माण्डले: दुर्गापूजा का जश्न
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माण्डले: दुर्गापूजा का जश्न

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May 1, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 May 2017 12:39:38

माण्डले के शाही परिवार से मणिपुर राजघराने के बहुत निकट के संबंध रहे हैं।वहां बंगाली समाज की भी अच्छी-खासी संख्या है। यही वजह है कि माण्डले में दुर्गापूजा उत्सव बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है

 श्याम परांडे

 वि जयादशमी का दिन, 2012। म्यांमार के माण्डले शहर में ईरावती नदी के घाट का दृश्य बंगाल या असम के किसी हिस्से जैसा प्रतीत हो रहा था। यहां के सभी भागों, गांवों और बस्तियों से मां दुर्गा की मूर्तियां विसर्जन के लिए घाटों पर पहुच रही थीं। उत्सव मनाने के लिए उस शाम करीब 50,000 लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। ढोल और नगाड़ों की थाप पूरे शहर में गूंज रही थी। फूलों की सजावट और गुलाल के रंगों ने अद्भुत छटा बिखेर दी थी। म्यांमार में दूसरे देश से आए किसी व्यक्ति के लिए यह बेहद लुभावना और यादगार दृश्य था। 

माण्डले में काफी संख्या में बंगाली और मणिपुरी बसे हुए हैं और उनमें से अधिकांश नवरात्र के समापन पर नदी के घाट पर इकट्ठे होते हैं। माण्डले के मणिपुर से करीबी सांस्कृतिक संबंध रहे थे। यह सदियों से बर्मा की राजधानी रहा। यहां के शाही परिवारों के राजकुमारों के विवाह मणिपुर के शाही घरानों में होते रहे हैं। शाही घरानों के पतन के साथ इन दोनों क्षेत्रों के बीच सांस्कृतिक और सामाजिक रिश्ते कम होते गए। पिछली सदी से नेपाली मूल के हिंदू माण्डले और म्यांमार के उत्तरी इलाके में निवास कर रहे हैं। अंग्रेजों ने नेपाली गोरखाओं को अपनी सेना में शामिल किया था और वे आर्थिक और सामाजिक रूप से यहां बसे भारतीय हिंदुओं की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं। सेना का हिस्सा होने के कारण नेपाली हिंदुओं का दर्जा भारतीय हिंदुओं से बेहतर है। सैन्य शासन को नेपाली हिंदुओं को नागरिकता देने से कोई परहेज नहीं था। हिंदू समाज के ये दो वर्ग—भारतीय और नेपाली हिंदू-व्यक्तियों और संगठनों द्वारा समय-समय पर किए गए विभिन्न प्रयासों के बावजूद अब तक उतने जुड़ नहीं पाए हैं। उनके एकजुट होने की जरूरत उत्तरी प्रांतों में ज्यादा महसूस होती रही है, पर अभी इसमें कुछ समय लग सकता है। 

बर्मा के मध्य क्षेत्र में करीब 70 से ज्यादा गांव हैं जिनमें भारतीय लोगों की आबादी है जो ब्रिटिश शासन के दौरान गन्ने के खेतों में काम करने के लिए आए थे। उनमें से ज्यादातर कृषि क्षे़त्र से ही जुड़े रहे और शेष छोटा-मोटा कारोबार करने लगे। कुछ  माण्डले और यांगून में आ बसे और लंबा-चौड़ा कारोबार खड़ा कर दिया। यह क्षेत्र दो अलग-अलग शहरों—चौतगा और जियावाड़ी नाम से पहचाना जाता है। दक्षिण म्यांमार के तमिलों की तरह हिंदी बोलने वाली आबादी ने सैन्य शासन के दौरान सबसे मुश्किल दौर झेला है।

चौतगा में नि:शुल्क छात्रावास, विद्यालय परिसर और एक मंदिर हिंदू संस्कृति के प्रकाश स्तंभ की तरह खड़ा है। सैन्य शासन के मुश्किल दिनों के दौरान आसपास के गांवों के निरंतर सहयोग तथा हिंदी और संस्कृत सीखने की इच्छा रखने वाले विद्यार्थियों की निरंतर आवाजाही ने यहां के हिंदू समाज के अस्तित्व को बरकरार रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ये परीक्षाएं बहुत लोकप्रिय हैं और मातृभाषा का ज्ञान प्राप्त करने से वंचित युवा छात्र यहां आकर पूरे उत्साह और दिलचस्पी के साथ मातृभाषा सीखते हैं। बीते वर्षों में सैकड़ों छात्रों ने इस संस्थान से हिंदी सीखी है। यही कारण है कि चौतगा और जियावाड़ी की सड़कों पर अक्सर हिंदी बोलते लोग मिल जाते हैं। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। यह मिशन हिंदी और हिंदुओं के लिए एक जीवनदायिनी ऊर्जा के रूप में उभरा है जो सनातन धर्म स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित हो रहा है। विभिन्न संगठनों में काम कर रहे अधिकांश हिंदू कार्यकर्ता इस संस्थान के पूर्व छात्र हैं या इस संस्थान से किसी न किसी प्रकार जुड़े हैं। संस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त नहीं है, फिर भी छात्र-छात्राएं हर साल इस विद्यालय में अच्छी खासी संख्या में दाखिला लेते हैं। दुख की बात है कि भारतीय मूल के छात्रों के लिए विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना एक ऐसा सपना है जिसके सच होने की संभावना न के बराबर है। 

