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भारत ही दुनिया में वह देश है जहां उत्सव-त्योहारों के मौकों पर सांस्कृतिक-धार्मिक मेलों की भरमार देखने में आती है। देश को
तीर्थ एक सूत्र में बांधते हैं। नैमिष परिक्रमा भी उसी की कड़ी है
पूनम नेगी
भारतवर्ष की पुण्यधरा पर अनेक दिव्य तीर्थ हैं। हमारे शास्त्र -पुराणों में इन पावन तीर्थों की महिमा का बखान यूं ही नहीं किया गया है। हमारे महान ऋषियों-मनीषियों की गहन तप-साधना व महान उत्सर्ग के दिव्य स्पंदन उनकी साधना-स्थलियों में आज भी मौजूद हैं, जिन्हें प्रत्येक आस्थावान मनुष्य सहज ही महसूस कर सकता है। ऐसा ही पावन तीर्थ है नैमिषारण्य, जिसे सतयुगीन तीर्थ माना जाता है। इस पावन भूमि को सनक-शौनक आदि 88 हजार ऋषियों की साधनास्थली होने का गौरव प्राप्त है। महर्षि वेदव्यास ने चारों वेदों का विस्तार कर यहीं पर 18 पुराणों की रचना की थी तथा बाल योगी शुकदेव जी ने यहीं पर राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत कथा सुनाकर उनके मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया था।
फाल्गुन मास में 84 कोस की परिक्रमा यात्रा के दौरान आध्यात्मिक ऊर्जा से सराबोर इस दिव्य तीर्थ की रौनक देखते ही बनती है। यह पुण्य यात्रा इन दिनों चल रही है जिसका पुण्यलाभ अर्जित करने के लिए देशभर के साधु-संतों और गृहस्थ-संन्यासियों का जमावड़ा आजकल इस तीर्थनगरी में लगा हुआ है।
84 कोसीय परिक्रमा के प्रमुख पड़ाव
अष्टम बैकुण्ठ नाम से विख्यात इस पुण्यभूमि में महाबलिदानी महर्षि दधीचि के महात्याग की पावनस्मृति में प्रतिवर्ष फाल्गुन माह में 84 कोसीय परिक्रमा यात्रा व मेले का आयोजन किया जाता है। मिश्रिख स्थित पुराणकालीन कुण्ड वर्तमान में दधीचि कुण्ड के नाम से विख्यात है। देहदान से पूर्व महर्षि दधीचि ने मिश्रिख में जिस चौरासी कोस क्षेत्र की परिक्रमा फाल्गुन मास में देवताओं के साथ की थी, उनके उस महादान की स्मृति में साधु-संन्यासी, संत-महंत, मठाधीश्वर-पीठाधीश्वर व धर्मप्राण श्रद्धालु मोक्ष की कामना से प्रतिवर्ष परम्परागत तरीके से फाल्गुन मास में इस 84 कोसी परिक्रमा मार्ग की पदयात्रा करते हैं। चौरासी कोस यानी 252 किलोमीटर की यह यात्रा एक पखवाड़े तक फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को चक्रतीर्थ व आदिगंगा में डुबकी लगाकर सिद्धि विनायक जी पूजा के साथ शुरू होती है और पूर्णिमा को होलिका दहन के शुभ मुहूर्त में सम्पन्न होती है। एक अन्य मान्यता यह भी है कि अपने वनवास काल में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने भी इस पुण्य क्षेत्र की पदयात्रा की थी। इस दौरान जिन-जिन स्थानों पर उन्होंने रात्रि विश्राम किया था, वे 11 स्थल आज भी परिक्रमा मार्ग के ‘पड़ाव’ के रूप में विख्यात हैं। परिक्रमा करने वाले श्रद्धालुओं के जत्थे को ‘रामादल’ के नाम से पुकारा जाता है।
1 श्री सिद्घि विनायक धाम
