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अपने जीवन से महका गए संघ-उपवन

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Jan 24, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 24 Jan 2017 16:21:24

अपने जीवन में एक निश्चय करना एवं उसे जीवनभर निभाना ही व्रत कहलाता है। उस व्रत को ऐसे निभाना कि जीवन अनुकरण करने की प्रेरणा बन जाए, सोहन सिंह जी के जीवन का सार यही है। विभिन्न कार्यकर्ताओं के ऐसे ही लेखों, अनुभवों, पत्रों के संपादन से सुसज्ज गोपाल शर्मा कृत पुस्तक है 'महाव्रती कर्मयोगी प्रचारक सोहन सिंह'।

संघ में डा़ॅ हेडगेवार को स्वयंसेवक व प्रचारक के आदर्श के रूप में देखा जाता है। सोहन सिंह जी का पूरा प्रचारक जीवन डॉक्टर जी के अनुकरण का ऐसा उदाहरण रहा कि सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने उनके बारे में लिखा है, ''सोहन सिंह जी के बारे में हमारे मन में श्रद्धा है, प्रेम है। उनके जीते-जी उनकी आंखों को देखकर हम अनेक बातें ठीक कर लेते थे। उनके आचरण के कारण यह धाक थी उनकी। संघ के प्रचारक को कैसा जीवन जीना चाहिए, संघ के कार्यकर्ता को कैसे काम करना चाहिए, संघ के कार्यकर्ता का स्नेह कैसा होना चाहिए, संघ के कार्यकर्ता की कठोरता भी कैसी होनी चाहिए, सबके वे आदर्श उदाहरण थे। एक वाक्य में उनका परिचय देना हो तो-वे डा़ॅ हेडगेवार कुलोत्पन्न थे।'' नाम, पद, प्रतिष्ठा से दूर रहना ही एक प्रचारक के लिए आदर्श विचार, व्यवहार रहता है। जीवनभर ऐसा ही आचरण करने वाले सोहन सिंह जी के जीवन के बारे में इतनी सामग्री जुटाकर और उसे पुस्तकाकार रूप में प्रस्तुत कर श्री गोपाल शर्मा ने प्रशंसनीय परिश्रम किया है। पुस्तक पढ़ते समय जहां एक ओर सोहन सिंह जी की महानता, कर्मठता, स्वयं के प्रति कठोरता और अन्यों के प्रति अतिशय स्नेह का पग-पग पर भान होता है, वहीं हम भी ऐसा जीवन जी सकें, यह इच्छा भी जगती है। यही पुस्तक का उद्देष्य भी

रहा होगा।

हर संवेदनशील हृदय को उद्वेलित, झंकृत और क्रियाशील करने में सक्षम सोहन सिंह जी के जीवन-उपवन की सुगंध से इस पुस्तक को बखूबी सुवासित किया गया है। उसकी कुछ झलक देखना नि:संदेह उपयोगी रहेगा।

