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महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में दापोली तालुका स्थित असोंद गांव कई साल से पेयजल संकट से जूझ रहा है। खासकर हर साल मार्च और मई महीने में यह संकट और ज्यादा गंभीर हो जाता है। 2014 की बात है। स्वयंसेवक साप्ताहिक बैठक में गांव की समस्याओं पर चर्चा कर रहे थे। तभी उन्हें महसूस हुआ कि गांव में पेयजल संकट गंभीर है और इस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। गांव वालों की समस्या को देखते हुए पड़ोस के गांव में कोंकण विद्यापीठ परियोजना से जुड़े श्रमिकों ने अपने कुएं से पीने का पानी देने का प्रस्ताव दिया। लेकिन वहां से पानी लाना आसान नहीं था, क्योंकि दोनों गांवों के बीच एक किलोमीटर की दूरी थी। उसके लिए लंबी पाइपलाइन बिछाने की जरूरत थी। इसके बाद घरों तक पानी पहुंचाने के लिए अलग से पाइपलाइन लगानी थी। इसमें खर्च बहुत आ रहा था। लिहाजा असोंद के प्रत्येक परिवार से 500-500 रुपये इकट्ठा करने का फैसला लिया गया।
ग्रामीणों से चंदा एकत्र करने का काम शुरू हुआ। तीन महीने बाद पता चला कि 16 परिवारों ने तो पैसे दिए ही नहीं। हर अमावस्या को गांव में होने वाली बैठक में यह बात उठी। तब पता चला कि जिन 16 परिवारों के हिस्से की राशि नहीं आई, उन्हें काफी पहले गांव से निकाल दिया गया था। हालांकि बहिष्कृत किए जाने के बाद सभी गांव में ही रह रहे थे, लेकिन गांव का कोई भी व्यक्ति उनसे बातचीत नहीं करता था। स्वयंसेवक जब मामले की गहराई तक गए तब पता चला कि इन परिवारों में कुछ ऐसे थे जिन्हें 40 साल पहले गांव से बहिष्कृत किया गया था, जबकि कुछ को 5 से 15 साल पहले। सभी परिवारों के बहिष्कार के कारण अलग-अलग थे। साप्ताहिक बैठक में स्वयंसेवकों ने इस मुद्दे पर चर्चा की और इस बात पर जोर दिया कि अगर ग्रामीण इसी तरह बंटे रहे तो किसी भी प्रयास का परिणाम नहीं निकलेगा।
इसके बाद ग्रामीणों की बैठक हुई, जिसमें 16 परिवारों के खिलाफ बहिष्कार का फैसला वापस लेने पर जोर दिया गया। इसमें यह निर्णय लिया गया कि गांव की सभी 12 जातियों के प्रमुखों और बहिष्कृत परिवारों की एक बैठक बुलाई जाए, जिसमें बहिष्कार हटाने के तरीकों पर बातचीत हो। लेकिन 3-4 माह बीतने के बाद भी दोनों पक्षों की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। पांचवें महीने में गांव के प्रमुख को चर्मकार समुदाय के मुखिया का पत्र मिला। इसमें लिखा था कि 40 साल पहले जिन तीन परिवारों के बहिष्कार का फैसला लिया गया था, उसे वापस ले लिया गया है। इस पत्र को गांव की बैठक में पढ़ा गया। इस पहल से दूसरे समुदाय के प्रमुखों पर भी असर पड़ा और उन्होंने भी अपने समुदाय में इस फैसले को लागू किया। इस तरह सभी 16 परिवारों पर से बहिष्कार का फैसला हटा लिया गया। इस प्रक्रिया में करीब डेढ़ साल
लग गया।
2015 के आखिर में बहिष्कृत परिवारों की वापसी की खुशी में स्थानीय मंदिर में एक भव्य समारोह का आयोजन किया गया। कई दशक बाद सभी ग्रामीणों ने एक साथ भोज में हिस्सा लिया। महत्वपूर्ण बात यह रही कि इस पूरी प्रक्रिया में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बातचीत के लिए किसी परिवार के पास नहीं गए थे। लेकिन उन्होंने ऐसा वातावरण तैयार कर दिया कि ग्रामीणों ने उन परिवारों के खिलाफ बहिष्कार का फैसला वापस ले लिया। इससे पहले, मामूली मतभेद पर भी गांव से किसी को भी बहिष्कृत कर देने की जैसे परंपरा बन गई थी। लेकिन अब इस तरह की कोई भी बात होती है तो लोग मिल बैठकर उसे सुलझा लेते हैं।
जब पूरा मामला सुलझ गया तो गांव के सभी परिवारों से उनके हिस्से की राशि एकत्र की गई और पूरे गांव में पानी की पाइपलाइन बिछाई गई। इससे गांव के लोगों का आत्मविश्वास बढ़ा। इस पूरे घटनाक्रम में किसी भी स्तर पर स्वयंसेवकों का कोई जुड़ाव नहीं रहा। चंदा एकत्र करने से लेकर गांव में पाइपलाइन बिछाने का पूरा काम ग्रामीण समिति ने किया।
इस मामले का दिलचस्प पहलू यह रहा कि मजदूरी से लेकर पाइप बिछाने का काम ग्रामीणों ने ही किया। अब इस पाइपलाइन के रखरखाव की जिम्मेदारी भी सामूहिक रूप से ग्रामीण ही उठा रहे हैं। इस गांव में कुल 400 परिवार हैं और उन्हें 600 लीटर पीने का पानी मात्र 20 मिनट में मिल जाता है। पहले उन्हें टंकी से पानी लाना पड़ता था। उस समय समस्या यह थी कि जलापूर्ति का समय तय नहीं था, इसलिए लोगों को घंटों पानी के इंतजार में बैठे रहना पड़ता था। 2016 के अंत तक सभी परिवारों को पानी मिलने
लगा था।
सामान्य चलन के विपरीत स्वयंसेवकों ने कभी इस बदलाव का श्रेय नहीं लिया। उल्लेखनीय है कि प्रत्येक ग्रामीण रा.स्व.संघ से परिचित है और इस बदलाव में उसने उत्प्रेरक की भूमिका निभाई। -प्रमोद कुमार
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