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देश के सवार्ेच्च फिल्म सम्मान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित मनोज कुमार हिंदी सिनेमा के ऐसे कलाकार हैं जिनका नाम देशभक्ति फिल्मों के अभिनेता के रूप में ही नहीं, बल्कि ऐसी फिल्मों के निर्माता-निर्देशक के रूप में भी जाना जाता है। उनकी फिल्मों में आए देशभक्ति के गीत आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं जितने बरसों पहले थे। यहां तक कि उनकी देशभक्ति पूर्ण फिल्में भी समाज के उन पहलुओं को दर्शाती हैं जिन्हें अपने आसपास कहीं भी देखा और महसूस किया जा सकता है। जैसे उनकी कालजयी फिल्म 'उपकार' जबकि उनकी बनाई 'रोटी, कपड़ा और मकान','पूरब और पश्चिम, 'शोर' और 'क्रांति' जैसी फिल्मों ने समाज के विभिन्न वगार्ें के ऐसे अनेक रंग दिखाए जो बरसों बाद आज भी फीके नहीं पड़े। 'पूरब और पश्चिम' में मनोज ने देश की माटी की भीनी खुशबू, अपनी संस्कृति, विरासत और परंपराओं के साथ देश से प्रतिभा पलायन की जो तस्वीर प्रस्तुत की थी, वह जन-जन को बहुत कुछ सोचने पर विवश कर गई, जबकि सिर्फ एक अभिनेता के रूप में आई मनोज कुमार की यादगार, बेईमान, दो बदन, नील कमल, गुमनाम, पत्थर के सनम, हरियाली और रास्ता और हिमालय की गोद समाज और उससे जुड़े मुद्दों पर बहुत कुछ कहती हैं। यह बात अलग है कि अपनी फिल्मों से लोगों के मन में देशभक्ति की अलख जगाए रखने वाले मनोज पिछले कई बरसों से फिल्म निर्माण और अभिनय से दूर हैं। लेकिन फिल्म संसार में आज भी देश-दुनिया में क्या हो रहा है, इन दिनों कैसी फिल्में बन रही हैं और दर्शकों का झुकाव आज किस ओर है, इस सबकी खबर 79 बरस के मनोज कुमार बहुत अच्छे से रखते हैं और पुराने सभी अफसाने उन्हें शब्द दर शब्द ज्यों के त्यों याद हैं। दिग्गज फिल्मकार मनोज कुमार से प्रदीप सरदाना ने विस्तृत बातचीत की, जिसके प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं
आप फिल्मों में आने से पहले से ही फिल्मों के इतने शौकीन रहे कि जी भर फिल्में देखते थे। फिल्मों में आने के बाद और फिर फिल्मों में काम न करने पर भी आप फिल्में देखने के तत्पर रहे। अस्वस्थता के बावजूद आप आज भी फिल्में देखते रहते हैं। आपको समाज पर फिल्मों का कितना प्रभाव दिखता है?
फिल्मों के समाज पर प्रभाव की बात को देखा जाए तो इस सब पर अंदाज लगाना थोड़ा मुश्किल है। हां, कुछ उदाहरण देखें तो उससे साफ होता है कि फिल्मों का समाज पर प्रभाव अलग दिखता है, चाहे कहीं कम, चाहे कहीं ज्यादा। इसके लिए मैं अपनी एक फिल्म 'उपकार' की मिसाल देना चाहूंगा। जब 1967 में यह फिल्म प्रदर्शित हुई तो उसके कुछ दिन बाद मैंने एक सुबह अपने घर के बाहर झांका तो देखा, एक लड़का बरसात में भीगता हुआ खड़ा था। मैंने अपने दरबान को बुलाकर पूछा कि ये लड़का कौन है? दरबान ने बताया, यह सुबह चार बजे से यहां आया हुआ है और कहता है कि उसके पिताजी आपसे मिलना चाहते हैं। मैंने कहा ठीक है, उसे दोपहर बाद रूपतारा स्टूडियो भेज दो, मैं वहां फिल्म की शूटिंग कर रहा हूं। दोपहर बाद वह लड़का अपने पिताजी के साथ वहां पहुंच गया। स्टूडियो में मेरे साथ राज कपूर और निर्देशक मोहन सहगल भी बैठे थे। उसके पिता ने पीली राजस्थानी पगड़ी पहनी हुई थी। वे मेरे पास आए, हाथ जोड़े और चल दिए। मुझे अजीब लगा कि कुछ बात ही नहीं की और चल पड़े। मैंने बुलाकर पूछा आप कौन हैं, कहां से आए हैं? उन्होंने कहा, मैं राजस्थान से आया हूं और गेहंू का व्यापारी हूं। मैं गेहूं की कालाबाजारी करता था, लेकिन आपकी फिल्म ने मेरी आंखें खोल दीं। मैंने अब कालाबाजारी का काम छोड़ दिया है। इसलिए बस आपके दर्शन के लिए आया था। मुझे कुछ और नहीं कहना।
फिल्म के संबंध में कोई ऐसी बात बताएं, जो आपने अपने किसी सहकर्मी में देखी हो।