सम्पूर्ण देश एक है, समाज एक है। मन में अलगाव का नहीं अपितु एकता का ही चित्र जिसके मानस में है, इस तरह का जिसने अपना विचार बनाया है वही ध्येयवादी स्वयंसेवक है। क्या ध्येयवादी स्वयंसेवक ऐसा ही रहेगा या उसमें बदलाव आएगा? क्या उसकी दृष्टि इतनी व्यापक होगी कि वह सम्पूर्ण समाज को एक मानकर चले? इतने ध्येयवादी स्वयंसेवक का विकास होना चाहिए। (सोहन सिंह जी के विचार, पृ़ 34-35) विद्याभारती के एक समारोह में उन्होंने श्री गुरुजी का उल्लेख किया कि, 'क्या तुम भी बोलने वालों की पंक्ति में ही रहोगे या कुछ करोगे भी? तुम्हारे मस्तिष्क में शिक्षा प्रणाली की जो तस्वीर है, उसको प्रस्तुत करने की उमंग हो तो जाओ, उसको साकार रूप दो। बोलने मात्र से कुछ नहीं होगा।' (पृ़ 40-41) पश्चिम के प्रभाव के संदर्भ में बोलते हुए एक बार उन्होंने कहा, ''विचार करें कि क्या आपने संगठन की जिम्मेदारी स्वेच्छा से और सच्चे हृदय से स्वीकार की है या नहीं? आप जिस खानदान के कार्यकर्ता हैं, उसकी एक महान पहचान है। लोग आपको एक विशेष दृष्टि से देखते हैं। परन्तु आप पर भी वर्तमान साहित्य और मीडिया का प्रभाव परिलक्षित होता है। हम पश्चिमी सोच के वशीभूत रंगमंचीय कार्यक्रमों को भी सांस्कृतिक कार्यक्रमों की संज्ञा देने लगे हैं। इसी प्रकार, हमारी भाषा पर भी पश्चिम का प्रभाव दिखाई देता है। 'योग' को 'योगा' और 'कर्नाटक' को 'कर्नाटका' कहना क्या हमारे लिए उचित है?'' (पृ़ 41) सीमा जनकल्याण समिति, राजस्थान के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए 1995 में उन्होंने कहा, ''किसी भी संगठन की सबसे ज्यादा सही जानकारी उस संगठन के कार्यकर्ता से होती है। कार्यकर्ता की सोच, विचार, आचरण, व्यवहार, तौर-तरीका, हर छोटी-बड़ी बात देखकर लोग अंदाजा लगा लेते हैं कि संगठन कैसा होगा? हमारा संगठन सीमा क्षेत्र का संगठन है तो इसका कार्यकर्ता सीमा क्षेत्र में रहने वाली सभी बिरादरियों को जोड़ने वाला हो, उसके मुंह से कभी इस प्रकार की बात नहीं निकलेगी, जिसमें किसी जाति के प्रति ईर्ष्या, मतभेद, जलन अर्थात् तोड़ने की बात झलकती हो। जोड़ने का काम, संगठन का काम करना है तो गुस्सा छोड़ना पड़ेगा। इतना ही नहीं, जब व्यक्ति देश और समाज का काम करने के लिए निकलता है तो स्वयं की इज्जत-बेइज्जती की चिंता नहीं करनी चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण के कायार्ें से हमें प्रेरणा लेनी होगी। इसी क्षेत्र के दुर्गादास राठौड़ का श्रेष्ठ उदाहरण हमारे सामने है, जिन्होंने देश-निकाला दिए जाने पर भी यही कहा कि कभी भी मारवाड़ को मेरी जरूरत पड़े तो बुला लेना।''(पृ़ 45)

उपर्युक्त विचार केवल उस संबंधित संगठन के कार्यकर्ताओं या मात्र उस समय के लिए ही नहीं है, वरन् सभी कार्यकर्ताओं के लिए व सार्वकालिक हैं, यह सभी पाठकों के ध्यान में अवश्य आया होगा। श्री अशोक सिंघल उनके योगदान को इस प्रकार स्मरण करते हैं, ''कोई सामान्य व्यक्ति इस प्रकार के कार्यकर्ताओं को नहीं गढ़ सकता। कठोर जीवन और संगठन के लिए सरल स्वभाव, यह उनके द्वारा निर्मित कार्यकर्ताओं में स्पष्ट दिखाई देता था।''       (पृ़ 51) अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख डॉ. मनमोहन वैद्य लिखते हैं, ''आयु में बड़ा अंतर होने के बाद भी एक 20-22 वर्ष का प्रचारक यह कहता है कि मैं अपने मन की बात खुलकर सोहन सिंह जी से कर सकता हूं। मन की गांठें सहज ही जहां खुल जाएं, ऐसा उनका व्यक्तित्व था।'' (पृ़ 55)

जन-जागरण के नाते ऐतिहासिक स्थलों का विशेष महत्व है। ऐतिहासिक स्थलों पर महापुरुषों का स्मरण ही राष्ट्र-जागरण का हेतु होने के कारण उनके विकास, जीणार्ेद्धार पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इस विषय में सोहन सिंह जी की क्या दृष्टि थी, उसे रेखांकित करते हुए अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख श्री सुरेशचन्द्र लिखते हैं, ''वे बार-बार कहते थे कि इन ऐतिहासिक स्थलों को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित न किया जाए, बल्कि वे श्रद्धा-केंद्र बनें। उन्होंने तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री जगमोहन जी से वार्ता करके चित्तौड़ किले, हल्दीघाटी और कुम्भलगढ़ के लिए राशि स्वीकृत करवाई। अजमेर में पृथ्वीराज चौहान का स्मारक बनवाया। अपने प्रयत्नों व प्रेरणा से राजा दाहिर सेन का स्मारक, लव-कुश गार्डन बनवाया। जोधपुर में दुर्गादास राठौड़ की प्रतिमा लगवाई गई, उदयपुर में चावंड-हल्दीघाटी क्षेत्र का पुनरुद्धार हुआ। उदयपुर में प्रताप गौरव केंद्र की स्थापना उन्हीं की कल्पना का मूर्त रूप है। सोहन सिंह जी ने एक-एक ऐतिहासिक स्थल का ध्यान करके प्रमुख कार्यकर्ताओं का चयन किया, उन्हें दृष्टि दी और इस तरह काम को आगे बढ़ाया गया।'' (पृ़ 60)

