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वामपंथियों का झंडा ही लाल नहीं है, बल्कि उनका इतिहास भी रक्तरंजित है। 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान उन्होंने साबित कर दिया था कि लाल भाई अपने वामपंथी साथियों को ही लाल सलाम ठोक सकते हैं
डॉ. गुलरेज शेख
जितना लाल वामपंथियों का ध्वज है, उतना ही लाल इनका इतिहास। अपने जन्म से यौवन और यौवन से मृत्यु शैया तक, समूचे विश्व में वामपंथियों ने यदि कोई खेल सीखा है, तो वह खूनी खेल है। ब्रिटेन में जर्मन शरणार्थी तथा वामपंथी विचारधारा के जनक कार्ल मार्क्स का जीवन चरित ही देख लें। सम्पन्न वर्ग के विरुद्ध राजनीति करने वाला यह समाजशास्त्री स्वयं सम्पन्नता के जीवन के प्रत्येक पल का भोग करता था। इतिहास साक्षी है कि वामपंथी विचारधारा ने जिस भी देश को छुआ, उसे राजनीतिक रूप से ही लाल नहीं किया, अपितु वहां की सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्थाओं को भी लाल कर दिया। तथाकथित अहिंसक बोल्शेविक क्रांति के तत्पश्चात का रूसी इतिहास वास्तव में शवों एवं कब्रिस्तानों का इतिहास रहा। उल्लेखनीय है कि वामपंथी सत्ता प्राप्ति के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं। फिर वह स्तर वैचारिक, राजनीतिक या आर्थिक ही क्यों न हो।
वामपंथियों के इतिहास में ‘नैतिकता’ नामक शब्द का उपयोग करना नैतिकता का अपमान है। चाहे वह वियतनाम में मजहब के प्रति अपनी विचारधारा से समझौता हो या आर्थिक लाभ के लिए समाजवाद का चोला उतारकर पूंजीवादियों के लिए लाल चीन में रेड कार्पेट ही क्यों न बिछाना हो। जो वामपंथी मजहब को अफीम कहता है तथा सम्पन्न वर्ग के लिए यह तक कहने में नहीं चूकता कि हम सबसे आखिर में जिस व्यक्ति को फांसी देंगे, वह वही होगा जो रस्सी बेच रहा होगा। वही वामपंथी सत्ता प्राप्ति के लिए मजहबी तुष्टीकरण को न केवल मौन समर्थन देता है, बल्कि चिन्गारियों को शोला बनाने की कला भी जानता है। पर इन सबसे भी अधिक पीड़ादायक है, वामपंथी खुराफात का देश तोड़ू इतिहास। 1962 के भारत-चीन युद्ध ने यह सिद्ध कर दिया था कि भारत में बैठे लाल भाई अपने कम्युनिस्ट साथियों को ही लाल सलाम ठोक सकते हैं। जब समूचा भारत एक शरीर की भांति जाति, पंथ, क्षेत्र, भाषा तथा दलगत राजनीति से ऊपर उठकर चीन से युद्ध कर रहा था, तब लाल भाई उसी चीन को लाल सलाम ठोक रहे थे। परंतु वामपंथी खुराफात का सिलसिला 1962 में ही समाप्त नहीं होता। पूर्वोत्तर के जिन राज्यों में वामपंथ सक्रिय रहा, वहां उसके सहयोग में चीन के अतिरिक्त जो शक्ति कार्यरत थी, वह अब भी कार्यरत है। यह वह शक्ति है, जिसकी दृष्टि में भारत राष्ट्र न होकर एक ‘मिशन’ मात्र है। सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक रूप से पूर्वोत्तर की भूमि को हिंसा एवं अलगाववाद की ज्वाला में झोंकने के लिए यही शक्तियां उत्तरदायी हैं।
