|
आज पूरे विश्व में हमारी प्राचीन ज्ञान परंपरा की तूती बोल रही है। आयुर्वेद की बात करें या तकनीकी के नए आयाम विकसित होने की, भारतीय मेधा ने अपने प्रचुर विवेक का लोहा मनवाया है। इस साल इस दिशा में नूतन प्रयासों को अग्रसारित करने के विशेष प्रयत्न हुए हैं जिसके सुपरिणामों से विश्व लाभान्वित होगा
रवि शंकर
व्यक्ति हो या कोई राष्ट्र, दोनों को ही दो प्रकार के लक्ष्यों का विचार हमेशा करना पड़ता है—तात्कालिक और दूरगामी। यदि हम भारत राष्ट्र के नाते विचार करें तो पिछले लगभग डेढ़ दशक से 2020 के भारत की कल्पना की जाती रही है। भारत के ये लक्ष्य वर्ष 1947 में मिली स्वाधीनता के पहले से ही समान रहे हैं, भले ही कुछ अंतरराष्ट्रीय संभ्रमों के कारण उनमें हमें अंतर प्रतीत होने लगा था।
इसका एक बड़ा उदाहरण है भाषा। स्वाधीनता के पहले से ही भारतीय महापुरुषों ने भारत की एक साझा भाषा के बारे में चिंतन किया था और हिंदी को उसके लिए स्वीकार किया था। परंतु स्वाधीनता के बाद भारत के शासकों ने अंग्रेजी को साझा भाषा का तात्कालिक लक्ष्य माना और दूरगामी लक्ष्य हिंदी को स्वीकार किया। दुर्भाग्यवश अंग्रेजी तो हर स्थान पर हावी होती गई लेकिन हिंदी को जो स्थान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया। परिणाम स्वरूप इन दोनों भाषाओं और अपनी मातृभाषा के बीच देश का भविष्य हिचकोले खा रहा है और नौनिहालों की कमर टूटी जा रही है। जबकि संस्कृत समस्त भाषाओं में पुल का काम करती है। वह भारत के उस सनातन विज्ञान की भी पथ प्रदर्शक है, जो हमें अंतरराष्ट्रीय संभ्रमों से मुक्त करके हमारे वास्तविक लक्ष्यों की ओर उन्मुख करता है।
संयोग ऐसा है कि दुनिया के वर्तमान विकास ने केवल भारत ही नहीं, वरन् पूरे संसार को ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है जहां से उसे उन्हीं दूरगामी लक्ष्यों पर विचार करना पड़ रहा है, जिनके बारे में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक भारतीय महापुरुष बताते आ रहे थे।
इस स्थिति के निर्माण के पीछे उस आधुनिक विज्ञान की भूमिका है जिसका विकास पश्चिम यानी यूरोप और अमेरिका में हुआ है। इसे विज्ञान कहना भी उसी अंतरराष्ट्रीय संभ्रम का नतीजा है।
यहां उदाहरणों को गिनवाने की आवश्यकता नहीं है। आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान की पैदा की गई समस्याओं का समाधान क्या है? मनुष्यता और प्रकृति की रक्षा कैसे संभव है? आज के दौर में हम कैसे इन दुष्प्रभावों से बच सकते हैं?
इन प्रश्नों पर विचार करें तो हम अपने उस मौलिक और प्रारंभिक बिंदु पर लौट आते हैं जिससे इस विषय की शुरूआत की गई थी। विषय था व्यक्ति और राष्ट्र के तात्कालिक और दूरगामी लक्ष्यों का। वास्तव में यदि हम शब्दों में न उलझें तो व्यक्ति और राष्ट्र के लक्ष्यों तथा इन दोनों के ही तात्कालिक और दूरगामी लक्ष्यों में बहुत अधिक अंतर नहीं है। दोनों ही प्रकार के लक्ष्य लगभग समान ही हैं। इस समानता को समझने का प्रयास करें तो हमें स्वाभाविक रूप से भारत की प्राचीन ज्ञान-विज्ञान परंपरा की ओर जाना पड़ता है।
इसे भी हम कुछेक उदाहरणों से समझने का प्रयास करेंगे। पहला उदाहरण रसायनशास्त्र का है। भारत में रसायनशास्त्र का अद्भुत विकास हुआ था। भारतीयों को केवल धातुओं की जानकारी ही नहीं, बल्कि उनका मिश्रितिकरण और उनका परस्पर परिवर्तन करना भी आता था। वे धातुओं का संस्कार करना भी भलीभांति जानते थे। परंतु फिर भी उन्होंने पूरे रसायनशास्त्र को जैविक संसाधनों पर ही आधारित रखा था। प्रकृति में सहज उपलब्ध पदार्थों से ही रसायन तैयार किए जाते थे और वे मनुष्य के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के संवर्धन के लिए होते थे। इस रसायन विद्या ने कभी भी प्रकृति से छेड़छाड़ नहीं की।
इसका दूसरा उदाहरण मनचाही संतान पाने का है। मनचाही संतान, जिसे आज डिजाइनर बेबी कहा जा रहा है, आज के विज्ञान द्वारा भ्रूण अथवा शिशु में जेनेटिक छेड़छाड़ से बनाई जाती है। इस तरह पैदा होने वाले शिशु में कई प्रकार के मानसिक विकार शामिल हो जाते हैं। वह शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम और योग्य तो होता है परंतु उसमें करुणा, दया, परदुख-कातरता जैसे स्वाभाविक मानवीय गुणों का अभाव हो जाता है। दूसरी ओर प्राचीन भारतीय तरीके में मनचाही संतान पाने के लिए किसी प्रकार की जेनेटिक छेड़छाड़ नहीं की जाती थी। जेनेटिक बदलाव किए जाते थे, परंतु वे मां के आहार-विहार और उसके आस-पास के वातावरण में बदलाव ला कर किए जाते थे। इससे न केवल मनचाही संतान होती थी, बल्कि उसमें किसी प्रकार का कोई विकार भी पैदा नहीं होता था। इसके एक नहीं, कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। निकट भारतीय इतिहास में छत्रपति शिवाजी इसका ज्वलंत उदाहरण हैं।
