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पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे बीते हफ्ते आ गए। राजनीतिक दल चुनाव में अपनी हार-जीत की समीक्षा करेंगे। लेकिन वास्तव में मीडिया को भी इसी बहाने अपनी समीक्षा करनी चाहिए। खास तौर पर उत्तर प्रदेश को लेकर मीडिया में बीते कुछ समय से एक खास तरह की रिपोर्टिंग चल रही थी। चुनाव की घोषणा होने के पहले से मुख्यधारा मीडिया में समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव का महिमामंडन शुरू हो चुका था। बाद में जब कांग्रेस के साथ गठजोड़ हो गया तो मानो ‘करेला ऊपर से नीम चढ़ा’ जैसी हालत हो गई। वोट बैंकों और जातीय समीकरणों के आधार पर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को जीत का सबसे मजबूत दावेदार बताया गया।
किसी भी राज्य का चुनाव वहां की मौजूदा सरकार के कामकाज पर एक तरह का जनमत सर्वेक्षण होता है। मीडिया भी जगह-जगह जाकर यह जांचने की कोशिश करता है कि मौजूदा सरकार ने किन मोर्चों पर अच्छा काम किया और कहां पर वो नाकाम रही। लेकिन इस बार उत्तर प्रदेश के लिए यह बात लागू नहीं हुई। अखिलेश सरकार ने क्या किया और क्या नहीं किया, यह बहस मुख्यधारा मीडिया से गायब थी। मुख्यमंत्री अपनी रैलियों में केंद्र सरकार से उसके काम पूछ रहे थे और मीडिया भी खुशी-खुशी इसी लाइन को पकड़कर चल रहा था। अखिलेश सरकार ने आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे और लखनऊ मेट्रो को अपनी कामयाबी के तौर पर गिनाया। लेकिन शायद ही किसी चैनल या अखबार ने यह बताने की जरूरत समझी कि दोनों ही अभी तक बनकर तैयार नहीं हुए हैं। कानून-व्यवस्था, बिजली और धार्मिक आधार पर भेदभाव जैसे मुद्दे अगर चर्चा में आए भी तो चुनावी रैलियों में प्रधानमंत्री के भाषणों के कारण।
चुनाव का तीसरा दौर आते-आते क्रांतिकारी चैनल के क्रांतिकारी एंकर ने फैसला सुना दिया कि भाजपा हारी हुई लड़ाई लड़ रही है। नवभारत टाइम्स तो पहले ही दावे से कह चुका था कि उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की ‘साइलेंट लहर’ चल रही है। लेकिन सबसे संदिग्ध भूमिका रही अंग्रेजी अखबार इकोनमिक टाइम्स की। इस अखबार का उत्तर प्रदेश में यूं तो कोई खास असर नहीं है, लेकिन न जाने क्यों ऐसा लगता रहा कि वह सपा और कांग्रेस के प्रचार अभियान का हिस्सा है। अखबार की कई रिपोर्टर बाकायदा लखनऊ में बैठी रहीं और समाजवादी पार्टी की जीत की भविष्यवाणी जारी करती रहीं। ऐसे भी दिन आए जब इकोनॉमिक टाइम्स के पूरे के पूरे राजनीतिक पेज समाजवादी पार्टी की खबरों से भरे हुए थे। दरअसल उत्तर प्रदेश में सेकुलर पत्रकारों की एक पूरी जमात चुनावी कवरेज की आड़ में अलग ही काम में जुटी थी। वे पत्रकारिता के नाम पर भाजपा के खिलाफ माहौल बना रहे थे, ताकि उसे सत्ता में आने से रोक सकें। कुछ पत्रकारों ने आखिरी दौर तक यह काम जारी रखा, तो कुछ ने आखिरी दौर आते-आते माना कि उत्तर प्रदेश में हवा का रुख किस तरफ है। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों था कि उत्तर प्रदेश चुनाव में मीडिया का एक बड़ा तबका खुद को निष्पक्ष नहीं रख पाया। निजी पसंद-नापसंद क्या इतना हावी हो सकती है कि कोई मीडिया समूह या पत्रकार अपनी सारी विश्वसनीयता दांव पर लगा दे?
भाजपा जीती है लिहाजा इस जीत पर प्रश्नचिन्ह लगाने की कोशिश भी शुरू हो चुकी है। जिस दिन चुनावी नतीजे आए, ठीक उसी दिन बीबीसी ने अपनी वेबसाइट पर मई 2010 का एक लेख शेयर किया जिसमें दावा किया गया था कि भारत में इस्तेमाल होने वाली इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों को हैक किया जा सकता है। इस लेख के दावे बहुत पहले ही गलत साबित हो चुके हैं। लेकिन बीबीसी ने बड़े ही शरारतपूर्ण तरीके से सात साल बाद उसी पुराने लेख को शेयर करके भारतीय लोकतंत्र पर लांछन लगाने की कोशिश की। बीबीसी का यही लेख अब नकारे गए नेताओं और चिढ़े हुए पत्रकारों की बहसों का आधार बना हुआ है।
खिसियाया और चिड़चिड़ा पत्रकार कभी निष्पक्ष और पेशेवर नहीं हो सकता। ऐसी ही मानसिक अवस्था वाले पत्रकार कभी वोटिंग मशीन को लेकर लोगों के मन में शक बिठाने की कोशिश करते हैं तो कभी मणिपुर और गोवा में राज्यपाल के फैसलों पर सवाल उठाते हैं। जबकि इन दोनों ही मामलों में बिना हो-हंगामे के विषय के किसी जानकार से बातचीत करके सच्चाई को सामने लाया जा सकता था।
विपक्षी नेताओं की तरह कई पत्रकार भी जनादेश को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। ये पत्रकार कौन हैं, यह हर कोई जानता है। बार-बार फेल होने के बावजूद वह हिम्मत नहीं हारते और कोशिश जारी रखते हैं। उत्तर प्रदेश समेत चार राज्यों में भाजपा की जीत उनके लिए झटका है। लेकिन इतना तय है कि उनकी साजिशें खत्म नहीं होने वालीं। उत्तर प्रदेश में होने वाली हर छोटी-बड़ी घटना और गलत-सही दावों को मीडिया का ये तबका खूब तूल देगा। कोशिश यही होगी कि सरकार शांति से काम नहीं करने पाए।
उधर, अमेरिकी चैनल सीएनएन पर हिंदू धर्म को बदनाम करने की नीयत से एक कार्यक्रम दिखाया गया। इसमें हिंदुओं को नरभक्षी बताने की कोशिश की गई। दुनिया भर में फैले हिंदुओं ने इस रिपोर्ट पर सोशल मीडिया के जरिए कड़ा विरोध जताया। यहां तक कि अमेरिकी कांग्रेस की हिंदू सदस्य तुलसी गबार्ड ने इस पर सीएनएन को जमकर खरी-खोटी सुनाई। लेकिन भारतीय मीडिया चुप्पी साधे रहा। क्या यह उसकी जिम्मेदारी नहीं थी कि जिहादी मानसिकता वाले एक अमेरिकी मुस्लिम रिपोर्टर की नीयत के खोट को सामने लाए?
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