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अपनी बात – समझना है तो पास आओ

by
Dec 5, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Dec 2016 10:25:56

 

संगठन का अंकुर व्यक्ति की आकांक्षा से फूटता है। ज्यादातर संगठन किसी एक विषय, किसी एक या परस्पर जुड़े क्षेत्रों में, एक खास 'कल्चर' में काम करते दिखाई देते हैं। लेकिन व्यक्ति या क्षेत्र विशेष की चमक फीकी पड़ते ही ऐसे संगठन भी अस्त होने लगते हैं। ज्यादातर मामलों में यही होता है। लेकिन बतौर संगठन जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यात्रा को देखते हैं तो पाते हैं कि हर पड़ाव, हर संघर्ष के बाद इसकी आभा और निखरती गई। अंतर क्या है? अंतर एक नहीं कई और बड़े साफ हैं। यहां व्यक्ति नहीं है, समाज है। 'कल्चर' नहीं है, संस्कारित शक्ति है। कोई एक सीमित क्षेत्र नहीं है बल्कि छोटे से मैदान से उठती और देश, दुनिया और ब्रह्मांड तक को एक सूत्र में देखने वाली दृष्टि है। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं, स्वयं को पीछे रख अपने पुरखों और परंपराओं को आगे रखने वालों को यश तो मिलना ही था। चाहे उन्होंने कभी इसकी कामना न की हो।

संगठन का बनना, चलना और इतने लंबे समय तक अपने ध्येय और स्वभाव को शाश्वत तौर पर साधे रहना कोई सामान्य बात नहीं है। यह सामान्य सांगठनिक क्रियाकलाप नहीं बल्कि साधना की-सी स्थिति है। अन्य कोई संभवत इस लंबी साधना में जड़ हो जाता किन्तु यह अनूठी कार्यपद्धति है जिसने संघ को चिरजीवंत बनाए रखा है। यहां ठंडेपन और निराशा का लेशमात्र भी भाव नहीं है। आखिर कौन सी शक्ति संघ को चला रही है? यह समाज की वह सुप्त रही शक्ति है जिसे संघ कार्यकर्ताओं ने जी-तोड़ प्रयासों से जगाया। जिस अनुपात में यह जागरण हुआ, समाज में उससे भी बढ़कर सकारात्मकता की लहरें उठीं और द्विगुणित होती चली गईं। समाज मानो राष्ट्रभाव में पगी ऐसी पहल की प्रतीक्षा में था, तभी उसने सतत तौर पर ऐसा उत्साही प्रतिसाद दिया।

नागपुर का महाल मुहल्ला। खाली पड़े मोहिते के बाड़े में डॉक्टर केशव को जब लोगों ने बच्चों की मंडली जमाते देखा तो शुरू में किसी ने ध्यान नहीं दिया। जिन्होंने दिया, उनमें से भी ज्यादातर ने इसे 'व्यायामशाला' ही देखा। डॉक्टरी पढ़-लिखकर कोई यूं अचानक बच्चों और मिट्टी-मैदान में रमता है भला! किन्तु वास्तव में यह इतना अचानक भी नहीं था। विश्व में भारत के गौरवपूर्ण स्थान से पतन की वेदना और इसके पुनरुत्थान की राह तलाशने की उत्कट इच्छा लिए डॉक्टर हेडगेवार ने 1915 से 1924 तक गहन चिंतन किया था।

चिकित्सक की ख्याति क्लीनिक के नाम से ज्यादा रोग पहचानने की क्षमता और तद्नुसार सटीक उपचार के गुण से होती है। यह बात संघ स्थापना के मामले में पूरी तरह ठीक बैठती है। 1925 में विजयादशमी के दिन भेदभाव से ग्रस्त, हतबल हिंदू समाज की पहली उपचारशाला तो खुल गई परंतु इसके नाम का न कोई पट लगा, न पर्चा बंटा। नामकरण हुआ 17 अप्रैल 1926 को। यानी पहले काम खड़ा हुआ, नामकरण इसके छह माह बाद हुआ। काम सदा नाम से पहले आता है। यह जो संस्कार संघ स्थापना की नींव में रखा गया आज 90 वर्ष बाद भी इस संगठन और इससे प्रेरणा पाने वालों को राह दिखाता है।

