टी में बढ़ने की भरपूर संभावनाएं हैं। दूसरा, राजनीतिक दल सिर्फ सत्ता का ही नाम नहीं है और सत्ता में पदों पर रहे चेहरों को स्थानीय स्तर पर अज्ञात रहकर या संगठन में परदे के पीछे से भी पार्टी के लिए काम करने की खातिर स्वयं को प्रस्तुत करना चाहिए। यानी नेता छोटा या बड़ा नहीं होता और नेता सिर्फ वह नहीं होते जो सरकार में होते हैं। यानी यह भी कि भाजपा जैसी पार्टी में सबको यह समझना चाहिए कि कुर्सी आनी-जानी चीज है, यह विचारधारा है जो राजनीति में तरंगें उठाती है और यात्रा को गति देती है।
तीसरा सबक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में नेतृत्वकारी भागीदारी के लिए उत्साह बढ़ाने वाला है। यह सबक है- कोटरी नहीं कद स्वयं बढ़ाइए। कुनबा और कोटरी की लल्लो-चप्पो एक समय तक भले फलती लगे लेकिन समझदार होते लोकतंत्र में यह टिकाऊ नहीं हो सकती। कुनबा कांग्रेस की कहानी हमारे सामने है। राहुल गांधी और उनके करीबियों की विफलता की बात अगर कई बार दोहराई जा चुकी हो तो अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसौदिया के प्रभाव दायरे में आकर स्वयं को प्रदीप्त अनुभव करने वालों का हश्र बता रहा है कि नेताजी का 'तेज' लपकने वालों के हिस्से में उनके ग्रहण और कलुष कथाएं भी आती हैं। इस चुनाव का चौथा और निर्णायक सबक संपूर्ण राजनीति के लिए है और यह उस राजनीतिक दल को सबसे ज्यादा समझना चाहिए जो चला तो अन्य को दर्पण दिखाने था, लेकिन इतने से काम में स्वयं उस दर्प से भर उठा कि अब बैठना ही इसका भविष्य है। यह सबक है— अड़ने और लड़ने नहीं, बढ़ने की राजनीति करो। डार्विन का सिद्धांत सही होता तो निगम में भी उसी पार्टी की तूती बोलती जो राज्य में सबसे बलवान है।
यहां समन्वय और सकारात्मकता के संवेदनशील ऐसे तंतु होते हैं जो जगाए जाने पर बड़े से बड़े राजनीतिक परिवर्तन को संभव बना देते हैं। आम आदमी पार्टी की सरकार राजनीति की सफाई का (भले थोथा साबित हुआ) सकारात्मक वादा करते हुए ही तो आई थी! लेकिन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तमाम वादे और सकारात्मक छवि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उपराज्यपाल पर ओछे आरोप लगाते हुए गंवा दी। एक वॉट्सअप चुटकुला चला था कि दिल्ली में इस चुनाव में किसी को (संकेत समझ जाइए) चांटा नहीं पड़ा! दरअसल, इस निकाय चुनाव के परिणाम अपने आप में नकारात्मकता की राजनीति करने वालों के लिए करारे तमाचे से कम नहीं हैं। सो, इस चुनाव को हल्के में मत लीजिए। राजनीतिक प्रयोगों को धार देने वाली जनता, राजनीति की धूर्तता को धूल भी चटा रही है। राष्ट्रहित में संकल्प लेने वालों को आगे बढ़ा रही है। उपरोक्त चारों संकेत किसी एक राज्य और वहां की जनता के लिए नहीं हैं क्योंकि ‘ग्लोबल’ होती दुनिया में राजनीति भी ‘लोकल’ के भूगोल से आजाद हो रही है। परिवर्तन के गहरे संकेत दे रही है। फिलिप ओल्डनबर्ग और शिकागो विश्वविद्यालय जो जिज्ञासा 1969 में दिखा चुके हैं उन मुद्दों पर स्वतंत्रता के 69 वर्ष बाद भी अगर कोई जागना न चाहे तो यह छूट भी क्षणिक है। क्योंकि दिन चढ़े सोने वाला चाहे कितनी चादर ताने, कोई न कोई चादर खींच ही लेता है।
टिप्पणियाँ