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श्री केके मुहम्मद ने अपनी किताब 'ञानेन्ना भारतीयन' में लिखा है कि बाबर के सेनापति मीर ने अयोध्या में मंदिर के अवशेषों का इस्तेमाल करके मस्जिद का निर्माण किया, जिसे उसने ध्वस्त किया या किसी और ने पहले ही उसे गिरा दिया था। ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर मेरे बयान के बाद माहौल गरमा गया। हिन्दू और मुसलमान नेता आमने-सामने आ गए, जबकि दोनों पक्षों के मध्यस्थ सामंजस्य बनाने का प्रयास कर रहे थे। मुसलमानों के बीच कुछ उदारवादी थे जो यह सोचने लगे थे कि विवाद को सुलझाने के लिए हिंदुओं के पक्ष में इस पर दावा छोड़ देना ही अच्छा रहेगा। कुछ मुसलमान नेताओं के भी यही विचार थे, लेकिन ऐसा बोलने की हिम्मत कोई नहीं जुटा सका। उसी समय एस. गोपाल, रोमिला थापर, बिपिन चंद्र के साथ प्रो. आर.एस. शर्मा की अगुआई में अख्तर अली, सूरजभान, डी.एन. झा, इरफान हबीब जैसे इतिहासकारों की फौज विवाद में कूद पड़ी। इनमें सूरजभान ही केवल पुरातत्वविद् थे। आर.एस. शर्मा का गुट तो बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की कई आधिकारिक बैठकों में विशेषज्ञ के तौर पर शामिल रहा। वामपंथी इतिहासकारों के इस समूह का समाचार पत्रों और पत्रिकाओं पर जबरदस्त प्रभाव था और ये उनके लिए मुख-पत्र की तरह काम करते थे। अयोध्या के तथ्यों पर वे जो सवाल उठाते थे, वही इनमें लेखों के रूप में प्रकाशित होते थे। इसी से आम लोगों में भ्रम पैदा हुआ और उदारवादी मुस्लिम धड़ा जो पहले भूमि हिंदुओं को सौंपने की बात कर रहा था, उसने भी धीरे-धीरे रुख बदलना शुरू कर दिया। अंत में इस धड़े ने भी कह दिया कि 'मस्जिद' पर दावा नहीं छोड़ना चाहिए। इस तरह से वामपंथी इतिहासकारों के हस्तक्षेप से दोनों पक्षों के बीच बातचीत से मामले के निपटारे का रास्ता पूरी तरह बंद हो गया।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी वामपंथी इतिहासकारों की उदासीनता जारी रही। उन्होंने बिना किसी कवायद के पूर्व में अपनी स्थिति भी बदल ली। इसका कारण यह था कि जिन्होंन् बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के प्रतिनिधि के तौर पर उत्खनन में हिस्सा लिया, वे बमुश्किल इतिहासकार थे। उनमें से तीन या चार को तो पुरातत्व की कुछ जानकारी थी, लेकिन फील्ड पुरातत्व से बिल्कुल अनभिज्ञ थे। इसलिए डॉ. बी.आर. मणि जैसे प्रसिद्ध पुरातत्वविदों के सामने वे बौने थे। लिहाजा बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का प्रतिनिधित्व कर रहे जेएनयू और अलीगढ़ विश्वविद्यालय के लोगों को, जिन्हें फील्ड पुरातत्व की जानकारी नहीं थी, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पुरातत्वविदों ने तवज्जो नहीं दिया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण सत्य और निष्पक्षता को लेकर प्रतिबद्ध था। यदि यह समझौता सफल हो जाता तो यह देश में हिन्दू-मुसलमान संबंधों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित होता। इस अवसर को गंवा देना यह दर्शाता है कि न केवल हिन्दू-मुसलमान कट्टरता, बल्कि कम्युनिस्ट कट्टरता हमारे देश के लिए समान रूप से खतरनाक है। ल्ल
मेरी किताब का उद्देश्य लोगों के सामने सच्चाई लाना है। इतिहास में कई गंभीर गलतियां हुईं हैं। हमें यह जरूर सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसी गलतियां दोबारा नहीं हों। लेकिन इन गलतियों को न्यायसंगत बनाना कहीं ज्यादा खतरनाक है। अयोध्या मुद्दा समाधान होना चाहिए, तभी भारत आगे बढ़ सकता है। मौजूदा सरकार को समाज के साथ बैठकर एक सौहार्दपूर्ण समाधान पर विचार करना चाहिए। मेरी किताब इस दिशा में एक छोटा कदम है। इसका उद्देश्य न तो किसी वर्ग समर्थन और न ही किसी का विरोध करना है।
— के.के. मुहम्मद
उत्खनन में मंदिर से संबंधित कई अवशेष पाए गए। कम्युनिस्ट भी इसका हिस्सा रहे। ऐतिहासिक तथ्यों, साक्ष्यों और निष्कर्षों को जनता से छिपाना हमेशा दंगों और अशांति का कारण बनेगा। लेकिन जिन लोगों ने ऐसा किया उनका मकसद यही था कि कि आम जनता हमेशा एक-दूसरे से लड़ाई में उलझी रहे। सत्तापक्ष में बैठे लोगों को समझना चाहिए कि जनता उनसे ज्यादा समझदार है। उन्हें सहजता से लोगों को सच बताने का प्रयास करना चाहिए था। इससे पता चलता है कि हमारी पुरातात्विक नीति क्या है।
– एम.जी.एस. नारायणन, आईसीएचआर के पूर्व अध्यक्ष
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