पूर्वोत्तर से लगते बंगाल की वैचारिक भूमि (जिसने देश को सुभाषचंद्र बोस, बंकिमचंद्र चटर्जी, डॉ़ श्यमाप्रसाद मुखर्जी जैसे अनगिनत राष्ट्रपुत्र दिए) भी स्वयं को वामपंथी खुुराफात से बचा नहीं पाई। दशकों तक बंगाल में सत्तारूढ़ वामपंथियों ने न केवल भ्रष्टाचार किया, बल्कि लाल आतंक का तांडव भी किया। यह वही विचारधारा है, जो मानती है ‘‘शक्ति का स्रोत बंदूक की गोली है।’’ वामपंथी सरकारों ने मात्र वोट बैंक के लिए तुष्टीकरण की जो राजनीति की, वह बंगाल तक ही सीमित नहीं रही। वोट बैंक बढ़ाने की मंशा के तहत उन्होंने इस प्रकार बंग्लादेशी घुसपैठियों को बंगाल में आने-जाने दिया जैसे कोई अपने घर के एक कमरे से दूसरे कमरे में जाता है।
परिणामस्वरुप बंग्लादेशी घुसपैठिये बंगाल तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि देश के अन्य भागों में भी फैल गए। इन घुसपैठियों के फैलाव ने सीमा पार से आने वाले नकली नोट, मादक पदार्थ, हथियार, मानव तस्करी तथा आतंकियों के लिए एक सुलभ मार्ग का निर्माण किया। गाजरघास की तरह फैलने वाली इस जहरीली विचारधारा ने 1967 में पश्चिम बंगाल के गांव नक्सलबाड़ी से एक ऐसे माओवादी आंदोलन की शुरुआत की, जो बढ़ते-बढ़ते नक्सलवाद के नाम से आज भी विभिन्न प्रांतों में भारत भूमि को डस रहा है।
चीन पोषित वामपंथ
यदि नक्सलवाद से प्रभावित मानचित्र पर प्रकाश डालें तो यह स्थापित होता है कि यह अनायास उत्पन्न हुआ आंदोलन न होकर, भारत के विरुद्ध योजनाबद्घ तरीके से निर्मित बाहरी रणनीति है। चीन से लगे सीमावर्ती पूर्वोत्तर प्रांतों से उत्पन्न होकर जो रेखा असम के हिस्सों, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्र, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के कुछ भागों से होते हुए केरल तक पहुंचती है, उसे राजनैतिक भाषा में ‘‘रेड कॉरिडोर’’ कहा जाता है। मानचित्र में देखने पर यह किसी भी भारतीय के रोंगटे खड़े करने के लिए पर्याप्त है। राजनीति शास्त्र का कोई सामान्य अध्ययनकर्ता भी इस मानचित्र को सामने रख यह कह सकता है कि वामपंथी शासन वाले चीन ने वामपंथियों का एक ऐसा क्षेत्र बना लिया है, जो युद्ध के समय भारत के लिए घर में रखा टाइम बम सिद्ध होने में समर्थ है। दूसरों के इतिहास को भूल जाने वाले देश, अपने लिए उसी भविष्य को आमंत्रित करते हैं।
प्रथम विश्व युद्ध में जब जर्मन सेनाएं अपनी पश्चिमी सीमाओं पर लड़ रही थीं, तब जर्मनी में बैठे वामपंथियों ने गोला-बारूद बनाने के कारखानों में हड़ताल करा दी। इसके परिणामस्वरुप न केवल जर्मनी को विश्व युद्ध में पराजय का सामना करना पड़ा, बल्कि लज्जित भी होना पड़ा। यहां यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि यदि जर्मनी में प्रथम विश्व युद्ध के समय रोजा लग्जमबर्ग (रेड रोज), कार्ल लीबेकनेक्ट, अर्नेस्ट टॉलर जैसे वामपंथी नेता नहीं होते तो अक्तूबर क्रांति से लाल रूसी लेनिन के दिशा-निर्देशों पर जर्मनी हार कर लज्जित नहीं होता और दुनिया को एडोल्फ हिटलर का बदसूरत चेहरा भी नहीं देखना पड़ता। क्योंकि एडोल्फ हिटलर के राजनैतिक जन्म के लिए यदि कोई दोषी था, तो वह थे दूसरे मुल्क (रूस) के इशारों पर नाचने वाले जर्मन वामपंथी। भारत का रेड कॉरिडोर भी उपरोक्त जर्मन उदाहरण से पृथक नहीं है। यदि पृथकता है, तो केवल इतनी कि जर्मनी के वामपंथी रूसी वामपंथियों के इशारों पर नाचते थे तथा भारत में