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हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि अस्पृश्यता एक भयंकर भूल है और उसका पूर्णतया उन्मूलन आवश्यक है। यदि अस्पृश्यता गलत नहीं है तो कुछ भी गलत नहीं है।
—बालासाहब (पूना में 8 मई, 1974 को वसंत व्याख्यानमाला में दिए गए भाषण में)
‘‘हमें न तो अस्पृश्यता माननी है और न उसका पालन करना है।’’
इन शब्दों में छिपी व्यवस्था परिमार्जन की चमक किसी को भी रोमांचित करने के लिए काफी है, लेकिन जब यह पता चलता है कि यह बात आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने अपने स्वयंसेवकों से संघ के शैशवकाल में तब कही थी जब ऐसी किसी कल्पना को भी समाज में स्थान मिलना मुश्किल था, तो सिर श्रद्धा से झुक जाते हैं। हिन्दू समाज की फांकों को दूर करते हुए देश को सबल, सक्षम बनाने की जो दिशा डॉ. हेडगेवार ने तब दिखाई उस राह पर बढ़ते-बढ़ते संघ आज व्यापक सामाजिक स्वीकार्यता के साथ विश्व का सबसे बड़ा और प्रयोगधर्मी संगठन बन गया है।
डॉ. हेडगेवार की उपरोक्त बात का उल्लेख तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस किया करते थे। और केवल उल्लेख क्यों? बालासाहब का तो पूरा जीवन ही संघ कार्य में समरसता की आवश्यकता को अधोरेखित करने वाला जीवन है। समरसता यानी एकरस समाज। समता के साथ बंधुत्व को गूंथने वाली डोर।
हिन्दू समाज का जो घटक भौतिक विकास यात्रा में अपने समाज बंधुओं से पीछे, प्रगति के सोपानों पर कहीं नीचे छूट गया उसके मन की पीड़ा को समझने और उसे साथ लेने के लिए समाज पुरुष द्वारा हाथ बढ़ाने का आग्रह करता बालासाहब का जीवन अपने आपमें सद्भाव और वैचारिक खरेपन की अनूठी प्रेरणा है।
समरसता का भाव संघ कार्य के बीज में ही था, यह न मानने का कोई कारण नहीं। महात्मा गांधी से लेकर बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर तक इसके साक्षी रहे और प्रभावित भी हुए। जाति-भेद से परे हिन्दू नवयुवकों के पथक की कल्पना करने वाले डॉ. हेडगेवार थे तो उनकी कल्पना को ‘न हिन्दू पतितो भवेत’ के विशाल सामूहिक उद्घोष में परिवर्तित करने वाले श्रीगुरुजी थे। द्वितीय सरसंघचालक। आगे इस समाज संगठन यज्ञ का नेतृत्व किया बालासाहब देवरस ने। वह बालासाहब, जिनका परिचय कराते हुए एक बार श्रीगुरुजी ने स्वयं कहा था, ‘‘जिनके कारण मुझे सरसंघचालक नाम से जाना जाता हैै वह बालासाहब यह हैं।’’ यह बालासाहब ही थे जिन्हें संघकार्य में समरसता के शिल्पकार होने का श्रेय जाता है। उनकी प्रखर भविष्य दृष्टि के कारण केवल शाखा नहीं, अनेक आयाम संघकार्य में जुड़ते गए और काम का फैलाव बढ़ता गया।
देखिए, विधाता का रचा कैसा अद्भुत चक्र है! सरसंघचालक बदलते हैं, लेकिन धुरी पर डटे रहते हुए काम बढ़ता जाता है। हर वलय के साथ समरसता का संकल्प गहरा होता दीखता है और समाज में संघकार्य की स्वीकार्यता बढ़ती जाती है!
इतने पर भी यदि किसी को लगे कि राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ का कार्य सबको साथ लेकर चलने वाला नहीं और किसी भी तरह संकीर्ण है, तो संघ के ऐसे शोधकों अथवा आलोचकों को अपनी जानकारी बढ़ाने की जरूरत है। पाञ्चजन्य का यह अंक इसी दिशा में एक प्रयास है। जानकारी से भरपूर। अपने पाठकों के लिए हमने प्रयासपूर्वक काफी सामग्री
जुटाई है।
सामाजिक भेदभाव के प्रति संघ की वैचारिक दृष्टि को पर्याप्त स्पष्टता और मुखरता से सामने रखता बालासाहब का ऐतिहासिक वसंत व्याख्यानमाला उद्बोधन, समरसता की दिशा में संघ द्वारा और इसकी प्रेरणा से विविध क्षेत्रों में किए गए अनेकानेक प्रयोग, वरिष्ठ पत्रकार दिनकर विनायक गोखले द्वारा तृतीय सरसंघचालक का वर्षों पहले किया किन्तु आज भी अनूठा लगता साक्षात्कार और एक जलस्रोत, एक श्मशान का मंत्र देते हुए सामाजिक समरसता अभियान को नई उठान देने वाले वर्तमान सरसंघचालक मोहनराव भागवत जी का विशेष साक्षात्कार।
वर्ष प्रतिपदा संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार का जन्म दिवस है। सो इस वर्ष पाञ्चजन्य का यह विशेषांक समरसता के उस स्वप्न के नाम, जो देखा भले प्रथम सरसंघचालक ने था, किन्तु जिसे साकार करने में तृतीय सरसरंघचालक बालासाहब की विशेष उल्लेखनीय भूमिका रही। समाज को हर्ष से भरने वाली प्रतिपदा हिन्दू समाज में समरसता के भाव का चतुर्दिक विस्तार करने की प्रेरक सुबह बने, इसी कामना के साथ पाञ्चजन्य के पाठकों, शुभचिंतकों, वितरकों एवं विज्ञापनदाताओं को अनेकानेक शुभकामनाएं।
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