जैसा कि मैंने पहले बताया, ब्रिटिश राज के दौरान हिंदीभाषी आबादी विश्व के अन्य क्षेत्रों की तरह बर्मा के इस हिस्से में भी खासकर गन्ने के खेतों में काम करने के लिए आई थी। दरअसल, बर्मी किसान न तो परिश्रमी थे, न ही गन्ने की खेती या चीनी उत्पादन के लिए आवश्यक कौशल में निपुण। जाहिर है, प्रवासी भारतीयों ने ही बर्मा की अर्थव्यवस्था को बल और गति प्रदान की। किसानों का पहला दल जब यहां पहुंचा तो उनके सामने मलेरिया के मच्छरों से भरा दुर्गम जंगलों वाला प्रदेश था जिसके घने पेड़ों को काट कर उन्होंने गन्ना उपजाने के लिए खेत तैयार किए। इसमें श्रमसाध्य प्रयासों की आवश्यकता थी जिसे प्रवासी श्रमिकों ने समर्पित भाव से पूरा किया। ब्रिटिश काल के दौरान भारतीय मूल के लोगों ने प्रशासनिक अधिकारियों, व्यापारियों, बैंक अधिकारियों, बाबुओं और महाजनों के रूप में सरकार और अर्थव्यवस्था का बुनियादी ढांचा तैयार किया। 1930 में भारतीय विरोधी दंगे शुरू हुए, उसके बाद बर्मा पर जापान का कब्जा हो गया जिससे बड़े पैमाने पर प्रवासी भारतीय वापस लौट गए। इसके बाद 1962 में उन्हें जबरन निष्कासित किया गया, परिणामस्वरूप बर्मा में भारतीय मूल के लोगों की भूमिका बहुत कम हो गई।

आज का नया उदीयमान भारत विदेशों में बसे भारतीयों के छवि निर्माण के प्रयासों पर गहरा प्रभाव डाल रहा है। म्यांमार के बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए भारत एक तीर्थ है, जबकि वहां रहने वाले भारतीय मूल के लोगों के लिए उनके पूर्वजों का देश। पर्यटन को प्रोत्साहित करके संस्कृति और धार्मिक संबंधों को मजबूत किया जा सकता है। भारतीय समुदाय ने 2014 में नरेंद्र मोदी की चुनावी जीत का जश्न सार्वजनिक रूप से मनाया था क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि ऊर्जा से भरा उभरता भारत उनके हितों के लिए खड़ा होगा जिससे उनकी स्थिति बेहतर होगी।

चीन से मिलने वाली वित्तीय और व्यापारिक सहायता के बावजूद दक्षिण-पूर्व एशिया में उसके बढ़ते कदमों से मेजबान देशों पर चिंता हावी है। हालांकि, म्यांमार में चीनी समुदाय की बहुत छोटी आबादी बसी है, फिर भी सैन्य शासन के दौरान उनका प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा। हाल के वषार्ें में म्यांमार में चीन सरकार के निवेश के साथ चीनी जनसंख्या में काफी इजाफा हुआ है। चीन को खुश करने के लिए म्यांमार सरकार चीनियों के साथ बेहतर तरीके से पेश आती है।

बर्मा के समाज का नजरिया भारत के प्रति कैसा है, यह आने वाले समय में अधिक मायने रखेगा। मैं अपने एक अनुभव को साझा करना चाहता हूं। मेमियो, जिसे अब पिन ओ ल्विन कहा जाता है, म्यांमार के उत्तर में स्थित एक खूबसूरत हिल स्टेशन है, जहां भारतीयों की अच्छी आबादी है। इस शहर के उत्तर में एक विशाल नवनिर्मित बुद्ध मंदिर है जो पिछले दशक में तैयार हुआ था। उसकी कहानी कुछ इस प्रकार  है:

चीन म्यांमार में तराशी गई बुद्ध की एक विशेष मूर्ति खरीदना चाहता था जो बेहद खूबसूरत और विशाल थी। बर्मी लोग इसके खिलाफ थे। लेकिन म्यांमार की सरकार ने चीन के दबाव में उस मूर्ति को बेचने के लिए हामी भर दी थी। परिणामस्वरूप जनता में रोष था। उधर मूर्ति जिस ट्रक से चीन भेजी जा रही थी, वह घुमावदार पहाड़ी रास्तों से गुजरते समय पलट गया, पर बुद्ध की प्रतिमा को खरोंच तक नहीं आई। चीनी ठेकेदारों ने विशाल क्रेनों से मूर्ति को उठाने की कोशिश की, लेकिन हैरानी की बात थी कि बुद्ध की वह मूर्ति को एक इंच भी नहीं खिसकाया जा सका। तब इस क्षेत्र के बौद्ध भिक्षु वहां पहुंचे। वे मूर्ति को आसानी से उठाकर पहाड़ी की चोटी तक लाने में सफल हुए। वहां एक बहुत सुंदर मंदिर का निर्माण हुआ जिसमें गौतम बुद्ध की उसी मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की गई। यह एक ऐतिहासिक घटना थी और वहां बुद्ध के दर्शन करना अपने आप में सौभाग्य की बात है।

एक और खास बात। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की मशहूर नृत्यांगना हेलेन म्यांमार से ही हैं। म्यांमार में जन्मे भारतीय मूल के लोगों में सबसे महत्वपूर्ण योगदान विपश्यना के संस्थापक श्री सत्यनारायण गोयनका गुरुजी ने दिया—जो एक महान विभूति हैं, जिन्होंने ध्यान योग को सफलतापूर्वक भारत में पुन: लोकप्रिय बनाया है और हिंदुओं और बौद्धों को साथ लाने के समर्पित और सार्थक प्रयास किए हैं। इन्हीं सब प्रसायों की वजह से रिश्तों को प्रगाढ़ करने की उम्मीद फिर से पलने लगी है।  

(लेखक अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के महामंत्री हैं)

 

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