कहा जाता है कि सांसारिक एवं आध्यात्मिक कार्यों में विघ्नों को दूर रखने के लिए भगवान शिव ने अपने पुत्र गणेश को विघ्नहर्ता बनाकर महात्माओं की रक्षा का भार सौंपा था। इसीलिए यात्रा प्रारम्भ करने से पहले श्रीसिद्धि विनायक का विधिपूर्वक पूजन कर उनका आशीर्वाद लेने की परम्परा है।
2 व्यासपीठ
महर्षि व्यासपीठ इस परिक्रमा पथ का प्रमुख पड़ाव व नैमिषारण्य का सुप्रसिद्घ पौराणिक दर्शनीय स्थल है इसी स्थान पर श्री वेद व्यास जी ने चार वेदों को सरलीकृत कर 6 शास्त्रों और 18 पुराणों की रचना की ताकि कलियुग में जनसामान्य वेदों के अर्थों को सुगमता से समझ कर धर्ममार्ग पर चलने को प्रेरित हो सके।
3 सूत गद्दी
महर्षि वेदव्यास से पुराणों की शिक्षा प्राप्त कर सूत जी ने इसी स्थान पर सनक व शौनक आदि 88 हजार ऋषियों के समक्ष पुराण कथाओं की विस्तृत व्याख्या कर लोक कल्याणार्थ उन्हें तप साधना की राह दिखायी।
4 मनु-सतरूपा तपस्थली
सनातन हिन्दू धर्म स्वयंभु मनु और उनकी धर्मपत्नी सतरूपा से मानव सृष्टि का आरम्भ मानता है। व्यास गद्दी के समीप ही पूर्व दिशा में उन्हीं मनु सतरूपा की तपस्थली है जहां सतयुग में मनु और सतरूपा ने जगतनियंता विष्णु की 23 हजार वर्ष की कठिन तपस्या की थी जिसके फलस्वरूप उन्हें त्रेता युग में उनके श्रीराम अवतार के माता-पिता होने का आशीर्वाद मिला।
5 आदि गंगा गोमती
नैमिषारण्य की जीवनधारा पुण्य सलिला गोमती की महत्ता इससे ‘आदि गंगा’ के सम्बोधन से स्वत: सिद्ध हो जाती है। मां गोमती का यह पावन तट सहस्रों ऋषियों-मनीषियों की तप-साधना का साक्षी रहा है। स्कन्दपुराण में उल्लेख मिलता है कि यदि कलियुग में एक दिन भी गोमती नदी में स्नान कर लिया जाये तो सभी तीर्थों में स्नान का फल सहज ही प्राप्त हो जाएगा। इसी तरह श्रीमद्भागवत सहित अन्य पुराणों में एकादशी के दिन गोमती नदी में स्नान करने का विशेष महत्व बताया गया है।
6 श्रीरामधाम
नैमिष भूमि का भगवान राम से विशेष संबंध माना जाता है। त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के विद्या काल से लेकर स्वयं राजा बनने के बाद तक पांच बार यहां आने का उल्लेख पुराणों में प्राप्त होता है। इसी कारण इस स्थान को ‘राम धाम’ के नाम से जाना जाता है।
7 अश्वमेध यज्ञशाला
पौराणिक गाथाओं के अनुसार नैमिषारण्य में गोमती के तट पर सहस्त्रों अश्वमेध बाजपेय अग्निष्टोम विश्वजित गोमेधादि यज्ञ सांगोपांग विधियों से पूर्ण किये गये। यज्ञों की यह परम्परा आज भी नैमिषारण्य में देखी जा सकती है। महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण के उत्तरकाण्ड में श्रीराम के द्वारा नैमिषारण्य में किये गये सम्पादित किये हुए अश्वमेध यज्ञों का सविस्तार वर्णन किया गया है।
8 हनुमान गढ़ी
यह एक प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल है। कहा जाता है कि लंका दहन के बाद वीर हनुमान यहां आये थे। उनकी उसी स्मृति में यहां दक्षिण ओर मुख किये हुए हनुमान जी की एक विशाल प्रतिमा है। इसे महावीर हनुमान का एक सिद्ध स्थल माना जाता है।
9 पाण्डव किला
कहते हैं कि लोमश ऋषि की प्रेरणा पाकर धर्मराज युधिष्ठर अपने भाइयों व द्रोपदी सहित तीर्थ के उद्देश्य से अपने वनवास काल में कुछ समय इस तीर्थस्थली पर भी निवास किया था।