(हंसते हुए) हां, ऐसी एक घटना मुझे 'उपकार' फिल्म की शूटिंग के दौरान की ही याद आ रही है। शूटिंग में हमारे साथ एक लड़का काम करता था। वह हर समय मेरे साथ रहता था। यहां तक कि कोई छुट्टी वगैरह भी नहीं लेता था। मैंने एक दिन उससे कहा कि क्या बात है, तुम इतना काम करते हो, कभी आराम भी कर लिया करो। वह बोला, आपके साथ काम करते हुए आराम की जरूरत महसूस नहीं होती। असल में यह जिंदगी आपकी है। मैंने अचरज भरी नजरों से उसे देखा कि यह क्या कह रहा है। वह मेरे भाव पहचानते हुए बोला साहब मैं तो एक दिन जिंदगी से तंग आकर आत्महत्या करने चला था। मैंने मरने से पहले सोचा कि कहीं खाना खा लेता हूं, भूखे पेट तो न मरूं। रात का समय था। मुझे वहां एक ढाबा दिखाई दिया। मैं वहां खाना खाने बैठा तभी रेडियो पर आपकी फिल्म 'रेशमी रूमाल' का एक गाना बजने लगा- गर्दिश में हो तारे, तो मत घबराना प्यारे, गर तू हिम्मत न हारे, तो होंगे वारे न्यारे। इस गीत को सुनकर मुझमें इतनी हिम्मत आ गई कि मैंने आत्महत्या करने का इरादा बदल दिया।
अपनी किसी फिल्म से जुड़ी कोई और ऐसी घटना जिससे लोग प्रभावित हुए हों!
'पूरब और पश्चिम' के दौरान तो मुझे बहुत-सी अच्छी बातें सुनने को मिलीं, जिन्हें सुन और देखकर मुझे लगा कि मेरा फिल्म बनाना सार्थक हो गया। एक बार मुझे कुछ ऐसे डॉक्टर मिले जो भारतीय थे और विश्व के शिखर के प्लास्टिक सर्जन के रूप में जाने जाते थे। उनमें से एक डॉक्टर ने मुझे बताया कि फिल्म 'पूरब और पश्चिम' जब आई तब वे अमेरिका में काम कर रहे थे। यह फिल्म देखी तो हम 10 डॉक्टरों ने मिलकर यह फैसला लिया कि अब हम अमेरिका में नहीं रहेंगे और अपने देश लौट चलेंगे और कुछ दिन बाद हम भारत वापस आ गए। उन दिनों ऐसे बहुत लोग मिलते थे जो बताते थे कि उनके घरों में आरती करने की पुरानी परंपरा खत्म हो चली थी, लेकिन 'पूरब और पश्चिम' में गाई गई आरती 'ओम जय जगदीश हरे' के मधुर स्वर सुनकर घरों में आरती फिर से शुरू हो गई। ऐसी ही एक घटना 'यादगार' फिल्म के बाद की भी याद आ रही है। एक दिन मेरी कार मुंबई में बांद्रा सर्किल पर ट्रैफिक के कारण रुकी तो एक लड़का भागता हुआ आया और मुझसे बोला कि वह पहले भीख मांगता था, लेकिन 'यादगार' देखने के बाद अब वह मजदूरी करके ही पेट भरता है।
एक फिल्मकार के रूप में या फिर एक दर्शक के रूप में भी आपकी नजर में ऐसी कौन-सी फिल्म ज्यादा अच्छी है, जो समाज पर अपना प्रभाव छोड़ने में अधिक सफल रही?
मेरी नजर में 'दो आंखें बारह हाथ', 'दो बीघा जमीन', 'गंगा-जमुना', 'मदर इंडिया', 'झनक झनक पायल बाजे' के साथ जेमिनी स्टूडियो की 'गृहस्थी', 'मिस्टर संपत' और राज कपूर की 'आवारा' जैसी फिल्में सर्वश्रेष्ठ सामाजिक फिल्में हैं। यूं एवीएम ने भी कई अच्छी सामाजिक फिल्में बनाई हैं। और गुरु दत्त की 'प्यासा' के तो कहने ही क्या हैं ज़ो यह संदेश भी देती है कि ये दुनिया मुझे मिल भी जाए तो क्या है!
राजनीति और अभिनय में करीब के संबंध रहे हैं। आपका क्या अनुभव रहा?
मोदी जी को मैं 1982 से जानता हूं। एक चुनाव अभियान के दौरान उनसे मेरी मुलाकात हुई थी। तब की उनके साथ मेरी एक फोटो भी है। मैं अटल बिहारी वाजपेयी जी को भी काफी पहले से जानता हूं, आडवाणी जी को भी। लाल बहादुर शास्त्री जी के तो कहने पर ही मैंने 'उपकार' बनाई थी। इधर मोदी जी से उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद तो मुलाकात नहीं हो सकी है, लेकिन वे अच्छा काम कर रहे हैं। वे जमीन से जुड़े व्यक्ति रहे हैं। इसीलिए वे सभी समस्याओं को जानते हैं और उनको हल करने के तरीके भी उन्हें पता है। उनके कुछ कामों के अच्छे परिणाम आने लगे हैं और कुछ के अभी आएंगे।
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