गुजरात के राज्यपाल ओमप्रकाश कोहली उस समय को याद करते हैं जब वे दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष थे, ''विधानसभा चुनाव सिर पर थे और प्रदेश की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। सोहन सिंह जी ने पूछा कि 'फिर क्या सोचा है?' राष्ट्रीय अध्यक्ष को एक करोड़ रुपए की राशि की थैली भेंट करने का निर्णय किया है, पर धन-संग्रह करने में समर्थ नेता उदासीन-से हैं। सुनकर वे क्षणभर रुके और फिर बोले, 'गिने-चुने बड़े लोगों पर निर्भर रहने की बजाय मझले और छोटे कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास जगाना चाहिए।' मुझे एक नई दिशा सूझी और मध्यम व छोटे कार्यकर्ताओं को धन-संग्रह के लिए प्रेरित करना प्रारंभ किया। तालकटोरा स्टेडियम में जब राष्ट्रीय अध्यक्ष को थैली भेंट करनी थी, तब तक प्रदेश के कोष में एक करोड़ उन्नीस लाख रुपए जमा हो चुके थे। इसके मूल में सोहन सिंह जी की सुझाई हुई दृष्टि ही थी।'' (पृ़ 63)

उनकी कार्यशैली के बारे में क्षेत्रीय प्रचारक श्री प्रेमकुमार लिखते हैं, ''वे अपनी घोर पीड़ा और वेदना की चर्चा भी किसी से नहीं करते थे। इसकी बजाय दूसरों के प्रति ही ज्यादा चिंतित दिखाई देते थे। जाते ही पूछते, 'कहां से आ रहे हो? भोजन हो गया क्या? सर्दी में गरम कपड़े पर्याप्त पहने हैं कि नहीं? अपना ख्याल रखते हैं न, इत्यादि-इत्यादि। मिलने वाले कार्यकर्ता से तादात्म्य स्थापित करते, संबंधित क्षेत्रों में संघ-कार्य के बारे में जानकारी प्राप्त करते और आवश्यक सुझाव भी देते।'' (पृ़ 67) दिल्ली के सह प्रांत संघचालक श्री आलोक कुमार उनके जीवन को याद करते हुए निज के लिए जिम्मेदारी का एहसास कुछ इस प्रकार करते हैं, ''सोहन सिंह जी के जाने से उस पीढ़ी के लोगों को हम अब प्रत्यक्ष नहीं देख पाएंगे। अब हम पर भी जिम्मेदारी है कि कुनबा संभालें, बढ़ाएं। जहां तक वे संघ को पहुंचा गए हैं, उससे आगे ले चलें।'' (पृ़ 76)

1994 में दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री के रूप में प्रारंभ किये गए पोलियो उन्मूलन अभियान के संदर्भ में डॉ. हर्षवर्धन कहते हैं, ''सोहन सिंह जी के सुझावों पर अमल करते हुए ही कुछ वषोंर् बाद 'कहानी दो बूंदों की' एवं 'ए टेल ऑफ टू ड्रॉप्स' (हिंदी व अंग्रेजी) का मैंने लेखन किया। इन पुस्तकों ने भारत के पोलियो उन्मूलन अभियान के संघर्ष और सफलताओं को विश्व-पटल पर प्रसारित किया, भारत के गौरव को बढ़ाया। यह श्री सोहन सिंह जी की ही दूरदर्शिता थी।'' (पृ़ 80) नियमपालन हर परिस्थिति में करना ही चाहिए, इसे स्मरण करते हुए राजस्थान के क्षेत्र प्रचारक श्री दुर्गादास लिखते हैं, ''कारसेवकों को क्या-क्या तैयारी, सावधानी रखनी चाहिए, इस पर विचार चल रहा था। एक कार्यकर्ता के मत से कि 'राम टिकट ही काफी है', बाकी भी सहमत थे। राम टिकट अर्थात् टिकट की जरूरत नहीं। सुनकर सोहन सिंह जी की भाव-भंगिमा उग्र होती जा रही थी। उन्होंने कड़कते स्वर में कहा, 'प्रत्येक कारसेवक को टिकट लेकर ही बस या रेल में बैठना है।' यही हुआ। अयोध्या जाने वाला प्रत्येक रामभक्त टिकट लेकर ही रेल या बस में बैठा।'' (पृ़ 85)

