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भारत में कभी सिपूतों की कमी नहीं रही। जब भी देश को जरूरत महसूस हुई, कोई न कोई सपूत पैदा हुआ है। उन्हीं सपूतों में से एक थे स्वामी श्रद्धानंद। बचपन में इनका नाम था मंुशीराम। स्वामी जी अपने समय में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिपुरुष, धार्मिक क्षेत्र के तेजपुंज और वंचित समाज के लिए आशा की किरण थे। उन्होंने अपने प्रयास से स्थापित पत्रिकाओं (श्रद्धा, सद्धर्म प्रचारक, तेज, अर्जुन, लिबरेटर) के जरिए वर्षों तक राष्ट्र जीवन को प्रभावित और अनुप्राणित किया। लेकिन आज उनकी पहचान आर्य समाज के एक प्रवक्ता या शुद्धि आंदोलन चलाकर मुसलमानों की क्रोधाग्नि की आहुति बने एक धार्मिक नेता तक सीमित है। वे विस्मृति के गर्भ में विलीन हो गए हैं। हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'असली महात्मा : स्वामी श्रद्धानंद का उज्ज्वल चरित' विस्मृति के इस धुंधलके को छांटने में सहायक है। प्राक्कथन में प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु लिखते हैं, ''स्वामी जी की सर्वाधिक सामग्री उर्दू में छपी है। …स्वामी जी के सर्वाधिक लेखों और संपादकीय टिप्पणियों को भी उनके उर्दू साप्ताहिक में पढ़ा है। अपने अध्ययन और खोज—पड़ताल के आधार पर मैं कह सकता हूं कि स्वामी जी महाराज के घटनापूर्ण और प्रेरक जीवन को पहली बार किसी लेखक ने ह्दयस्पर्शी शैली में निडरता से लिखा है।''
सर्वविदित है कि एक समय ऐसा भी आया कि स्वामी जी धर्म से बहुत दूर होकर नास्तिक हो गए थे। वे अक्सर कहा करते थे कि धर्म के नाम पर पाखंड हो रहा है। उन दिनों उनके पिता, जो पुलिस विभाग में थे, की तैनाती बरेली में थी। एक दिन उन्होंने बालक मंुशीराम से कहा कि तुम धर्म के बारे में बहुत उलटी बातें करते हो। सुना है कि स्वामी दयानंद सरस्वती नामक एक धर्मात्मा बरेली में प्रवचन देने वाले हैं। वहां की सुरक्षा का प्रबंध मेरे जिम्मे ही है। मेरे साथ चलो, उनको सुनकर तुम्हारा मन बदल सकता है। ना-नुकुर के बाद वे अपने पिता के साथ वहां पहुंचे। उनका भाषण सुनकर सच में उनका मन बदल गया। स्वामी जी अपनी आत्मकथा में लिखा हैं, ''पहली बार उस आदित्य मूर्ति को देखकर मुझमें श्रद्धा उत्पन्न हुई। परंतु जब पादरी टी.जे. स्कॉट और दो-तीन अन्य यूरोपियनों को उत्सुकता से बैठा देखा, तो श्रद्धा और भी बढ़ी। अभी दस मिनट वक्तृता नहीं सुनी थी कि मन में विचार किया.. यह विचित्र व्यक्ति है कि केवल संस्कृतज्ञ होते हुए ऐसी युक्तियुक्त बातें करता है कि विद्वान दंग रह जाएं। व्याख्यान परमात्मा के निज नाम ओइम् पर था। वह पहले दिन का आत्मिक आनंद कभी भूल नहीं सकता। मुझ जैसे नास्तिक को भी आत्मिक आह्लाद में निमग्न कर देना तो ऋषि आत्मा का ही काम था।''
