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पौराणिक काल से ही आर्यवर्त के इस भरतखंड में भारत और नेपाल की भूमि में साम्य रहा है। दोनों सहोदर हैं, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। अयोध्या के युवराज राम के बारात लेकर जनकपुर जाने और जनकसुता जानकी से ब्याह रचाने के बाद से यह नाता और गहरा गया। फिर लुंबिनी में बुद्ध के अवतरित होकर उन्हें बोधगया में ज्ञान प्राप्त होने के बाद रिश्तों में और प्रगाढ़ता आई। रोटी-बेटी का नाता यूं ही नहीं कहा जाता दोनों देशों के बीच। हिन्दू धर्म ने ऐसा बांधा है दोनों को कि, सीमा होते हुए भी रिश्ते असीम बने रहे। वहां पशुपतिनाथ हैं तो यहां केदार और विश्वनाथ, वहां बागमती है तो यहां गंगा, वहां जनकपुर है तो यहां अयोध्या। विराटनगर के राजा विराट के यहां ही तो पाण्डवों ने अपना अज्ञातवास पूरा किया था। हमारे धर्मग्रंथ समान हैं। वेद-पुराण वहां भी बांचे जाते हैं, कर्मकांड के तरीके भी एक से हैं। यही वजह है कि सदियों से भारत-नेपाल संबंधों में प्रगाढ़ता रही। हिन्दुओं में पारिवारिक नाते हैं तो वहां बौद्ध धर्म के अनुयायी भी यह बताने में कभी संकोच नहीं करते कि भारत उनकी गुरु-भूमि है।
नेपाल के राजा पृथ्वी नारायण शाह को हिंदू अधिपति कहा जाता था तो उसके पीछे एक खास कारण था। राजा पृथ्वी नारायण शाह ने हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार और संरक्षण में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। नेपाली राजवंश सनातनधर्मी था और उसके शासक धर्म-परिपालक। वहां राजशाही खत्म हुए एक अरसा हो चुका है। और इधर धीरे-धीरे नेपाल पर विधर्मी हावी होते दिखे। दुनिया का एकमात्र घोषित हिंदू राष्ट्र 'सेकुलर' हो गया। सत्ता दरककर माओवादियों के हाथों में क्या जाने लगी, चीन का ड्रेगन हरकत में आ गया और दुष्प्रचार की ऐसी आंधी बहाई जाने लगी कि तराई क्षेत्र में भारत-विरोधी तत्व पैर
जमाने लगे।
इधर भारत की तत्कालीन सरकारों और अंग्रेजीदां नीतिकारों ने 'छोटे से राष्ट्र' नेपाल के महत्व पर जानकारी और पश्चिम से अनुराग के चलते उतना ध्यान नहीं दिया जो रिश्तों में मिश्री घोलने का काम करता था। मिठास घटती दिखी, सरकारें अपने कारिदों के दबाव के आगे किंकर्तव्यविमूढ़ सी बनी रहीं, और रिश्तों में दिखती पहले-सी आतुरता कम होने लगी। लिहाजा, पिछले कुछ साल में नेपाल में जो गलत हो, उसके लिए भारत पर उंगली उठाने वाले तत्वों को शह मिलनी शुरू हो गई। लेकिन ये भारत और नेपाल के बीच प्राचीन सामाजिक-सांस्कृतिक और सभ्यता-मूलक संबंध ही हैं जो उस वातावरण को भेदने में कामयाब होते रहे हैं। इन्हीं संबंधों को और प्रगाढ़ करता एक दो दिवसीय सेमिनार नई दिल्ली के आजाद भवन सभागार में 6-7 फरवरी, 2017 को संपन्न हुआ। अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद, नीति प्रतिष्ठान (नेपाल) और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस सेमिनार में दोनों देशों के पूर्व राजनयिकों, इतिहासकारों, धर्म-गुरुओं, शिक्षाविदों, वरिष्ठ पत्रकारों, अध्ययनकर्ताओं, शोधार्थियों और समाजसेवियों ने इस बात पर मंथन किया कि दोनों देशों के बीच संबंधों में रुकावटें कहां और क्यों खड़ी होती हैं, कैसे इन रुकावटों को दूर करके रिश्ते में और मिठास घोली जाए।