श्री राजकुमार भाटिया सोहन सिंह जी की विशेषता कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं, ''व्यक्तिगत संपर्क, संबंध और संवाद के माध्यम से वे स्वयंसेवक के जीवन में गहरे उतर जाते थे, जिसके आधार पर वे उसके मार्गदर्शक बनकर उसे एक अच्छा कार्यकर्ता बना देते थे। स्वयंसेवक से धैर्यपूर्वक पूरा संवाद स्थापित करना, उसका विश्वास अर्जित करना, बिना थोपे उससे अपनी बात मनवा लेना उनकी विशेषता थी।'' (पृ़ 88) श्री मोहनलाल रुस्तगी ने उनकी कर्मठता को ऐसे व्यक्त किया है, ''दिल्ली के पीरागढ़ी में 1967 में लगे संघ-शिविर से अधिकांश स्वयंसेवक स्थान छोड़ चुके थे। मैं किसी कारण से अपने आवास से बाहर निकला तो देखा कि सोहन सिंह जी एक बल्ली कंधे पर उठाए जा रहे हैं। मैंने दौड़कर उनका हाथ पकड़ लिया और कहा कि आप बल्ली छोड़ दें, हम रख आएंगे। उनका हाथ तप रहा था। 102 डिग्री बुखार था। मैं शर्म से लज्जित हो गया। बड़ी मुश्किल

से उनको उनके आवास में भेजा।''

(पृ़ 100-101)

26 जनवरी, 1963 की गणतंत्र दिवस परेड के संदर्भ में अ़ भा़ गोसेवा प्रमुख श्री शंकरलाल बताते हैं कि वे सबका ध्यान रखते थे। अडिगता के साथ घोष के साथ स्वयंसेवक संचलन करते हुए निकले तो उपस्थित जनसमूह ने उत्साहपूर्वक तालियां बजाकर स्वागत किया। यह सोहन सिंह जी की दृष्टि ही थी कि उन्होंने सुबह ही ड्राईवर-कंडक्टरों के अल्पाहार की व्यवस्था कर दी थी। कार्यालय पर उनके लिए दही-परांठे तैयार करवाए गए। इस कारण वे स्वयंसेवकों का आखिर तक इंतजार करते रहे, जबकि अन्य समूहों के बहुत से बस चालक बीच में ही बसें लेकर वापस चले गए।'' (पृ़ 103)

कैलाश नगर की शाखा पर पहुंचने में मौसम के कारण 2-3 मिनट का विलंब हुआ, ऐसे में समय पालन संबंधी एक घटना का डॉ़ हेमेन्द्र राजपूत स्मरण करते हैं, ''मुख्य शिक्षक ने कहा, 'आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे।' तपाक से सोहन सिंह जी ने कहा, 'मेरे लिए शाखा लगाते हो या संगठन के लिए?' उस दिन शाखा में उन्होंने समय पालन का ही विषय लिया और प़ पू़ डाक्टर जी के समय पालन एवं श्री गुरुजी के हर जगह समय पर पहुंचने का उदाहरण दिया।'' (पृ़ 149) गोपाल आर्य 30 वर्र्ष बाद भी इस घटना को भूले नहीं हैं, ''1984 में मेरा पूरा शरीर 104 डिग्री ताप से तप रहा था। शरीर में तेज दर्द हो रहा था। प्रवास से आने पर सोहन सिंह जी को पता चला तो तुरंत मेरे पास आकर पानी की पट्टी करने लगे और हाथ-पैर दबाने लगे। मुझे उनके स्नेहिल स्पर्श से अत्यंत आत्मीय अनुभूति हुई।'' (पृ़171) राजस्थान के रामेश्वर भारद्वाज के स्मरण में, ''कार्यकर्ताओं से व्यक्तिगत सम्पर्क रखकर उनकी व्यक्तिगत समस्याओं एवं पारिवारिक स्थितियों की जानकारी लेकर उनका समाधान करना भी सोहन िांह जी की बातों का हिस्सा होता था। 10 मिनट की बात में 8 मिनट तक पारिवारिक एवं व्यक्तिगत वार्ता करके मात्र 2 मिनट में अपनी योजना भी समझा देते थे। उस वार्ता से हमारे अंदर ऊर्जा शक्ति का संचय हो जाता और हम अपने कार्य के लिए दुगुने जोश से जुट जाते, उनके वे शब्द आज भी प्रेरणा देते रहते हैं।'' (पृ़ 179)

 

