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अधिक समय नहीं बीता है अभी। याद कीजिए, 2008 में बीजिंग ओलंपिक की वह महान घड़ी जिसमें सुशील कुमार एक धूमकेतु के रूप में उभरे। सुशील ने कांस्य पदक जीत एक नई परंपरा की शुरुआत की, और आज न केवल वह परंपरा कायम है, बल्कि उसकी वजह से भारतीय खेल जगत में बहार आ गई है। जी हां, हम बात कर रहे हैं भारतीय कुश्ती की। वही कुश्ती, जो गुमनामी में खो जाने के कगार पर थी। पर, आज वही खेल सुर्खियों में जगह बना रहा है। भारतीय कुश्ती की धूम चारों ओर मची हुई है। कुश्ती पर आधारित फिल्म 'सुल्तान' और 'दंगल' के आने के बाद राजधानी दिल्ली में चल रही पेशेवर कुश्ती लीग भारतीय खेलप्रेमियों के दिलो-दिमाग पर छायी हुई है।
कुश्ती की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता इस खेल के सुनहरे भविष्य की ओर संकेत करती है। इसके पीछे कई कारण हैं। पहला, कुश्ती में युवा पहलवानों की एक लंबी कतार दिख रही है। 'म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के?', फिल्म 'दंगल' का यह डायलॉग इन दिनों युवाओं की जुबान पर चढ़ गया है। भारतीय कुश्ती के सुनहरे भविष्य का तीसरा पहलू है; 5, 10, 21 या 51 रुपए के लिए कुश्ती लड़ने वाले पहलवान अब लाखों-करोड़ों रुपए के लिए कुश्ती लड़ते हैं। यानी, युवाओं ने कुश्ती में कैरियर बनाने की ओर कदम बढ़ा दिए हैं। इन सबसे अलग, देश में महिला पहलवानों के सफलता के शिखर तक पहुंचने के सफर को हर कोई सलाम कर रहा है। साक्षी मलिक ने रियो ओलंपिक में ऐतिहासिक सफलता हासिल कर कुश्ती के सुनहरे भविष्य की ओर पहला कदम बढ़ा दिया है।
सुशील ने दिखाई राह
सुशील के गुरु महाबली सतपाल का मानना है, ''सुशील ने 2008 बीजिंग ओलंपिक में कांस्य पदक जीतकर भारतीय कुश्ती में एक नई जान फूंक दी। उन्होंने देश को कुश्ती में 56 साल बाद (1952 में हेलसिंकी ओलंपिक में के डी. जाधव ने कुश्ती का पहला पदक जीता था) ओलंपिक पदक दिलाया। यह वह दौर था जब खेलप्रेमियों का कुश्ती से भरोसा तकरीबन उठ सा गया था, लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मैंने सुशील और योगेश्वर के साथ मेहनत जारी रखी क्योंकि इन दोनों में ओलंपिक स्तर पर पदक जीतने का माद्दा था। अंतत: अथक परिश्रम व प्रतिभा के दम पर इन दोनों ने ओलंपिक में पदक जीतकर न केवल देश का नाम रोशन किया, बल्कि आने वाली पीढ़ी में विश्वास भी जगाया कि ईमानदारी से मेहनत की जाए तो ओलंपिक पदक भी जीता जा सकता है।''
वैसे भी, कुछ साल पहले तक पहलवानी का लक्ष्य खेल में सफलताएं हासिल करना कम, बाहुबल दिखाना ज्यादा था। नतीजतन ज्यादातर जगहों पर अखाड़े वीरान से रहे। युवा खिलाड़ी कुश्ती को कैरियर बनाने से कतराते थे। लेकिन, दिल्ली व आसपास के इलाकों सहित मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और कुश्ती के गढ़ माने जाने वाले क्षेत्र में पेशेवर (पारंपरिक) कुश्ती जिंदा थी। इस क्रम में गुरु हनुमान के शिष्य महाबली सतपाल, महासिंह राव और मास्टर चंदगीराम जैसे गुरु दिल्ली में कुश्ती को पूरी गंभीरता के साथ आगे बढ़ाते रहे। राजधानी के छत्रसाल अखाड़े में अथक परिश्रम और प्रतिभा के दम पर सुशील, योगेश्वर दत्त, बजरंग और अमित जैसे पहलवानों ने देश-विदेश में धूम मचाना शुरू कर दिया। देखते ही देखते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय पहलवानों की उपस्थिति एक दमदार प्रतिद्वंद्वी के रूप में दर्ज होने लगी। सुशील और योगेश्वर सहित सैकड़ों पहलवानों ने एक तरह से ताल ठोककर संदेश दिया कि वे अपने बल पर देश में कुश्ती की समृद्ध परंपरा को कायम रखेंगे।