6 फरवरी की सुबह सेमिनार का उद्घाटन करते हुए भारत में नेपाल के राजदूत श्री दीपकुमार उपाध्याय ने दोनों देशों के बीच संबंधों को और मजबूत बनाने पर बल दिया। नेपाल के वरिष्ठ चिकित्सक और समाजसेवी डॉ. सुन्दरमणि दीक्षित ने कहा कि दोनों देशों के बीच हिंदुत्व एक ऐसा सूत्र है जो दोनों को जोड़ता है। दोनों देशों के नागरिकों में आपस में प्रेम, सम्मान, सहिष्णुता होना जरूरी है। हमारा धर्म एक है इसलिए दोनों का ही कर्तव्य है कि अपने धर्म, संस्कृति को सुरक्षित रखें। अगर दोनों देशों के बीच मौजूदा खुली सीमारेखा बंद हो गई तो वह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन होगा। उन्होंने नेपाल में बढ़ते चर्च मिशनरियों पर चिंता जताई और कहा कि चर्च को भारी मात्रा में बाहर से धन मिलता है, लेकिन हिंदुत्व के कार्य के लिए कोई धन नहीं लगाता।
नेपाल बुद्धिस्ट फेडरेशन के उपाध्यक्ष आचार्य नोरबू शेरपा ने कहा कि नेपाल में कन्वर्जन जोरों पर है और निहित स्वार्थी तत्व धर्म के क्षेत्र में भी राजनीति कर रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर राजेश खरात ने दोनों देशों के बीच पीढि़यों से रहे संबंधों में कभी-कभी खटास पैदा होने पर चिंता जताई और कहा कि राजनीतिज्ञ बांटने का काम कर रहे हैं। उन्होंने भी नेपाल में चर्च की बढ़ती गतिविधियों का उल्लेख करते हुए बताया कि नेपाल के रमणीय पर्यटन स्थल पोखरा में आज मंदिरों से कहीं ज्यादा चर्च दिखते हैं। नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय के बुद्धिज्म विभाग के अध्यक्ष डॉ. काशीनाथ न्यौपाने ने कहा कि दोनों देश अगर छोटी-छोटी बातों पर आपस में उलझेंगे तो दोनों का नुकसान होगा। डॉ. न्यौपाने ने प्रज्ञापरमिता में वर्णित बुद्ध की वाणी की 16 पांडुलिपियां एकत्र करके उन्हें 3 खंडों में शतसहस्रिका नाम से प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया है, जिसमें से पहला ख्ंाड नेपाल में छपने को तैयार है, दूसरा खंड भारत में और तीसरा चीन में प्रकाशित किया जाना है। सत्र की अध्यक्षता कर रहे नेपाल के इतिहासकार और संस्कृतिविद् डॉ. रमेश कुमार ढुंगेल ने कहा कि नेपाल पर दक्षिण की तरफ से दबाव आने पर वह उत्तर की तरफ खिसकने लगा था। भारत और नेपाल में हिंदुत्व पर ईसाई खतरा मंडरा रहा है। चर्च का दमन जारी है। गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के डीन डॉ. आनंद सिंह ने कहा कि सम्राट अशोक ने भारत और नेपाल के बीच संबंध होने का एक विचार सामने रखते हुए बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी को उसका केन्द्र बताया था। उन्होंने बताया कि नेपाल में बुद्ध से जुड़े कितने ही तीर्थ हैं, जैसे होल्मा, सोलू, खुम्बू जिनके लिए लुंबिनी से अलग रास्ते हैं। काठमांडू घाटी सभी तीर्थों के केन्द्र का काम करती है। नेपाल के अखबार गोरखापत्र के पूर्व मुख्य संपादक वरिष्ठ पत्रकार कमल रिजाल ने कहा कि दोनों देशों को वेद-पुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथ सेतु बनकर जोड़ते हैं, दोनों देशों के लोगों के विधि-विधान, पूजा-अनुष्ठान एक से हैं, रीति-रिवाज और संस्कार एक जैसे हैं। हमारे तीर्थ स्थान समान हैं। तीर्थ हमारी परंपरा से जुड़े हैं और दोनों देशों को जोड़ने के सूत्र की तरह काम करते हैं। हमें इस सूत्र पर आंच नहीं आने देनी है।