10 प्राचीन शिव मन्दिर
नैमिषारण्य में गोमती नदी के तट पर एक प्राचीन शिव मन्दिर के ध्वंसावशेष आज भी विद्यमान हैं। कहा जाता है कि मन्दिर के समीप तट पर बेल पत्रों एवं फलों से नम: शिवाय के पञ्चाक्षरी मंत्र का उच्चारण के साथ जल में अर्पित करने से वह बिना प्लवन किये जल में समाहित हो जाती है तथा उन्हीं फलों में से कुछ फल प्रसाद रूप में बाहर आ जाते हैं।
11 हत्याहरण तीर्थ (ब्रह्म सरोवर)
कहा जाता है कि वृत्तासुर वध के बाद ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति पाने के लिए देवराज इन्द्र ने नैमिषारण्य में सूर्याभिमुख हो एक पैर पर खड़े होकर शिव की कठोर तपस्या की। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने नैमिष के ब्रह्म सरोवर की ओर इंगित करके कहा, इसमें स्नान करने पर तुम ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हो जाओगे। इसी प्रकार त्रेतायुग में लंकापति रावण का संहार करने के पश्चात भगवान श्रीराम भी गुरु वशिष्ठ के निर्देश पर इसी ब्रह्म सरोवर में स्नान कर तथा अश्वमेध यज्ञ कर ब्रह्मदोष से मुक्त हुए थे। आज भी बड़ी संख्या में लोग यहां पशुहत्या दोष से मुक्ति पाने के लिए यहां स्नान करने आते हैं।
अन्य प्रमुख तीर्थस्थल
इन पवित्र स्थलों के अतिरिक्त नैमिषारण्य के अन्य प्रमुख तीर्थस्थलों में चक्र सरोवर, पंच प्रयाग, दशावतार मंदिर, मां ललितादेवी धाम और मिश्रिख का दधीचि कुंड प्रमुख हैं। यह भूमि ऋषियों, संतों व अवतारी सत्ताओं की भूमि मानी जाती है। यहां साधु-संतों व महंतों के सैकड़ों आश्रम हैं। बड़ी संख्या में जिनके अनुयायी इस परिक्रमा यात्रा में शामिल होने के लिए फाल्गुन मास में यहां जुटते हैं। इनमें ब्रह्मलीन स्वामी श्रीनारदानंद महाराज का आश्रम तथा एक ब्रह्मचर्य आश्रम विशेष रूप से प्रसिद्ध है, जहां आज भी वैदिक युगीन प्राचीन आश्रम पद्धति से बच्चों को शिक्षा दी जाती है। पंचप्रयाग सरोवर के किनारे पुराणकालीन अक्षयवट नामक वृक्ष है। यहां का ललितादेवी धाम मां दुर्गा के 108 सिद्धपीठों में शुमार है। इसके साथ ही गोवर्धन महादेव, क्षेमकाया देवी, जानकी कुंड के साथ ही अन्नपूर्णा, धर्मराज मंदिर तथा विश्वनाथजी का भी मंदिर है जहां पिण्डदान भी होता है। हिन्दू धर्मावलम्बियों की मान्यता है कि इस पुण्यभूमि की परिक्रमा से सम्पूर्ण तीर्थोें का फल प्राप्त होता है और मनुष्य 84 लाख योनियों के भयबन्धन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। नैमिषारण्य तीर्थ के फाल्गुन परिक्रमा मेले की गिनती उत्तर भारत खासतौर पर अवध क्षेत्र में सबसे बड़े मेले के रूप में की जाती है। इस परिक्रमा मेले की प्रसिद्धि देशभर के सुविख्यात संत-महंतों के कथा-प्रवचनों के द्वारा जनसामान्य को धर्मलाभ प्रदान करने के साथ कवि सम्मेलनों, मुशायरों, कव्वाली, लोकगीत-संगीत, आतिशबाजी, देवी जागरण जैसे विविध सांस्कृतिक आयोजनों के द्वारा लोकरंजन की भी है।
आदि तीर्थ चक्र सरोवर