बैठे लाल भाई चीन की बीन पर रेंगते हैं। यदि केरल पर प्रकाश डाला जाए तो इस राज्य के वामपंथी सत्ता प्राप्ति के लिए सिर पर टोपी और गले में क्रॉस लटकाए दिखते हैं। मजहब को अफीम मानने वाले ये वामपंथी सत्ता प्राप्ति के लिए इसका अमृत की भांति ही सेवन करते हैं। केरल में मुस्लिम तथा ईसाई तृष्टीकरण वामपंथियों को सत्ता के शिखर पर तो पहुंचा देता है, पर सत्ता के शिखर पर पहुंचे ये वामपंथी राष्ट्रवाद को अपने पैरों तले रखने में विश्वास करते हैं।
राष्ट्रवाद को दबाने के क्रम में ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विद्यार्थी परिषद, भारतीय जनता पार्टी जैसे राष्ट्रवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं को उसी निर्दयता से काटते हंै, जिस निर्दयता से कोई कसाई निरीह बकरों को। यह देश का दुर्भाग्य है कि उस राज्य के मुख्यमंत्री पर भी ऐसी गतिविधियों में लिप्त होने के आक्षेप हंै। यहां यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि वाम विचार सत्ता की अफीम खाकर केरल को कश्मीर बनाने का प्रयास कर रहा है, क्योंकि कश्मीर के अलावा देश के किसी प्रांत में राष्ट्रवादियों तथा राष्ट्रवादी संगठनों के कार्यालयों पर बमों से हमले होते हैं, तो वह केवल केरल ही है।
अब ‘कसाबोत्सव’ मनाएंगे
राष्ट्रीय संस्कृति से घृणा करने वाले जो वामपंथी अब तक रावण की जयंती मनाया करते थे, इस बात का बोध होने पर कि रावण महान शिव भक्त था, अब महिषासुर उत्सव मनाते हैं। संभवत: इसके बाद ‘कसाबोत्सव’ (कसाब उत्सव) मनाएंगे, जिसके संकेत दिल्ली की कन्हैया एंड कम्पनी ने अफजल गुरु की बरसी मनाकर तथा कार्यक्रम में अलगाववादियों द्वारा ‘‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’’ के नारे लगा कर दे दिए। परंतु वामपंथियों के लिए हर समाचार शुभ नहीं होता। पश्चिम बंगाल, जिसे इन्हीं की भाषा में लाल किला कहा जाता था, पूरी तरह से ढह गया। यहां तक कि बंगाल की पुण्यभूमि पर इनके अस्तित्व पर भी प्रश्न चिह्न लग गया है। राजनीतिक परिदृश्य से ऐसा प्रतीत होता है कि संभवत: वामपंथी दल बंगाल की सत्ता में अब कभी नहीं आ पाएंगे। अपने पैरों के नीचे से जमीन खिसकते देख लाल भाई सुनियोजित तरीके से देश के विश्वविद्यालयों में अध्यनरत युवाओं को लाल विष की घुट्टी पिलानी आरंभ कर दी। जब तक देश के आमजन तो क्या, बुद्धिजीवियों को भी खतरे की घंटी सुनाई पड़ती, तब तक देश की राजधानी से ही महिषासुर की टोली आग उगलने लगी। सौभाग्यवश केंद्र में बैठी वर्तमान सरकार न केवल लोकतांत्रिक संख्या बल से सशक्त है, परंतु उससे भी महत्वपूर्ण, राष्ट्रवादी विचार से भी सशक्त है।
समय की आवश्यकता है कि लाल सलाम के नाम पर देश को तोड़ने वालों को बेनकाब किया जाए और सफेद कपड़े पहने टेलीविजन चैनलों पर होने वाली बहसों में जहर उगलने वाले वामपंथियों पर अंकुश लगाया जाए। देश के विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले युवाओं तथा युवतियों को इस बात की जानकारी अवश्य होनी चाहिए कि वामपंथ के तीन लाल हैं- वैचारिक लाल, राजनैतिक लाल और
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