जयपुर के वरिष्ठ पत्रकार प्रताप राव दिग्दर्शक कमांडर को इन शब्दों में सैल्यूट करते हैं,''मेरा जब राजस्थान पत्रिका में चयन हुआ, उन्हें पता चला तो उन्होंने बुलाया और कहा, 'आजकल पत्रकार पढ़ते नहीं हैं। तुम ऐसा मत करना। अध्ययन नियमित होना चाहिए।' एक सूची भी बनवाई, कौन-सी पुस्तक किसलिए पढ़नी चाहिए। कुछ पुस्तकें अपनी ओर से भी दीं। यह सोहन सिंह जी का बिल्कुल अलग रूप था। मुझे कल्पना भी नहीं थी। बोले, 'इस क्षेत्र में नकारात्मकता बहुत है। तुम्हारी जिम्मेदारी ज्यादा है। माहौल बनाने के लिए बहुत परिश्रम करना होगा। अपना उदाहरण बनाना होगा कि लोग इस क्षेत्र में आगे बढ़ें। उनका सहयोग जरूर करना।'' (पृ़ 181) लगभग 35 वर्ष सोहन सिंह जी की सेवा में रहे केशवकुंज के श्री दयाशंकर के उद्गार, ''बीमारी के दौरान डाक्टर उन्हें खाने-पीने में कुछ परहेज बताते थे तो वे कहते थे, 'फिर क्या खाऊं, हर चीज तो मना कर रहे हो।' फिर कहते, 'जो भी बताना है, दयाशंकर को बताओ। वही जाने, क्या खिलाएगा और क्या नहीं।' वे अपने कमरे को भी साफ नहीं करने देते थे। खुद ही करते थे। कभी विशेष सफाई की जरूरत होती थी तो उनके सोने के बाद चुपचाप उनके कमरे में जाता था और सफाई कर देता था। सफाई के दौरान कभी वे जाग जाते थे तो गुस्सा करते थे। फिर कुछ देर बाद पुचकारते भी थे। घर-द्वार, माता-पिता, बाल-बच्चे, सबके बारे में पूछते थे। वे मेरे सुख-दु:ख का भी ख्याल रखते थे।'' (पृ़ 188) विहिप के विनोद बंसल कण-कण के सदुपयोग को इस प्रकार याद करते हैं, ''एक दिन भोजनालय में अल्पाहार में नमकीन रोटियां (रात की बची रोटियों को फ्राई करके) बनी थीं, जो बहुत स्वादिष्ट लगीं। पूछने पर महाराज ने बताया कि सोहन सिंह जी का कहना है कि देश में करोड़ों लोग हैं, जिन्हें एक बार का खाना भी नहीं मिल पता। अत: अन्न के एक-एक कण का सदुपयोग करना चाहिए।'' (पृ़ 203)                                                                            

पुस्तक में कुछ पुनरावृत्तियों को टाला भी जा सकता था। कुछ कार्यकर्ताओं का परिचय देने में त्रुटियां रह गई हैं, उनकी ओर सावधानी रखना और अच्छा रहता, क्योंकि सोहन सिंह जी निदार्ेष काम करने तथा कराने के पक्षधर ही नहीं थे, वरन् उसके लिए प्रयत्नशील भी रहते थे। लेखक श्री गोपाल शर्मा ने ठीक ही लिखा है,''सोहन सिंह जी की प्रसिद्धि-पराङ्गमुख प्रवृत्ति के कारण उनके जीवन से संबंधित अनेक पहलू अप्राप्त ही रह गए हैं। यह पुस्तक इस दिव्य जीवन का सांगोपांग दर्शन नहीं कराती, पर असंख्य कार्यकर्ताओं के जीवन में पाथेय बन गए उनके अनुभवों को तो बताती ही है। उनके द्वारा रखे गए आदशार्ें का अनुसरण अति सामयिक है, राष्ट्रनिर्माण के संकल्प के लिए प्रेरणा है।'' प्रभात प्रकाशन ने भी उद्बोधक, संस्कारक्षम और उत्कृष्ट प्रकाशन की अपनी परंपरा को बनाए रखते हुए न

केवल सुंदर कलेवर प्रदान किया है, वरन् सजिल्द के साथ-साथ पेपरबैक संस्करण भी छापकर सभी प्रकार का पाठकों के लिए

सुलभ कराया है।     किशोर कांत   

पुस्तक का नाम : 'महाव्रती कर्मयोगी प्रचारक सोहन सिंह'

लेखक             : श्री गोपाल शर्मा

पृष्ठ : 288,     मूल्य : 400 रु.

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन, 2/19, आसफ अली रोड, नई दिल्ली-110002

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