संघकार्य के लिए जीवन अर्पण करने वाले ऋषितुल्य प्रचारक या गृहस्थ साधना के साथ संघमार्ग पर बने रहने की तपस्या करने वाले स्वयंसेवक, यह बात दुनिया को माननी होगी कि संघ ने कार्यकर्ताओं के रूप में अनमोल प्रतिभाओं को साथ जोड़ते हुए बेजोड़ काम खड़ा किया है। हर प्रांत और पृष्ठभूमि से संघ की ओर कदम बढ़े और यही कारण है कि आज समाज जीवन की हर दिशा में संघ विचार और प्रेरणा से भरे कार्यकर्ता, प्रकल्प और संस्थाएं दिखाई देते हैं।

वैसे, संघ यात्रा के नौ दशक पूरे होने पर उस धुरी को समझना आवश्यक है जिस पर संघ टिका है। यह धुरी इस देश, इसके समाज, इसकी परंपराओं और पुरखों के साथ एकात्म है। जिस चिति से, जिस भाव को जीवन-आधार मानकर युगों से इस राष्ट्र में कार्यव्यवहार चल रहा है, वह भाव ही इसका आधार है। यह है संघ की धुरी। यह कोई अलग से, बाहर से लाकर गाड़ा गया खूंटा नहीं है बल्कि संस्कृति और राष्ट्रप्रेम का वटवृक्ष है। जो लोग संघ के बारे में यह बात नहीं जानते वे इसकी वास्तविक शक्ति से भी अपरिचित रह जाते हैं।

संघ के विराट स्वरूप का दर्शन एक अलग अनुभव से भरता है। ऐसा कौन-सा सकारात्मक काम है जिसे स्वयंसेवक नहीं कर रहे? समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में स्वयंसेवकों और संघ प्रेरित संगठनों ने निष्ठा, कर्मठता और संस्कारित शैली के माध्यम से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। संस्कारपूर्ण शिक्षा से सीमा सुरक्षा तक, देहदानियों से लेकर शिशुओं तक, अर्थ-व्यापार से गोसेवा तक जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में, विश्व के विभिन्न देशों में, सभी दिशाओं में संघ विचार की छाप, और तेज होती पदचाप हम आज सुन सकते हैं।

एक अन्य और इतनी ही महत्वपूर्ण बात है संघ के बारे में कई लोगों के अवचेतन पर जमा भ्रांतियों की धूल का हटना। यह जरूरी है। देश की स्वतंत्रता में संघ का क्या योगदान था? या विभाजन के दौरान संघ क्या कर रहा था? या प्रचारक और स्वयंसेवक कार्यकर्ता में ज्येष्ठता-श्रेष्ठता का कोई भाव है क्या? ऐसे अनेक प्रश्न संघ के बारे में विशद जानकारी न होने पर किसी भी पाठक या अध्येता के मन में उठ सकते हैं। एक प्रतिष्ठित पत्रिका के तौर पर इन प्रश्नों या शंकाओं का समाधान इस संग्रहणीय अंक के माध्यम से प्रस्तुत करना पाञ्चजन्य के लिए जरूरी है। हमने इस अंक में संघ के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार कराने का प्रयास किया है। इसके लिए प्रयत्नपूर्वक सामग्री जुटाई गई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विषय में जिज्ञासाओं का समाधान करते तथ्यपूर्ण उत्तर इस अंक में संकलित विभन्न विभूतियों के लेखों, अनुभवों और संघ के वर्तमान सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी के साक्षात्कार को पढ़ने के बाद मिल सकेंगे, ऐसी हमें आशा है।

लेकिन फिर भी, जैसा कि अनुभव सिद्ध है, दूर से देखने पर दृष्टिभ्रम हो सकता है। संघ के नजदीक आइए। देखिए, अनुभव कीजिए, जुडि़ए। संघ समझ में अवश्य आएगा।

आपको यह अंक कैसा लगा, अवश्य बताएं। आपकी प्रतिक्रियाएं हमें भविष्य में भी ऐसे बौद्धिक प्रयासों के लिए प्रेरित करेंगी।

 

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