इन वरिष्ठ पहलवानों से प्रेरणा लेते हुए आज कई युवा पहलवान कुश्ती में देश का नाम रोशन कर रहे हैं। सुशील की परंपरा को कायम रखते हुए योगेश्वर दत्त, अमित कुमार, बजरंग, सत्यव्रत, गीता व बबीता फोगट और साक्षी मलिक ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को कुश्ती का एक पावरहाउस बना दिया। पिछले तीन ओलंपिक खेलों में कुश्ती ही एकमात्र ऐसा खेल है जिसमें भारत लगातार पदक जीतता आ रहा है। यही नहीं, ओलंपिक में पदकों के लिहाज से हॉकी के बाद कुश्ती (कुल पांच पदक) दूसरे नंबर पर आ गई है।
बढ़ती प्रतिद्वंद्विता
देश में कुश्ती के प्रति बढ़ते आकर्षण का ही नतीजा है कि रियो ओलंपिक से ठीक पहले नरसिंह पहलवान डोपिंग के आरोप में टीम से बाहर कर दिए गए। नरसिंह ने अपनी सफाई में कहा कि उनके साथ साजिश की गई है। 74 किलोग्राम वजन वर्ग में सुशील कुमार भी रियो जाने के तगड़े दावेदार थे। हालांकि नरसिंह अंतत: रियो गए, लेकिन मुकाबले में नहीं उतर सके। इसकी जांच चल रही है और जो दोषी पाया जाए उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए। लेकिन इस प्रकरण का दूसरा सकारात्मक पहलू यह भी है कि देश में विश्वस्तरीय पहलवानों के बीच प्रतिद्वंद्विता बढ़ती जा रही है। भारत रियो में एक ही वजन वर्ग में नरसिंह या सुशील में से किसी को भी उतार सकता था और इन दोनों में से जो भी उतरता वह पदक का तगड़ा दावेदार होता।
रूखी नहीं रही कुश्ती
भारत के पूर्व पहलवान जगदीश कालीरमन ने कहा, ''कुश्ती की बढ़ती लोकप्रियता की बानगी यह है कि आम जिंदगी में कुश्ती को अपनाने के अलावा बॉलीवुड ने भी इस खेल की महत्ता को सलाम किया है। उन्होंने कुश्ती में ग्लैमर का तड़का लगाते हुए हिट फिल्में बनानी शुरू कर दीं। कुश्ती पर आधारित सलमान खान की फिल्म 'सुल्तान' और आमिर खान की फिल्म 'दंगल' की गिनती बॉलीवुड की सफल फिल्मों में होती है।'' इसी तरह, साक्षी मलिक को हरियाणा सरकार ने 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ और बेटी खिलाओ' का ब्रांड एंबेसडर बना दिया, जबकि सुशील और जगदीश कालीरमन बॉलीवुड या टीवी के कई कार्यक्रमों में शामिल किये जाते हैं।
कैरियर बनाने लगे युवा
पहलवानों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का परचम लहराते हुए कुश्ती को इतना लोकप्रिय कर दिया कि युवा वर्ग अब क्रिकेट, फुटबॉल, बैडमिंटन और टेनिस के साथ इस खेल को कैरियर बनाने को प्रमुखता देने लगा। पेशेवर लीग के बढ़ते आकर्षण का ही नतीजा है कि देश ही नहीं, विश्व के शीर्षस्थ पहलवान इसमें भाग लेने भारत आते हैं। रियो ओलंपिक में खासकर साक्षी का पदक जीतना भारतीय खेल जगत में ताजी बयार बहा गया। यह भारतीय खेल जगत में आया एक बहुत बड़ा बदलाव है। -प्रवीण सिन्हा
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