तीसरा उदाहरण आयुर्वेद का है। आधुनिक विज्ञान ने जिस चिकित्सा पद्धति का विकास किया है, वह न केवल प्रकृतिविरोधी है, बल्कि उससे मानव-स्वास्थ्य का भी नाश होता जा रहा है। उसकी हालत 'मर्ज बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की' वाली पुरानी कहावत जैसी ही है। दूसरी ओर, आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति मात्र नहीं है। वह जीवन का विज्ञान था और है। इससे आप केवल स्वस्थ रहना नहीं सीखते, बल्कि जीवन के शेष क्षेत्रों में क्या करें, यह भी जानते हैं। इसके ज्ञान के लिए आयुर्वेद मानव शरीर की प्रकृति के ज्ञान की बात करता है। प्रत्येक मानव शरीर की एक विशेष प्रकृति होती है जो उसके गर्भ में स्थापित होते समय ही बनती है। इसके आधार पर ही उसके पूरे जीवन के आचार-विचार और कर्म तीनों ही चलते हैं। यदि व्यक्ति अपनी इस प्रकृति को पहचान ले तो वह न केवल अपने कैरियर में सफल हो सकता है, बल्कि एक सफल पारिवारिक और सामाजिक जीवन भी जी सकता है।
ये तो केवल उदाहरण मात्र हैं। ऐसे और भी ढेरों विषय हैं। इन विषयों पर देश में अपरिमित काम चल रहा है। उदाहरण के लिए, मनचाही संतान पाने के भारतीय विज्ञान और मानव शरीर की प्रकृति को जानने के लिए शासन भारतीय धरोहर पर देश भर में अभियान चला रहा है। आयुष मंत्रालय के साथ मिल कर देशभर के प्रतिष्ठित वैद्यों की एक बैठक की गई थी जिसमें पूरे देश में 'अपनी प्रकृति को जानो' विषय पर एक अभियान चलाने और प्रकृति परीक्षण के लिए देश भर में प्रशिक्षित वैद्य तैयार करने पर सहमति हुई थी। उत्तम संतान के भारतीय विज्ञान पर देश में और भी कई संस्थाएं काम कर रही हैं। कई लोग इस भारतीय विज्ञान को आधुनिक विज्ञान की शब्दावली में समझने और समझाने का भी प्रयास कर रहे हैं। उदाहरण के लिए चेन्नै की डॉ. कल्याणी नायडु मनचाही संतान पाने के भारतीय विज्ञान को आधुनिक न्यूरोविज्ञान से व्याख्यायित कर चुकी हैं। दिल्ली की डॉ. भावना पाराशर ने मानव शरीर की प्रकृति को जेनेटिक्स की शब्दावली से समझाने के लिए आयुर्जिनोमिक्स की एक नई शाखा का ही सूत्रपात कर दिया है। इसलिए, यह कहना गलत नहीं होगा कि दुनिया में आज की समस्याओं के समाधान के लिए भारतीय ज्ञान-विज्ञान परंपरा ही आने वाले समय में सर्वाधिक चर्चा में रहने वाली है। विषय चाहे पर्यावरण का रहे या ऊर्जा आवश्यकताओं का, खेती का रहे या फिर अर्थव्यवस्था का, राजनीति का हो या फिर भौतिकी-रसायन आदि शुद्ध विज्ञान का, भारतीय परंपरा ही इन विषयों के कल्याणकारी स्वरूप को सामने ला सकती है। इसलिए आज जररूत है कि इन विषयों पर काम करने वाले लोगों, संगठनों और प्रयासों को प्रोत्साहन दिया जाए। सरकारें इन पर स्वयं पहल करके संवाद के कार्यक्रम आयोजित कर सकती हैं। उदाहरण के लिए गणित को सरल बनाने के लिए भारतीय गणित विधा को उच्च शिक्षा में स्थापित करने के लिए डॉ. चंद्रकांत राजू लंबे समय से प्रयत्नशील हैं। उन्होंने पाश्चात्य गणित की गड़बडि़यों, जिनके कारण गणित विद्यार्थियों के लिए जटिल और दुर्गम्य विषय बन जाता है, को भी पकड़ा है और उनका समाधान भी बताया है। परंतु आज के स्थापित गणितज्ञ उसके साथ संवाद से बचते हैं। ऐसे में पहल तो सरकार को ही करनी होगी। सामाजिक तभी प्रयासों को भी बल मिल सकेगा और उनके परिणाम भी आ सकेंगे।
अंतत: हमें यह समझना होगा कि परंपरागत भारतीय विज्ञान हमें केवल दूरगामी परिणाम ही नहीं देगा, उससे हमें तात्कालिक लाभ भी मिलने वाले हैं। वास्तव में यही एकमात्र मार्ग है जो हमें दोनों लक्ष्यों की एक साथ प्राप्ति कराने वाला है। महर्षि दयानंद से लेकर महात्मा गांधी तक,
सभी महापुरुष इसकी ओर ही संकेत करते रहे हैं। भारत सरकार ने इस साल इस संबंध में सराहनीय प्रयास किए हैं। योग के साथ ही आयुर्वेद को दुनिया में प्रतिष्ठित कराने के लिए विभिन्न योजनाओं को आगे बढ़ाया जा
रहा है।
टिप्पणियाँ