अभिमत - सांस्कृतिक एकता की शक्ति संघ
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अभिमत – सांस्कृतिक एकता की शक्ति संघ

by
Dec 5, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Dec 2016 16:38:59

-डेविड फ्रॉले (वामदेव शास्त्री)-

दीर्घकालिक स्वप्न को साकार करने के लक्ष्य के साथ संघ भारत की राष्ट्रीय अखंडता और सांस्कृतिक समन्वय को अक्षुण्ण रखने के लिए समर्पित है। यह संतों और गुरुओं के पथ पर चलता है

पिछले तीस वर्ष से मैं संघ से जुड़ा हूं। 1988 में मेरे आयुर्वेदिक शिक्षक डॉ. बी़ एल़ वत्स ने मुंबई में हिंदू सामाजिक संगठन से मेरा परिचय कराया था, जिसके वे सदस्य थे। उस दिन सुबह अपना सूटकेस खोलने पर उसमें पहनने के लिए सिर्फ एक भूरे रंग की खाकी पैंट देखकर मैं हैरान रह गया था। तब मैं नहीं जानता था कि वह संघ की पोशाक है। स्वाभाविक था कि जब मैं दल के लोगों से मिला तो वे मुझे खाकी पैंट में देखकर अचंभित थे। निस्संदेह वह आगत भविष्य का संकेत था।  
मैंने श्री अरबिंदो और स्वामी विवेकानंद का कुछ वर्षों तक अध्ययन किया था और मुझे महसूस हुआ कि योग-वेदांत पर इन विभूतियों के विचारों को ही मार्गदर्शक मानकर संघ सामाजिक क्षेत्र में कार्य कर रहा है। मैंने श्रीगुरुजी की पुस्तक 'बंच ऑफ थॉट' पढ़ी। इसमें मुझे भारत का एक विहंगम दृश्य दिखाई दिया। सौभाग्य से संघ के साथ मेरा परिचय उसके खिलाफ बड़े पैमाने पर शुरू किए गए दुष्प्रचार के पहले हो चुका था। लिहाजा, जब मैंने मीडिया में संघ विरोधी बयानबाजी देखी तो मुझे रत्ती भर भी विश्वास नहीं हुआ।
बाद में संघ के कई कार्यकर्ताओं, विशेषकर सरसंघचालक कुप्.  सी. सुदर्शन, से मिलने का अवसर मिला। उनके साथ मेरा नजदीकी रिश्ता वषार्ें तक बना रहा। पिछली सदी के दौरान भारत के राष्ट्रीय चिंतन और साझा परंपराओं को साकार करने की दिशा में सार्थक कार्य करने वाला सबसे प्रभावशाली संगठन संभवत: संघ ही रहा है। संघ एक सेवा समर्पित संगठन है, न कि राजनीतिक, शैक्षणिक या मीडिया उपक्रम। विश्व में संभवत: संघ जैसा कोई संगठन नहीं है, जो समाज के सभी वर्गों के सरोकारों को राष्ट्रीय सेवा अभियान के तौर पर संबोधित करता आया होे। संघ भारत की विरासत को अक्षुण्ण रखने, इसके सांस्कृतिक दर्शन को प्रोत्साहित करने और भारतीय समाज की शक्ति को बरकरार रखने के लिए समर्पित सबसे प्रमुख अभियान है। यह देश के प्रत्येक क्षेत्र और पेशे से आए विचारकों और कार्यकर्ताओं का सबसे प्रभावशाली संगठन है जो भारत के समग्र स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है और देश के गांवों तक जमीनी स्तर पर जुड़कर नियमित रूप से कार्य कर रहा है।
संघ भारत की 1,000 साल पुरानी सांस्कृतिक परंपराओं को अंगीकार करने वाले धार्मिक मूल्यों पर आधारित संगठन है। इसका सारथी है भगवद्गीता में प्रस्तुत कर्मयोग दर्शन, जिसमें आध्यात्मिक पथ के रूप में समाज सेवा पर बल दिया गया है। यह वेदकाल से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन और आधुनिक काल तक के भारत के महान नेताओं, संतों और विचारकों और गुरुओं के बताए पथ का अनुसरण कर रहा है।
संघ सिर्फ एक हिंदू संगठन नहीं, बल्कि एक ऐसा चिंतन है, जो धर्म के सभी स्वरूपों और समाज के विभिन्न दृष्टिकोणों का सम्मान करता है। इसका परम उद्देश्य सभी देशवासियों का कल्याण करना है, जिसमें लोगों की जातीय, धार्मिक, वित्तीय या सांस्कृतिक पृष्ठभूमि कभी आड़े नहीं आती। आत्म-अनुशासन और चरित्र निर्माण संघ-संस्कृति का मूल दर्शन है। यह नि:स्वार्थ सेवा को प्रोत्साहित करता है जिसका ध्येय लोगों के मत में परिवर्तन लाना नहीं, बल्कि उन्हें उनकी आकांक्षाओं का एहसास कराने में मदद करना है।  
पिछली सदी में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक पुनरुत्थान का आह्वान किया गया था। दुर्भाग्य से, आजादी के बाद भारत की राजनीति अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' नीति का पालन करने लगी। इसने जाति, क्षेत्र या मजहब के आधार पर वोट बैंक तैयार करने की लालसा में समाज के एक वर्ग को दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया और राष्ट्रीय अखंडता पर ग्रहण लगा दिया। राष्ट्रीय अखंडता पर छाए स्याह बादल भारत की समन्वित साझा सांस्कृतिक परंपराओं से नहीं उभरे थे, बल्कि उन्हें पश्चिमी समाजवाद और मार्क्सवाद के विभाजनकारी मंसूबों ने पैदा किया था। संघ को भारत में अक्सर इन्हीं समाजवादी और वामपंथी समूहों की निंदा झेलनी पड़ी है। संघ ने  नेहरूवादी समाजवाद और इसकी पश्चिम का अनुकरण करने की राजनीतिक प्रवृत्ति के सामने भारतीय दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। भारत में साम्यवाद पर अंकुश के तौर पर संघ के विरोध का बल अगर सक्रिय नहीं होता तो संभव है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत का भी पतन हो चुका होता जैसा कि कम्युनिस्ट चीन या सोवियत संघ में हुआ।
संघ संपूर्ण भारत के लिए राष्ट्रीय और सांस्कृतिक एकता की शक्ति है। पिछले 90 वर्ष से यह अपने राष्ट्रीय उद्देश्य और मूल दर्शन के पथ पर समर्पित भाव से अग्रसर है और आज पहले से भी ज्यादा सशक्त है और भारत में नए परिवर्तनों और विस्तार के नए दौर के साथ अगली सदी में प्रवेश की तैयारी कर रहा है। यह अतीत की छाया नहीं, बल्कि भविष्य का प्रकाशपुंज है जो भौतिक और आध्यात्मिक स्तरों पर राष्ट्रीय विकास और प्रगति की नई सदी का शंखनाद कर रहा है।                     
(लेखक अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ वैदिक स्ट्डीज के संस्थापक और निदेशक हैं)

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