स्वामी जी बहुत ही निडर थे। सही बात पर वे कभी झुके नहीं और गलत बात कभी की नहीं। वे किस मिट्टी के बने थे, इसका वर्णन 'तौबा करता हूं तुम्हारी नौकरी से' शीर्षक अध्याय में मिलता है। अंग्रेजी उपन्यासों में डूबे रहने से अंग्रेजी भाषा पर मंुशीराम (स्वामी जी) की अच्छी पकड़ थी। इसके बावजूद वे बेरोजगार थे और यूं ही भटकते रहते थे। घर वाले उनके प्रति चिन्तित रहते थे। बरेली के तत्कालीन कमिश्नर उनके पिता के मित्र थे। एक दिन उनके पिता उन्हें लेकर कमिश्नर के पास पहुंचे और कोई नौकरी देने का निवेदन किया। उनकी अंग्रेजी से कमिश्नर बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उन्हें प्रशिक्षण के लिए एक तहसीलदार के पास भेज दिया। उप- तहसीलदार के छुट्टी पर जाने से उसकी जगह उन्हें नौकरी पर रख लिया गया। लेखक पुस्तक के पृष्ठ 19 और 20 पर लिखा है, ''नौकरी में भर्ती होने के ढाई महीने बाद मंुशीराम की तहसील के एक पड़ाव पर सेना को एक रात काटनी थी। वह जगह बरेली से 8-10 मील पर थी। वहां उस सेना को रसद पहंुचाने के लिए मंुशीराम चपरासी-जमादार लेकर पहुंचे। फौज गोरों की थी। वहां पहंुचते ही गोरे सैनिकों ने बस्ती की दुकानों पर धावा बोल दिया और बिना पैसे दिए ही मनपसंद चीजें झपटकर ले जाने लगे।…परिस्थिति को देखकर मंुशीराम आगबबूला हो गए। सीधे कर्नल के पास जाकर शिकायत की और कहा, ''कृपा करके आप अपने लोगों से कहिए कि ली हुई चीजों का दाम गरीब दुकानदारों को दे दें।.. दाम नहीं दिए गए तो मैं अपने सारे लोगों को लौटा ले जाऊंगा।'' कर्नल ने कहा, ''तुम ऐसा करोगे तो नुकसान उठाओगे। तुम्हारी इस गुस्ताखी का क्या मतलब है?'' ..मुंशीराम के सब्र का बांध टूट गया और उन्होंने कहा, ''अब मैं अपने आदमियों को लेकर जा रहा हूं। मैं यह अपमान नहीं सह सकता। आप जो कर सकते हों, कर लें।'' इसके बाद उनकी शिकायत कलेक्टर से की गई और उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। जब यह बात कमिश्नर के पास पहंुची तो उन्होंने मुंशीराम को बुलवाया और कहा कि तुम्हारी बर्खास्तगी रद्द की जाती है और तुम नौकरी करो। लेकिन मंुशीराम ने उन्हें आदर के साथ बताया कि अब उनका मन सरकारी नौकरी से उचट गया है और उन्होंने नौकरी छोड़ दी। पुस्तक में एक अध्याय है 'गांधी जी का वह छोटा भाई!' इसमें सप्रमाण बताया गया है कि महात्मा गंाधी ने स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद को 'भाई' कहते हुए उसका बचाव किया था। यही नहीं उन्होंने स्वामी जी की हत्या के लिए उन्हें ही दोषी ठहराया था। उन्होंने कांग्रेस के गुवाहाटी अधिवेशन में एक प्रस्ताव रखते हुए कहा था, ''स्वामी जी की मृत्यु पर हमें शोक नहीं करना चाहिए। उन्होंने वीरगति पाई है। ऐसी मृत्यु हमें भी मिले, ऐसी कामना हममंे से प्रत्येक व्यक्ति को करनी चाहिए। किन्तु हम शहीद बन सकें, इसके लिए कोई दूसरा व्यक्ति अपराध करे, ऐसी इच्छा भी किसी को नहीं करनी चाहिए। स्वामी जी वीरों में वीर थे। धीर पुरुषों में धीर पुरुष थे। अपनी अपूर्व दृढ़ता और साहस से उन्होंने