सूत जी द्वारा वर्णित इस तीर्थ के पौराणिक कथानक के अनुसार एक बार असुरों के बढ़ते आतंक से भयभीत होकर ऋषिगण ने प्रजापति ब्रह्मा जी से प्रार्थना की कि, हे प्रभु! कृपा करके पृथ्वी पर कोई ऐसा स्थान बतायें जहां हम लोग निर्विघ्न यज्ञ व तपस्या पूर्ण कर सकें। तब उनके अनुरोध पर ब्रह्मा जी ने सूर्य के समान एक तेजपूर्ण चक्र उत्पन्न किया और मुनिजन से कहा कि, आप लोग इस चक्र के पीछे-पीछे जाएं, जिस स्थान पर इस चक्र की नेमि (धुरी) भूमिगत हो जाएगी वही भूमि आपके तप के योग्य होगी।
वेगपूर्वक घूमता हुआ वह चक्र समस्त लोगों में विचरण करता हुआ एक सरोवर युक्त सघन अरण्य के ऊपर जा पहुंचा और देखते ही देखते उस चक्र की नेमि वहीं उस सरोवर के मध्य शीर्ण हो गई। एक अन्य लोकमान्यता है। इसी स्थल पर भगवान श्री हरि विष्णु का सुदर्शन चक्र गिरने के कारण यहां विद्यमान सरोवर चक्रतीर्थ कहलाता है। खास बात यह है कि इस पाताललोक के अक्षय जल स्रोत से सतत जल आता रहता है।
गाथा महाबलिदानी दधीचि की
महर्षि दधीचि की अस्थिदान स्थली अपने अंचल में ऋग्वैदिक काल की एक अनूठी गाथा सहेजे हुए है। परम शिवभक्त महर्षि दधीचि ने यहीं देहदान किया था, जिनकी हड्डियों से वज्र (अस्त्र) बनाकर देवराज इन्द्र ने वृत्तासुर नामक अपराजेय असुर का अंत किया। पौराणिक कथानक है कि देवासुर संग्राम में विजयी देवताओं ने अपने दिव्यास्त्र महर्षि दधीचि के पास धरोहर के रूप में रख दिये थे। काफी समय बाद भी जब देवता उन्हें लेने नहीं आये तो दिव्यास्त्रों की सुरक्षा के दृष्टिकोण से महर्षि ने उन्हें जल से अभिमंत्रित कर जल को पी लिया, जिससे अस्त्र-शस्त्र तो निस्तेज होकर नष्ट हो गये मगर महर्षि की अस्थियां वज्रमय हो गयीं। कहते हैं कि उस काल में वृत्तासुर नामक अति बलशाली असुर का आतंक चहुंओर व्याप्त था। स्वर्ग के सिंहासन पर महासंकट की इस घड़ी में जब देवताओं को अपने दिव्यास्त्रों को याद आयी तो वे महर्षि दधीचि के पास उन्हें लेने पहुंचे।
जब देवताओं ने महर्षि को पूरी वस्तुस्थिति बतायी तो महर्षि ने अस्थिदान की उनकी याचना सहर्ष स्वीकार कर ली। तत्पश्चात अस्थिदान के लिए दधीचि ने उपर्युक्त भूमि की तलाश में पूरे देश का भ्रमण किया व मिश्रिख क्षेत्र को अपने मकसद के लिए सर्वाधिक उपयुक्त पाया। मिश्रिख आकर महर्षि दधीचि ने देवताओं के साथ फाल्गुनी अमावस्या से चौरासी कोस क्षेत्र की परिक्रमा की व यात्रा के समापन पर देशाटन के दौरान अपने कमंडल में लाये गये समस्त पावन तीर्थों के जल को यहां एक कुण्ड स्थापित कर उसमें डाला व उस कुण्ड में स्नान कर महर्षि ने अपनी अस्थियां देवताओं को दान कर दीं।
कहा जाता है कि महर्षि दधीचि की अस्थियां प्राप्त करने के बाद देवताओं ने उनसे साढ़े तीन वज्र अस्त्रों को निर्माण किया। पहला, ‘गाण्डीव’ जिससे महाभारत का युद्ध लड़ा गया दूसरा ‘पिनाक’ जो राम विवाह के समय जनकपुर में तोड़ा गया व तीसरा ‘सारंग’ जो जगत पालक भगवान श्री हरि विष्णु का धनुष है, और चौथ ‘आधा वज्र शक्ति’ देवराज इन्द्र को प्राप्त हुआ जिससे उन्होंने महाआंतकी अजेय असुर वृत्तासुर का वध करके देवलोक पर पुन: अधिकार प्राप्त किया। ल्ल
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