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योगी के सत्प्रयासों में चाहकर भी खोट नहीं ढूंढ पा रहा मीडिया
यह देश में बरसों से स्थापित पाखंड के टूटने का दौर है। देश का मीडिया भी इस पाखंड का पोषक रहा है। वरना उत्तर प्रदेश में गली-गली में खुल चुके अवैध कसाईखानों को बंद कराने पर जनता खुश और मीडिया मातम नहीं मना रहा होता। यह पहली बार हुआ है जब एक अवैध कारोबार के पक्ष में देश का संभ्रांत मीडिया एकजुट हो चुका है। चैनलों पर लखनऊ में कबाब बनाने वाली एक दुकान को लेकर ऐसा मातम मनाया गया, मानो दुकान बंद हो गई तो देश में भुखमरी आ जाएगी। दुकान तो घंटे भर में दोबारा खुल गई, लेकिन मीडिया का रोना-धोना देर रात तक जारी रहा। एक क्रांतिकारी चैनल ने दिखाया- ''भूल जाइए टुंडे कबाब, आप लखनऊ में हैं।'' इस तरह का दिमागी दिवालियापन दिखाते हुए किसी चैनल या अखबार ने यह मुद्दा नहीं उठाया कि एक जानी-मानी दुकान पर ग्राहकों को अवैध बूचड़खानों का असुरक्षित मांस क्यों परोसा जा रहा था? अदालत के आदेश पर होने वाली कार्रवाई को मीडिया अगर इस तरह से विवादित बनाने की कोशिश करता है तो इसे क्या कहेंगे?
कुछ ऐसा ही मामला रहा छेड़खानी रोकने के लिए चलाए जा रहे अभियान का। तथाकथित राष्ट्रीय चैनलों ने पहले इसे मुसलमानों के खिलाफ अभियान बताने की कोशिश की। जब पता चला कि पकड़े गए लड़कों में कई हिंदू भी हैं तो कहानी बदलकर इसे प्रेमी जोड़ों को परेशान करने का मामला बना दिया गया। लगभग हर चैनल के रिपोर्टरों ने लखनऊ समेत उत्तर प्रदेश के तमाम शहरों में महिलाओं के मुंह में यह बात डालने की कोशिश की कि वे एंटी-रोमियो स्क्वॉड से खुश नहीं हैं। लेेकिन कहीं भी उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली। एक बड़े संपादक को तो अपना कार्यक्रम आखिरी वक्त पर बदलना पड़ा, क्योंकि उन्हें लखनऊ की सड़कों पर एक भी ऐसी लड़की नहीं मिली जो कहती हो कि छेड़खानी करने वालों के खिलाफ अभियान गलत है। मीडिया अब तक यह समझ नहीं पाया है कि कुछेक मामलों में ज्यादती को दिखाकर वह छेड़खानी के पूरे मुद्दे को खारिज नहीं कर सकता?
एनडीटीवी चैनल तो इसी बात पर भावुक हुआ जा रहा है कि एंटी-रोमियो नाम क्यों रखा गया। एंटी-रोमियो हो या एंटी-मजनूं, ये सारे नाम मीडिया के ही गढ़े हुए हैं। अखबार और चैनल लंबे समय से इन नामों को ऐसे अभियानों के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। सही बात यह है कि यह सारा विरोध भाजपा की सरकारों के लिए घृणा वाली मानसिकता का नतीजा है। वरना नाम इतना महत्वपूर्ण नहीं हो सकता कि इससे जुड़े पूरे अभियान पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया जाए। बड़े-बड़े पत्रकार इस मुद्दे पर जिस तरह चुटकुलेबाजी करते दिख रहे हैं, उससे पता चलता है कि महिलाओं की सुरक्षा के सवाल की संवेदनशीलता का उन्हें खुद ही आभास नहीं है। छेड़खानी रोकने के अभियान को बदनाम करने के लिए कई झूठी खबरें भी फैलाई गईं, जिनमें से ज्यादातर के पीछे सोशल मीडिया नहीं, बल्कि मुख्यधारा मीडिया का हाथ रहा।
दरअसल, मोदी हों या योगी, कोई हिंदुत्ववादी सरकार मीडिया के इस तबके को स्वीकार नहीं है। उनसे अच्छे कामों की प्रशंसा तो भूल जाइए, स्वस्थ आलोचना तक की उम्मीद करना बेकार है। चैनल अगर आदित्यनाथ योगी से जुड़ी खबरों को ज्यादा दिखा रहे हैं तो इसका कारण कुछ और नहीं, बल्कि टीआरपी है। उत्तर प्रदेश में योगी के कार्यक्रमों पर जनता की नजर है और वह उन्हें देखना चाहती है इसलिए चैनलों के आगे मजबूरी है। वरना नोएडा से चलने वालेे कुछ चैनल तो अखिलेेश यादव की जीत के प्रति इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने उनकी दोबारा जीत के मौके पर चलाने के लिए प्रायोजित कार्यक्रम पहले से बना रखे थे। ऐसे चैनलों को उत्तर प्रदेश का जनादेश कैसे पच सकता है?
मीडिया के पाखंड का एक और नमूना है राम मंदिर से जुड़े कार्यक्रम। बीते हफ्ते कई चैनल के पत्रकारों ने अयोध्या जाकर यह भाव स्थापित करने की कोशिश की कि लोग राम मंदिर तो चाहते हैं, लेकिन बगल में मस्जिद भी चाहते हैं। राम जाने यह आइडिया कहां से आ रहा है। दिन में रामभक्तों की भावनाओं से खिलवाड़ करने वालेे ये चैनल रात में भगवान राम की तलाश में निकल पड़ते हैं तो और भी ज्यादा हैरानी होती है। लगभग सभी हिंदी चैनलों पर अचानक ऐसे 'धार्मिक' कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई है। दरअसल, इन सभी को रामभक्तों की भावनाओं की परवाह है ही नहीं। यह मीडिया का दोहरा चेहरा है। उनके लिए सिर्फ आर्थिक हित महत्वपूर्ण है।
उधर, दिल्ली में नगर निगम के चुनाव होने वाले हैं। दिल्ली सरकार के विज्ञापनों का असर देखिए कि जब आम आदमी पार्टी ने वादा किया कि वे चुनाव जीते तो संपत्ति कर खत्म कर देंगे। तो सारे चैनलों पर यह खबर बिना किसी किन्तु-परंतु के चली, जबकि सच्चाई सोशल मीडिया पर थी, जहां पर लोगों ने पूछा कि जब यह काम संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है तो इसका वादा दिल्ली सरकार कैसे कर सकती है? क्या यह मीडिया की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए कि वह राजनेताओं के ऐसे भ्रामक वादों से जनता को बचाए? या फिर अभिव्यक्ति की आजादी के स्वयंभू सूरमा लाखों रुपए के विज्ञापनों के दबाव में ऐसे ही समर्पण करते रहेंगे? ल्ल
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