पूरी जाति को आश्चर्यचकित कर दिया और जिन परिस्थतियों में उनकी मृत्यु हुई है, उनको लेकर सोचने पर शरीर सिहर उठता है। क्रोध उभरता है। हत्यारे ने इस्लाम पर चर्चा करने के लिए स्वामी जी से इंटरव्यू का समय मांगा था। उनके भरोसेमंद सेवक ने उसे अंदर आने नहीं दिया था, क्योंकि डॉ. अंसारी ने उसे आज्ञा दी थी कि जब तक स्वामी जी अस्वस्थ रहेंगे तब तक, उनसे इंटरव्यू करने की अनुमति किसी को न दी जाए। किन्तु ईश्वर की आज्ञा कुछ दूसरी ही थी। … जहां तक हम जानते हैं, स्वामी श्रद्धानंद में मुसलमानों के प्रति अणुमात्र भी द्वेषभाव नहीं था। उन्होंने अंत तक हिन्दू-मुसलमानों के परस्पर सद्भाव की ही कामना की थी। दुर्बल हिन्दुओं और बलशाली मुसलमानों के सहजीवन को कठिन समझकर ही उन्होंने 'शुद्धि' आंदोलन का संकल्प किया था। किन्तु इसके कारण मुसलमानों में उनके प्रति द्वेष भर गया था। स्वामी जी की हत्या का यही कारण था। इसलिए असली दोषी कौन है? द्वेषभाव को भड़काने वाले श्रद्धानंद जैसे लोग! यही न!'' (पृष्ठ सं. 225 से 227)
पुस्तक में कई ऐसे प्रसंग हैं, जिन्हें जानना आज की जरूरत है। कुछ अशुद्धियों को छोड़कर पुस्तक पठनीय है।
-अरुण कुमार सिंह
उठने वाला है वहां, एक ऐसा तूफान
ल्ल डॉ. पाल भसीन
तन-मन से बल-युक्त हैं, जहां सभी इनसान,
वही भूमि भूगोल में, है बल उच्च स्थान।
मुक्ति हेतु जी-जान से, जुटे बलोची वीर।
हिंगलाज मां दे उन्हें, अब जय का वरदान।।
बेच शराफत रूह की, बनते जहां शरीफ,
ढल सकता है दूह में, वह आतंकिस्तान।
उसने जो आतंक का, ताना अंतर्जाल,
उलझ उसी में दे रहा, वो अटपटे बयान।
अब्दाली का वो नहीं, वंशज किन्तु मुरीद-
होकर स्वयं बटोरता, मय्यत का सामान।
अभी संभल तू, वक्त है, मिट जाए न वजूद।
उठने वाला है जहां, एक ऐसा तूफान।।
हम भी हाथों में लिये, बैठे नहीं गुलेल,
क्यों ऐटम की शक्ति का, करता फिरे बखान?
उसे मिटाने का न तू, स्वप्न देख अब और।
तू खुद जिसका अंश, वह अंशी हिन्दुस्तान।।
पुस्तक का नाम : असली महात्मा : स्वामी श्रद्धानंद का उज्ज्वल चरित
लेखक : एम.वी.आर.शास्त्री
पृष्ठ : 247 मूल्य : 200 रु.
प्रकाशक : दुर्गा पब्लिकेशंस, जी-1, साई कृष्ण मेंशन, 1-1-230/9, विवेक नगर, चिक्कादापल्ली, हैदराबाद- 500020
पुस्तक : पूज्य रज्जू भैया : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
लेखक : प्रो. त्रिलोकी नाथ सिनहा
पृष्ठ : 329
मूल्य : सजिल्द 300, रु. अजिल्द 200 रु.
प्रकाशक : संस्कृति प्रकाशन, बी 32/32 ए-14, साकेत नगर, वाराणसी-5
पुस्तक : हिमालय पर लाल छाया
लेखक : शान्ता कुमार
पृष्ठ : 343, मूल्य : 600 रु.
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड, नई दिल्ली-110002
पुस्तक : इहु जनमु, तुम्हारे लेखे
लेखक : स. चिरंजीव सिंह
पृष्ठ : 191 मूल्य : 50 रु.
प्रकाशक : संगत संसार सोसायटी, बी-41,
सेक्टर-6, नोएडा-201301
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