लेडी श्रीराम कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर वसुधा पांडे का कहना था कि दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक, आध्यात्मिक संबंध रहे हैं। उन्होंने बताया कि प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, आज का उत्तराखंड, पश्चिमी नेपाल और पश्चिमी तिब्बत को मिलाकर मानस क्षेत्र बताया जाता है। इसके जरिए तीनों स्थानों का कारोबारी जुड़ाव था। ऐसे ही नाथपंथी परंपरा वाले मध्य और पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में महत्वपूर्ण कारोबारी मार्ग बनाते थे। हमें साझा संस्कृति के ऐसे सूत्रों को जोड़ना होगा।
इंटरनेशनल बुद्धिस्ट फेडरेशंस की नेपाल इकाई के अध्यक्ष फूफू छेम्बे शेरपा थुब्तीन जिक्डोल का कहना था कि नेपाल में बौद्ध धर्म से जुड़े अनेक तीर्थ हैं लेकिन उनके बारे में लोगों को उतना पता नहीं है, न ही सरकार लोगों को वहां जाने को प्रेरित करती है। वहां गाइड भी लोगों को अधकचरी जानकारी देते हैं। शेरपा थुब्तीन ने चिंता जताई कि तीर्थ स्थानों पर आज लोग अध्यात्म के कारण नहीं, बल्कि पर्यटन के लिए जाते हैं, जो गलत है। सत्र की अध्यक्षता कर रहे राज्यसभा के पूर्व सांसद बलबीर पुंज ने कहा कि परंपराएं तो दोनों देशों को जोड़ती हैं, लेकिन वर्तमान कहीं न कहीं तोड़ने का काम कर रहा है। हमें ऐसा नहीं होने देना है। हिंदू और बौद्ध सांस्कृतिक स्थलों का संरक्षण किया जाना चाहिए। हमें दीवारें खड़ी नहीं होने देनी हैं। राजनीति विवाद पैदा करने का काम करती है, इसके प्रभाव में नहीं आना है। उन्होंने कहा कि दोनों देशों के शिक्षा पाठ्यक्रमों में एक दूसरे के ऐतिहासिक स्थलों की जानकारी दी जानी चाहिए और सामाजिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक संस्थाओं को उनका प्रचार-प्रसार करना चाहिए। दोनों देशों के संबंधों में दूरियां पैदा करने की कोशिश में लगीं साम्राज्यवादी शक्तियों को पहचानकर उन्हें इससे दूर रखना होगा।
दो दिन के सेमिनार के विभिन्न सत्रों में अपने विचार रखने वाले अन्य विशिष्टजनों में प्रमुख थे नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. कुल प्रसाद कोईराला, राज्यसभा के पूर्व सदस्य श्री तरुण विजय और श्री बलबीर पुंज, जयपुर के साउथ एशिया स्टडीज सेन्टर के पूर्व निदेशक प्रो. भुवन उप्रेती, नेपाल के लुंबिनी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. त्रिरत्न मनन्धार, नेपाल संस्कृत विश्वविद्यालय सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. बेनी माधव ढकाल, नेपाल में भारत के राजदूत रहे श्री शिवशंकर मुखर्जी और श्री के. वी. राजन, नेपाल में किरात धर्म तथा साहित्य उत्थान परिषद के अध्यक्ष डॉ. चंद्र कुमार शेरमा, पूर्व राजदूत श्री शशांक और अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के महासचिव श्री श्याम परांडे।
इसमें संदेह नहीं कि इस तरह के सेमिनार आपसी सौहार्द तो बढ़ाते हैं, लेकिन इनमें चर्चा में आने वाली चुनौतियों और समाधान पर गंभीरता से काम किया जाए तो दोतरफा रिश्तों में गर्माहट बनी रहेगी।
-आलोक गोस्वामी
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